शहरवासी ग्रामीण जीवन की समस्याओं से पूर्ण रूप से अपरिचित ही है। जो कृषक हमारे लिए अन्न उत्पादन करते हैं, हमें उनके संघर्षमय जीवन, रहन-सहन, सुख-दुःख
कौस्तुभ स्तम्भ कहानी समीक्षा
तटबंध पर ठिठका खड़ा सूरज भरपूर आँखों से देख रहा था, कभी निर्मम प्रकृति के बीच अखंड जलधार को और कभी अपराजित मानव समूह के बीच खड़ी कौस्तुभ स्तम्भ दीपित देवी माँ को "
सत्य घटनाओं पर आधारित यह कहानी है निर्दयी प्रकृति और मानव जिजीविषा के मध्य संघर्ष की, प्रकृति के हर वार, हर घात को सह कर भी निरन्तर आगे बढ़ते रहने को बद्धपरिकर, उद्यमी मनुष्यों की। एक ओर जहाँ देवी माँ जैसे चरित्र के माध्यम से लेखिका ने मानवता और परोपकार जैसी भावनाओं के प्रति आज भी हमारे विशवास को बनाए रखा है तो दूसरी ओर यह कहानी सरकारी व्यवस्था की चरम अवनति, अकर्मण्य मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों एवं झूठे भाषण देने वाले नेताओं पर करारा व्यंग्य भी है।
अस्सी दशक के अन्तिम चरण की यह कहानी आज भी प्रासंगिक है, या यूँ कहना चाहिए कि अब और भी अधिक प्रासंगिक हो उठी है। यह कहानी है तो कोसी- कमला के जलप्लावन की,कोसी तटबंध की, वहाँ की भयावह बाढ़ परिस्थिति का आँखों देखा हाल ; परन्तु इदानीम्, इसक कहानी का प्रभाव क्षेत्र और उद्देश्य कोसी-कमला तट तक ही सीमाबद्ध न रहकर आसमुद्रहिमाचल तक विस्तृत है क्योंकि बाढ़, चक्रवाती वर्षा, सुनामी आदि का ताण्डव पूरे देश को झेलना पड़ता है। बंगाल और ओडिशा का तटवर्ती क्षेत्र तो हर वर्ष ही चक्रवाती वर्षा की चपेट में आ जाता है, कभी 'आइला' के रूप में तो कभी 'फणि' तो कभी 'आम्फान' के रूप में। 'आम्फान' ने तो कोरोना काल में भीषण तबाही मचाई थी बंगाल में, सुन्दरबन के कई क्षेत्र पूर्ण रूप से निश्चिह्न हो गए थे। विश्विद्यालय में पढ़ते समय देखा था कि भारी वर्षण और DVC (दामोदर वैली करपोरशन) द्वारा अत्यधिक जल निष्कासन के कारण नदिया, मेदिनीपुर क्षत्रों में उत्पन्न भयानक बाढ़ परिसिथिति में फँसे ग्रामीण हमारे विश्विद्यालय (कल्याणी यूनिवर्सिटी, नदिया ज़िला ) में ही शरणार्थी बन आ गए थे, और साथ में अपना पशु धन - गाय,बकरी, मुर्गी,हंस- भी लाये थे। हम उन्हें 'बानभासी' कहते। इस कहानी को पढ़ते हुए वे सब सुषुप्त, धूलधूसरित चित्र, मानस पटल पर पुनः सजीव हो उठे।
इस कहानी में लेखिका ने एक बहुत ही महत्पूर्ण बात सामने रखी है - यह सत्य है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाना हमारे लिए शायद सम्भव नहीं, पर हमें इन प्राकृतिक विपर्ययों ने सीख अवश्य लेनी चाहिए, कुछ ठोस कदम अवश्य उठाने चाहिए और साथ ही बिगड़ते प्राकृतिक सन्तुलन का उपचार भी ज़रूरी है।
इस कहानी की 'देवी माँ', "अपने गाँव के छोटे से स्कूल की मरम्मत के लिए, छोटे मेड़ों को रिंग-बाँध का रूप देने के लिए, बरसात का ख़याल कर दो-चार और नावें ठुकवा देने के लिए हर वक्त अपने गाँव के लड़कों से कहती रहती। उनका कहना था कि स्वार्थी ही बनो तो ऐसा काम करो जिससे संकट के समय सुभीता हो। यह तो जाना हुआ संकट है ....दूसरों के भरोसे कब तक रहना ठीक है ? ....पर अब इनकी बात कौन सुनता है ? अलबत्ता अपनी बीवी- बच्चों को इन्हीं के भरोसे छोड़कर परदेस कमाने चले जाते हैं।"
