खोने को पाने आए हो कविता की व्याख्या माखनलाल चतुर्वेदी कवि ने जीवन दर्शन को चित्रित किया है कि मनुष्य की प्रकृति ऐसी है कि वह उसीको पाना चाहता है जो
खोने को पाने आए हो कविता की व्याख्या माखनलाल चतुर्वेदी
खोने को पाने आये हो?
रूठा यौवन पथिक, दूर तक
उसे मनाने आये हो?
खोने को पाने आये हो?
आशा ने जब अँगड़ाई ली,
विश्वास निगोड़ा जाग उठा,
मानो पा, प्रात, पपीहे का-
जोड़ा प्रिय बन्धन त्याग उठा,
मानो यमुना के दोनों तट
ले-लेकर यमुना की बाहें-
मिलने में असफल कल-कलमें-
रोयें ले मधुर मलय आहें,
क्या मिलन-मुग्ध को बिछुड़न की,
वाणी समझाने आये हो?
खोने को पाने आये हो?
बेबस कराह झंकार उठी,
मानो कल्याणी वाणी, उठ-
गिर पड़ने को लाचार उठी,
तारों में तारे डाल-डाल
मनमानी जब मिजराब हुई,
बन्धन की सूली के झूलों-
की जब थिरकन बेताब हुई,
तुम उसको, गोदी में लेकर,
जी भर बहलाने आये हो?
खोने को पाने आये हो?
जब मरे हुए अरमानों की
तुमने यों चिता सजाई है,
उस पर सनेह को सींचा है,
आहों की आग लगाई है,
फिर भस्म हुई आकांक्षाओं-
की माला क्यों पहिनाते हो?
तुम इस बीते बिहाग में
सोरठ की मस्ती क्यों लाते हो?
क्या जीवन को ठुकरा-
मिट्टी का मूल्य बढ़ाने आये हो?
खोने को पाने आये हो?
वह चरण-चरण, सन्तरण राग
मन भावन के मनहरण गीत-
बन; भावी के आँचल से जिस दिन
झाँक-झाँक उट्ठा अतीत,
तब युग के कपड़े बदल-बदल
कहता था माधव का निदेश,
इस ओर चलो, इस ओर बढ़ो!
यह है मोहन का प्रलय देश,
सूली के पथ, साजन के रथ-
की राह दिखाने आये हो?
खोने को पाने आये हो?
व्याख्या - प्रस्तुत कविता माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित है। इस कविता में उन्होंने जीवन दर्शन व्यक्त करते हुए कहा है कि जीवन में कुछ चीजें जो एक बार चली जाती हैं वो वापिस नहीं आती चाहे तुम उन्हें कितना भी मनाओ या बहलाओ जैसे समय, यौवन, प्रात उदय होने के बाद पपीहे के जोड़े का साथ रहना, नदी के दोनों किनारों का मिलना ,बीते हुए कल और आज के बीच कवि आशा निराशा ,मिलन और बिछड़न तथा दुख और सुख की अभिव्यक्ति कर रहा है।इसीलिए कवि स्वयं से प्रश्न करते हुए कह रहा है कि जो खो गया है क्या तुम उसे पाने आए हो। यौवन जो तुमसे रूठ कर पथिक की तरह बहुत दूर चला गया है क्या उसे मनाने आए हो?
कभी कहता है कि उस अवस्था के स्मरण मात्र से आशाएं अंगड़ाई लेने लगी हैं ऐसे जैसे रात भर साथ रहने वाला पपीहे का जोड़ा बंधन तोड़ कर अब अलग हो रहा है या फिर मानों यमुना के दोनों तट लहरें रूपी बांहे फैलाकर एक दूसरे से मिलने को आतुर है पर मिलने में असफल होने पर वह मधुर ठंडी आहें भर रहे हैं। क्या तुम उन मिलन की मीठी यादों में डूब कर मिलन के लिए तड़पते उन किनारों को विरह की वाणी समझाने आए हो? जो खो चुका है क्या तुम उसको पाने आए हो?
