भारत महिमा कविता जयशंकर प्रसाद भारत महिमा कविता का भावार्थ व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर हिमालय के आँगन में कविता का सारांश भारतीय संस्कृति महान इतिहा
भारत महिमा कविता जयशंकर प्रसाद
भारतीय संस्कृति महान और प्राचीन है। उसका अतीत गौरवपूर्ण रहा है। कवि भारतीयों को भारत के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित कराना चाहते हैं। वे भारत की महत्ता की पुनः प्रतिष्ठा के लिए भारतीयों को अपना सर्वस्व अर्पण करने की प्रेरणा देते हैं।
भारत महिमा कविता का भावार्थ व्याख्या
हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार।
उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम संगीत ।
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत।
सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास।
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थियुग का मेरे इतिहास ।
सन्दर्भ – यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'काव्य-रश्मि' के 'हमारा प्यारा भारतवर्ष' शीर्षक कविता से अवतरित है। इसके रचयिता छायावाद के प्रवर्तक श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि अपने भारत की गौरवमय गाथा का परिचय कराना चाहता है। उपरोक्त पंक्तियों में भारत की महत्ता, सांस्कृतिक एकता की पुनः प्रतिष्ठा के लिए प्रत्येक भारतवासी को सदा तत्पर रहने और अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्रदान की है।
व्याख्या – हिमालय पर्वत के आँगन में बसे भारत को ही सूर्य की प्रथम किरणों ने मानो ज्ञान का उपहार प्रदान कर धन्य कर दिया। प्रातःकालीन किरणों ने (उषा) अपनी रंगीन किरणों से हँसकर हीरों का हार पहनाकर उसका स्वागत किया। इन ज्ञान की किरणों से जाग कर हम सभी भारत वासी स्वयं ज्ञान के प्रकाश में जागे और विश्व के अन्य देशों को भी ज्ञान प्रदान कर जगाने लगे, ज्ञान का प्रकाश फैलाने लगे। जिस प्रकार, सूर्य उदय से आकाश में तथा धरती पर छाया अन्धकार नष्ट हो जाता है। ठीक उसी प्रकार, भारत द्वारा फैलाये गये ज्ञान-प्रकाश से अज्ञानता रूपी अन्धकार समाप्त हो गया। सम्पूर्ण पृथ्वी खुशी से झूम उठी। जिस प्रकार, विद्या की देवी सरस्वती अपने हाथों में वीणा लेकर हाथ में कमल धारण कर विद्या की ज्योति फैलाती है। ठीक उसी प्रकार हम भारतवासियों की वाणी में सरस्वती ज्ञान की वीणा बजने लगी। सात समुद्र पार सात स्वरों में सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि गूँजने लगे। सामवेद में संगीत की धुन बजने लगी। सृष्टि का बीज बचाकर (मनु) नाव पर शीतलहर झेलते हुए लाल ध्वज हाथ में लेकर देव रक्षक पथ पर निर्भय होकर आगे बढ़ने लगे। हे देशवासियों ! क्या तुमने दधीचि ऋषि का त्याग नहीं सुना ? जिन्होंने इन्द्र देव के कहने से अपनी हड्डियाँ इन्द्र को अर्पित कर दीं और फिर इन्द्र द्वारा इन हड्डियों का वज्र बना कर वृत्रासुर जैसे राक्षस का संहार किया। इस प्रकार वह युग हमारा अस्थियुग कहलाया ।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
(1) अनुप्रास, रूपक और मानवीकरण अलंकारों का साभिप्राय प्रयोग है।
(2) भारत में ही सर्वप्रथम ज्ञान का उदय हुआ और इसीलिए यह जगद्गुरु कहलाया।
(3) भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली, रस शान्त और शैली प्रसाद गुण युक्त है।
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह।
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह।
धर्म को ले-लेकर जो नाम, हुआ करती बलि, कर दी बंद।
हमीं ने दिया शांति संदेश, सुखी होते देकर
आनंद विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट् दया दिखलाते घर-घर घूम।
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यही।
हमारी जन्म भूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।
प्रसंग - इन पंक्तियों में भारतीयों के उत्साह, शान्ति-प्रेम, धर्म-प्रचार, दया, दान आदि का वर्णन किया गया है।
व्याख्या - प्रसाद जी कहते हैं कि हम भारतवासियों में एक ऐसा उत्साह था जो समुद्र की तरह विशाल विस्तृत था और वह उत्साह विशाल समुद्र में अपनी राह देख रहा था धर्म के नाम पर बलि (निरीह प्राणी की हत्या) बन्द करा दी और इस तरह हम देश-विदेश में दया-धर्म का सन्देश देकर स्वयं प्रसन्न हुए और औरों को भी हमने प्रसन्न किया। इस संसार में विजय सिर्फ शक्ति के बल पर हीं नहीं धर्म के मार्ग पर चलकर आत्म बल से भी मिलती है। इस धरा पर हमने धर्म की धूम मचा दी और यहाँ के बड़े से बड़े सम्राट् को भी हमने भिखारी होते हुए देखा जो घर-घर भिक्षा माँग रहा था। हम इतने दयावान हैं। मुस्लिम शासक सिकन्दर को भी क्षमा कर दिया। चीन देश को बौद्ध धर्म की शिक्षा प्रदान की। हमने किसी से किसी का कुछ नहीं छीना जिसको दिया अपना दिया। सदा-सदा से जब से सृष्टि का निर्माण हुआ तब से लेकर अब तक यह जन्मभूमि हमारी है और हम भारतवासी कहीं अन्य जगह से नहीं आये हैं।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