कहानी के माध्यम से लेखिका ने कुसंस्कारों पर कुठाराघात करते हुए, कर्मठ और उद्यमी बनने की शिक्षा दी है । केवल " जय कोशिका माई ! बाल बच्चों की रच्छाया करना। मैया सब तोहरे भरोसे है "- कहने से या गिड़गिड़ाने से कुछ नहीं होगा। हमें स्वयं लड़ना होगा और प्रस्तुत रहना होगा इन विपदाओं के लिए। अंधविश्वासों और कुसंस्कारों को त्याग कर अपने भीतर की शक्ति को जागृत करना ही काम्य है। यह सीख बहुत ही आवश्यक है।
क्या अतिरिक्त वनोन्मूलन, निर्वनीकरण और होटलों और गेस्ट हॉउसों का निर्बाध अवैध निर्माण उत्तरदायी नहीं है उत्तराखण्ड की इस भयावह परिस्थिति के लिए ? पिछले कुछ वर्षों से हम सभी देख रहे हैं कि प्रायः हर साल ही ,इस पर्वतीय राज्य को बाढ़, भीषण जलप्लावन और भूस्खलन की विभीषिका को सहन करना पड़ रहा है। जोशी मठ के प्राकृतिक विपर्यय का मूल कारण क्या धार्मिक मतान्धता और लोलुपता नहीं है ?
इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने ग्रामीण समाज का भी बहुत ही सुन्दर पर यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। ग्रामीण मिथिला तो लेखिका के अंतस में बसी है। मंगल- बहू के माध्यम से लेखिका ने ग्रामीण महिला का दैनन्दिन जीवन, उसके सुख-दुःख, उसके संघर्षों को बखूबी दर्शाया है। वह षोडशी कन्या इस गाँव में बहू बन कर आई और फिर......मात्र संघर्ष....आजीवन संघर्ष । लगभग प्रत्येक वर्ष ही कोशी-कमला विकराल रूप धारण करती और इस जलप्लावन में अनाज, बीज, खेत-खलियान और पशु धन सब नष्ट हो जाते । ग्रामीण पुरुष, विवश होकर उपार्जन हेतु नगराभिमुख होते, चौमासा बिताते परन्तु गाँव की स्त्रियाँ पर बच्चों और वृद्धों का पूर्ण दायित्व आ जाता । इस जलप्लावन में ग्रामीण स्त्रियों को कठोर संघर्ष करना पड़ता। लेखिका तो वर्षों से ही इन ग्रामीण स्त्रियों की कथा लिखती आ रही हैं ।
'देवी माँ' तो कौस्तुभ स्तम्भ दीपित हैं। लौह मानुषी हैं, देवी माँ का चरित्र हम सबके लिए प्रेरणादायी है। मलेरिया के प्रकोप से लगभग पूरा गाँव ही सूना हो गया था। मंगल, उसके तीन पुत्र और दो पुत्रियां भी काल कवलित हुई, केवल मंगल- बहू अपनी शेष दो संतानों रूपा और अनधन सहित बच गई । पाँचसौ लोगों के हरे भरे गाँव में केवल बीस पच्चीस जीवन ही अवशिष्ट थे। ऐसी विकराल महामारी की परिस्थिति में "दस-बीस लोगों के टोले पर एक दिन रौशनी दिखाई पड़ी थी ।" श्वेत वस्त्रावृत, कोई देवदूत सम व्यक्ति ने गाँव में प्रवेश किया और उन्हीं के प्रयासों से शनैः शनैः गाँव पुनः हरा भरा हो गया।
"खैरात का अनाज खाने के लिए, दवाइयां रोगमुक्त होने के लिए, शुद्ध जल पीने के लिए चापाकल उन्होंने ही मुहैया कराई। सामान्य शिक्षण के लिए स्कूल खोलने का संकल्प उन्होंने लिया।"