अपने युवावस्था के दिन याद करते हुए कवि कहते हैं कि यह वह दिन थे जब किसी की मीठी यादों में डूब कर ह्रदय के तार ऐसे झंकृत हो जाते थे जैसे वीणा के तार। अब जब उन दिनों को याद करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वीणा के उन तारों को कसने के लिए खूंटी खींची तो उन तारों से मानो झंकार के स्थान पर कराह का स्वर निकला।तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे कल्याणी वाणी अपने पतन के लिए लाचार होकर उठी और गिर पड़ी। जब उस ह्रदय रूपी वीणा ने अपनी धड़कन के तारों को लाचार वीणा के अनुरूप ढाल लिया तो तुम अब अपने ह्रदय तंत्र को उससे झंकृत करने आए हो ? अब तुम अपना जी बहलाने के लिए उसे अपनी गोद में रख कर उसे बजाने आए हो ? क्या तुम खोए हुए को पाने आए हो?
कभी अपने यौवन को उलाहना देते हुए कहते हैं कि एक समय था जब मैंने तुम्हें बहुत चाहा था। मेरे भी बहुत अरमान थे। तब तुमने मेरे अरमानों को जलाकर राख कर दिया। मैने अब मेरे मरे हुए अरमानों की चिता जलाई है और उस चिता को सींचकर आहोें की आग लगाई है तो तुम क्यों उन भस्म हुई आकांक्षाओं का मोह नहीं छोड़ पा रहे हो? आकांक्षाओं की राख क्यों टटोल रहे हो? उस भस्म हुई आकांक्षाओं की माला क्यों पहनते हो? और ऐसी शोक की घड़ी में तुम मिलन की बातें क्यों कर रहे हो ,मस्ती का सोरठ बीते विहाग में भला किस को अच्छा लगेगा ? अब कम से कम इस शोक के समय में सोरठ तो मत गाओ। जब तक मेरे अरमान जीवित थे तुमने उनकी उपेक्षा ही की है अब चिता की राख को सम्मान देकर उनका मूल्य क्यों बढ़ाने आए हो? अब ऐसा क्यों कर रहे हो ?क्या तुम खो जाने वाली वस्तु को पाने के लिए विकल हो ?
कवि बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि ये वह दिन थे जब हर कदम पर मधुर संगीत की ध्वनियां प्रतिध्वनित होती थीं। यौवन की मीठी तान पर मधुर संगीत बजता रहता था. मनभावन के मनहरण गीत कानों में गूंजते रहते थे। भविष्य के आंचल से जब अतीत झांक रहा है तब युग के कपड़े बदलकर मानो श्री कृष्ण जी अवतरित हो निर्देश दे रहे हैं कि इस और चलो, इस और आगे बढ़ चलो ।यह मोहन का देश है जहां प्रलय हो गई है, और माधव तो युगो युगो से यही संदेश देते आ रहे हैं कि परिवर्तन ही जीवन का नियम है। सदैव कुछ नहीं रहता न सुख-दुख तब हे प्रिय क्या तुम मुझे कृष्ण के समान साजन के रथ का सारथी बनकर मुझे कांटों के मार्ग पर चलने की राह दिखाने आए हो क्या तुम खोए हुए को पाने आए हो?
विशेष - इस प्रकार इस कविता में कवि ने जीवन दर्शन को चित्रित किया है कि मनुष्य की प्रकृति ऐसी है कि वह उसीको पाना चाहता है जो आज उसके पास नहीं है। इसी प्रयास में वह कभी हताश निराश हो जाता है और कवि कहते हैं कि परिवर्तन जीवन का नियम है हर युग का अपना महत्व है हर उम्र की अपनी महत्ता है इसलिए मनुष्य को हर युग का लाभ उठाना चाहिए।
- डॉ ममता मेहता
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