भूख का झण्डा भूखे बच्चों जैसे दौड़े आते हैं शब्द मेरी लेखनी और कागज की आहट पर किसी भंडारे की तलाश करते और सज जाते हैं पंगत की पंक्तियों सी परोसने का इ
भूख की कविताएँ
भूख का झण्डा
भूखे बच्चों जैसे
दौड़े आते हैं शब्द
मेरी लेखनी और कागज की आहट पर
किसी भंडारे की तलाश करते और
सज जाते हैं
पंगत की पंक्तियों सी
परोसने का इंतजार करते
कविता की पंक्तियों में ।
यही इबारत एक दिन
क्रांति लाएगी
भूख का झंडा उठाए
यही शब्द फिर
टाँग दिए जाएँगे सूली पर
फाँसी की सजा भुगतने
क्योंकि भूख का नारा लगाना
कभी भी मंजूर नहीं था
भरे पेट वाले इंसानों को।
इनका रोना पीटना भी
नाजायज़ होता है ये शब्द सिर्फ
हमाल की पीठ जैसे हैं
जमाने का बोझ ढोने के लिए
जो सिर्फ कराह सकती हैं
आँसू नहीं बहा सकती
व्यथा कह नहीं पाती
परंतु ऐंठती आँतों में
भूख का अनुवाद
सिर्फ और सिर्फ भूख ही होता है।
भूख का बीज
सोचता हूँ कभी-कभी की
भूख कैसी होती होगी?
काली-कलूटी, स्याह-डरावनी
किसी चुड़ैल की तरह या फिर
गोरी-चिट्टी,सुन्दर
किसी फिल्मी कलाकारों जैसी
शायद
अधों के हाथी जैसी है-भूख
जिसने जैसा देखा वैसा बताया।
गरीबी रेखा से नीचे और ऊपर भी
गाँव से शहर में
झुग्गियों से अट्टालिकाओं तक
रुपये डालर, यूरो, येन, फ्रेंच की
सबकी अपनी-अपनी भूख
भूख के सामने
आत्मसमर्पण करते हैं-दिलोदिमाग।
भूख के विषय भिन्न-भिन्न होते हैं
पेट, जिस्म, दिल-दिमाग की
आग, पानी, मुद्रा, सत्ता, यश की भूख
कोख बिकवाती
चाँद तक ले जाती है भूख
भूख बना लेती है-
नायाब स्मारक ताजमहल जैसा
या तो लिख देती हैं
जघन्य अपराधों की काली फेहरिस्त
अनदेखी,अनसुनी किस्सों के जैसी।
मैंने पहले भी कहा है कि-
भूख का पौधा जिन्दा रहता है
बिना खाद-पानी के
शताब्दियों से हमेशा जवान
यह कभी विलुप्त होगा भी नहीं
इसी की टहनी पर
झंडा लगाए लोग और
सेनाएँ निकल पड़ती है
अपनी-अपनी भूख की सीमा नापने
लूट-खसोट करते हुए भूख मिटाने
इसी तरह इंसान
प्रकीर्णन करता ही रहा है
भूख के बीजों का
इस दुनिया से अनंत ब्रह्मांड तक।
अजर अमर भूख
जब मैं प्रणय गीत गुनगुनाता हूँ
अप्सराएँ व्योम विहार भूलकर
मेरे आँगन आ जातीं हैं
पर जब भूख से अकुलाती मेरी आँतों से
भूख-प्यास राग फूटता है
तब पास मेरे
कोई भी नहीं फटकता है।
खूबसूरत महँगे आइने में भी
मेरा भूखा चेहरा वैसा ही दिखता है
लोग कहते हैं कि आदमी के संग
भूख भी मर जाती है
शमशान से लौटे हैं
अभी-अभी लोग भूख को दफ़न कर
यही वे लोग हैं जो पंगत में बैठे हैं।
रीति-रिवाज,परम्पराओं की दुहाई देकर
भूख इन सबके शरीर में
पुनः जिंदा होकर लौट आती है
भूख अजर-अमर है
सभी इससे मुक्ति पाना चाहते हैं
बावजूद इसके लोग भाग रहे है
इस छोर से उस छोर तक
अपनी भूख को जिंदा रखे हैं
आखिरी हिचकी तक।
भूख और नदियाँ
गंगा-गंगोत्री से
यमुना यमुनोत्री
नर्मदा -अमरकंटक से और
महानदी का सिहावा पर्वत से
उद्गम होता है।
पथरीली राहों,कंदराओं
पर्वतों से झरती हुई
बलखाती जीवनदायिनी
ये नदियाँ विलीन हो ही जाती हैं
महासागरों में।
किंतु भूख का उद्गम
कहीं से भी हो सकता है
किसी भी दिशा में
प्रवाहित हो सकती है और
हर स्पंदन को
दस्तक देती हुई यह
पेट से निकलकर
दिल, दिमाग और आत्मा में
ज्वाला धधकाती हैं।
भूख और नदियाँ
चिरंतन प्रवाहमान हैं
रोटी और बाँध
इसके विश्राम स्थल हैं
किंतु इसे नियंत्रित करना
इंसानी शक्ति से परे है
क्योंकि
नदियाँ तो लुप्त हो सकती हैं
परन्तु
भूख सदासुहागन चिरयौवना है।
भूख का गणित
भीषण गर्मी में लू के थपेड़ों में
पिघलती कोलतार की सड़कों के बीच
बंद किवाड़ों के पीछे ऊँघते हुए शहर से
अनजाने ढँके चेहरे
निकल भागते हैं एकाएक
दौड़ते वाहनों में
शीतलता की तलाश में।
वहीं लू से हो रही मौतों के बीच
नीम के नीचे दुबकी बैठी छाया
मुन्ने को दुलार रही थी और वह
जूते, छाते की मरम्मत कर रहा था
रोटी के आईने में
अपना चेहरा तलाशने।
झंगलू हमाल ढोता है
पीठ पर पूरे गाँव का बोझ
कंगलू बर्फ वाला
विश्वास के चौराहे से
चेतना की घंटी बजाता हुआ
निकल पड़ा है सूर्य को अँगूठा दिखा
चांद सी शीतलता बेचने।
मंगलू रिक्शा लिये
स्टैंड पर बाट जोह रहा था ग्राहक की
जिसे मंजिल पर पहुँचा कर
बुझानी थी अपने ही पसीने से
पेट के भूख की आग;
लू ते थपेड़ों से भी
कहीं ज्यादा गर्म होती है
पेट के भूख की आग
जो सिखा ही देती है अनपढ़ों को भी
भूख का गणित हल करना।
- रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर-रायपुर, छत्तीसगढ़
COMMENTS