इन्ही 'देवदूत' की पत्नी थी 'देवी माँ', जो अपने पति की मृत्यु के बाद भी गाँव से नहीं गई...बस गई गाँव में ही, अपने पति के अपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने के लिए। लेखिका ने 'देवी माँ' का कोई नाम उल्लिखित नहीं किया है, मानो उन ग्रामवासियों के लिए उनका यह परोपकारी दैवी रूप ही उनका प्रकृत परिचय हो। 'देवी माँ' की संताने भी शहर में बस चुकी थीं परन्तु उन्हें तो अपने पति के दिखाए हुए मार्ग पर ही चलना था।सत्तासी की दुर्दांत बाढ़ में, देवी माँ ही गाँव की औरतों-बच्चों को नाव से तटबंध पहुँचा आई थी।इसी वीरांगना की कथा लिखी है लेखिका ने।
अपने पति और पांच संतानों की अकाल मृत्यु के बाद जब मंगल-बहू उद्भ्रान्त, दिशाहारा सी हो गई थी,तब देवी माँ ने ही उसे परिस्थितयों से लड़ना सिखाया, आगे बढ़ने का कारण और मार्ग दर्शाया ।
" तुम्हारे पाँच बच्चे और पति नहीं रहे , उसका तुम सोग मनाती हो, रूपा और अनधन सामने खड़े हैं, उन्हें पालने पोसने की जिम्मेदारी नहीं समझती ? जो चला गया उसकी चिंता में जो सामने हैं उसे भी खो दोगी मंगल-बहू। ......बच्चों को पालने के लिए खेतों में काम करो। उसमें हुनर नहीं परिश्रम की आवश्यकता है। "
भयावह बाढ़ परिस्थिति में भी 'देवी माँ' और मंगल-बहू ऊँचे छप्पर की मुंडेर पर बैठी रात्रि व्यतीत करती हैं, वे स्वयं नाव से तटबंध की ओर नहीं गईं जब तक सभी ग्रामवासी तटबंध तक नहीं पहुँच जाते। असीम विस्तृत जलराशि में दो अधेड़ औरतें रात भर छप्पर पर उकड़ू बैठी रहती हैं, चीटियों, चूहों और मेढकों के बीच। आखिरी नाव छूटते-छूटते रात हो चुकी थी; घने अंधकार में नाविकों का वापस आना विपज्जनजक हो सकता है,अतः देवी माँ ने अकेले ही मंगल- बहू के साथ छप्पर पर रात्रि व्यतीत करने की ठान ली।
'देवी माँ' और स्थानीय विधायक के मध्य हए कथोपकथन द्वारा लेखिका ने करारा व्यंग्य किया है ठप्प पड़ती सरकारी व्यवस्थाओं पर, आलसी और नाम-प्रसिद्धि के भूखे नेताओं पर और संवाद माध्यम पर भी जो केवल सनसनीखेज़ ख़बरों की ओर ही अधिक ध्यान देते हैं। देवी माँ स्थानीय विधायक से कहती है " देखो तुम्हारी बाढ़ की आदत थी, बदल गई। तुम चौमासा राजधानी के पक्के मकान में गुज़ारते हो।मैं इनके साथ हूँ। तुम्हे मेरे लिए सचमुच ज़रा भी दर्द है तो बरसात के पहले नांव का इंतज़ाम क्यों नहीं कर देते ......अपनी इस पीड़ित जनता का ख़याल करो , जिसकी सेवा का संकल्प लेकर तुम कुर्सी पर बैठे हो। "
कटु यथार्थ ही लिखा है लेखिका ने " अपने लोगों की अपनी चुनी हुई सरकार। अपना नुमाइंदा, एक नांव तक नहीं, कोई खोज खबर भी नहीं ...... हेलीकॉप्टर से सादे हुए पाँव -रोटी पानी में छपाक से गिरा देने भर से ही उनके कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है। बाकी का काम अखबार कर देते है।"
कहानी का अन्त आशा की किरण जगाता है, तमिस्रा रजनी है तो प्रभात भी दूर नही। उस काली अँधेरी रात के बाद जब भोर की पहली किरण फूटी तब मंगल-बहू और देवी माँ ने एक नांव को अपनी ओर आते देखा। तटबंध पर पहुँचते ही इन दोनों देवियों का ग्राम वासियों ने स्वागत किया। खाट पर लेती आराम करती देवी माँ अब निश्चिन्त थी " अब तुम सब जगे रहो , मेरे आराम का समय है। " देवी माँ के तटबंध पहुँचते ही मानो उत्सव का वातावरण छा गया। यह उत्सव है मानवता की जीत का, मानव जिजीविषा की विजय का, यह उत्सव है जीवन का , आगे बढ़ते रहना का - 'चरैवेति चरैवेति।
ऐसी घटनाओं को श्याद समाचारपत्रों में स्थान न मिले, बूढी मंगल-बहू, उसके पुत्र अनधन और लौह मानुषी 'देवी माँ' का यशोगान शायद स्थानीय विधायक कभी न करे, और न ही सरकारी विवरणों में कहीं इन नामों का उल्लेख भी रहेगा परन्तु आज की पीढ़ी कोसी तटबंध की एकमात्र लेखिका, पद्मश्री उषाकिरण खान की असाधारण लेखनी के माध्यम से इन अमर चरित्रों से शिक्षा लेती रहेगी।
सच में, हम शहरवासी ग्रामीण जीवन की समस्याओं से पूर्ण रूप से अपरिचित ही है। जो कृषक हमारे लिए अन्न उत्पादन करते हैं, हमें उनके संघर्षमय जीवन, रहन-सहन, सुख-दुःख से कोई मतलब ही नहीं है।
जैसा कि लेखिका ने 'देवी माँ ' के माध्यम से कहा है - "खेतों से निकले अनाज जैसे पॉलिथीन पैकेटों में पॉलिश होकर बड़े शहरों के जनरल स्टोरों में शोभायमान होते हैं , उसी तरह इस मिटटी से जनमे बढ़े -चुने नए नेता राजधानियों की मखमली कुर्सियों पर विराजमान हो जाते हैं। पलटकर देखे क्यों, कीच-कांदो लग जाने का भय है। "
भारतीय जनगणना (२०२१) के अनुसार हमारे देश की लगभग ६८ % जनसंख्या गाँव और देहातों (रूरल एरिया) में बसती है। मेरे राज्य, पश्चिम बंगाल, की भी यही स्थिति है - लगभग ६८ % आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में ही रहती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सच्चा भारत गाँव- देहात में ही बसता है, और इसी ग्रामीण समाज और उसकी जीवनशैली की छवि ही असली भारत की प्रतिच्छवि है। पर आश्चर्य की बात है कि इन ग्रामीणों और आदिवासियों की कथा बहुत कम ही कही और लिखी जाती है और इन ग्राम, देहातों और वनांचलों में रहने वाली स्त्रियों की स्तिथि से तो और ही अनजान है सभी। बिहार की ऐसी असंख्य ग्रामीण बालाओं, आदिवासी कन्याओं और ग्रामीण दलित स्त्रियों को अपनी सशक्त लेखनी द्वारा वाणी प्रदान करती आई हैं, पद्मश्री उषाकिरण खान जी । कोसी- कमला का जलप्लावन, बाढ़ पीड़ित ग्रामवासी, तटबंध निर्माण और उसकी समस्याएं - इन सब पर वर्षों से लिख रही हैं लेखिका । अपनी प्रारम्भिक कहानियों में जिस प्रकार उन्होंने ग्रामीण, दलित और आदिवासी महिलाओं की संघर्ष गाथा को दर्शाया था आज भी वही क्रमिकता,वही अविरल धारा प्रवाहित है।
सच में यह कहानी अन्तस पर अमिट छाप छोड़ती है।
- अभिषेक मुखर्जी
५० . बी. एल . घोष रोड , बेलघड़िया, कोलकाता -७०००५७
पश्चिम बंगाल ,8902226567
abhi.india79@gmail.com
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