(1) भारत के महान् पुरुषों द्वारा विदेशों में धर्म प्रचार और अहिंसा के प्रसार का वर्णन है।
(2) आर्य भारत के मूल निवासी हैं। वे कहीं से यहाँ आकर नहीं बसे हैं।
(4) भाषा शुद्ध साहित्यिक हिन्दी, रस शान्त, गुण प्रसाद और शैली उल्लेखनीय है
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित के पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव
वही है रक्त, वही हैं देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान
जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।
सन्दर्भ-पूर्ववत् ।
प्रसंग - कवि कहते हैं कि हमने भारतवर्ष में रहकर कई जातियों को उठते-गिरते हुए देखा है। हम शान्तिदूत हैं, सत्य पालक हैं और दूसरों के लिए जीने वाले हैं।
व्याख्या - जयशंकर प्रसाद जी इन पंक्तियों में कहते हैं कि हमने यहाँ पर विभिन्न जातियों का उत्थान-पतन तेज आँधी तूफान की भाँति देखा है। हम भारतीयों ने खड़े-खड़े विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों को हँसते हुए झेला है। हम ऐसे वीर हैं कि हमने आह तक नहीं की। हम चरित्र से पवित्र, शक्तिशाली भुजाओं वाले, नम्र एवं शीलता से सम्पन्न हैं। हम स्वाभिमानी, दुःखी को देखकर दुःखी होने वाले व उसकी सहायता करने वाले हैं। हमारे वचनों में सत्यता और हृदय में तेज है। हम भारतवासियों के शरीर में वही खून, वही साहस, वही ज्ञान, वही शान्ति और शक्ति अभी भी भरी हुई है और हम उन्हीं श्रेष्ठ आर्यों की सन्तान हैं। हम सदा दूसरों के लिए जिये हैं। (जियो और जीने दो)। यही हमारा सिद्धान्त है। हम अपने देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दें। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। यही हमारा संदेश है।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
(1) हम आर्य सन्तान हैं। हमें अपने प्यारे देश से प्रेम है।
(2) भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली, रस शान्त, गुण माधुर्य और शैली वर्णनात्मक
भारत महिमा कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. कवि ने भारत को हिमालय का आँगन क्यों कहा है ?
उत्तर—कवि ने भारत को हिमालय का आँगन इसलिए कहा है क्योंकि सूर्य की प्रथम किरणों का उदय यहीं होता है इन प्रातः कालीन किरणों ने ज्ञान का उपहार प्रदान करके मानो भारत को धन्य कर दिया हो।
प्रश्न 2. 'भारत महिमा' के आधार पर भारतवर्ष की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर - प्रसाद जी ने अपनी उक्त कविता में भारत की प्राचीन गौरव गाथा का सुन्दर वर्णन किया है। कवि का कथन है कि हम भारतवासी सदा से शान्तिप्रिय, उदार, दानी, और क्षमावान रहे हैं। हमने दूसरे देशों को ज्ञान की शिक्षा दी और इन्हीं कारणों से भारत 'जगद् गुरु' कहलाया। भारतीय संस्कृति समभाव और आतिथ्य सत्कार की संस्कृति है। सभ्यता रूपी सूर्य की प्रथम किरणों का उदय यहीं पर हुआ था।
कवि भारतवासियों को भारत के गौरवपूर्ण इतिहास से परिचित कराना चाहते हैं तथा भारत की महत्ता को पुनः स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने की प्रेरणा देते हैं। भारत वह प्राचीन देश है जिसको कि ऋषि-मुनियों ने ज्ञान देकर उच्च बनाया और वही ज्ञान विश्व में दिया जिससे उनका अज्ञानरूपी अंधेरा नष्ट हुआ। प्रात:काल संगीत की देवी सरस्वती अपने कर में वीणा लेकर संगीत की मधुर ध्वनि छेड़ देती है। यहाँ के महापुरुष राम ने पिता की आज्ञा पालने के लिए वनवास स्वीकार किया। यहाँ के लोग समुद्र के मार्ग से अपने हाथ में धर्म की पताका लेकर विदेशों में गये और सत्य, अहिंसा और धर्म का उपदेश दिया। इस देश में अस्थि युग का प्रारम्भ तब हुआ जब इन्द्र ने वृत्रासुर को मारने के लिए दधीचि मुनि की हड्डियों से वज्र बनाया था।
धर्म के मार्ग पर चलते हुए श्रीराम ने समुद्र पर जो पुल बनाया था वह अब भी टूटी-फूटी अवस्था में दिखाई देता है। हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में जो कमियाँ थीं वे बन्द करवा दीं जैसे- नर बलि, पशु बलि । हमने दुनिया में शान्ति का सन्देश दिया और दुनिया को बताया संसार में विजय तलवार से नहीं होती है बल्कि प्रेम से होती है। भारत के प्राचीन समय में अशोक जैसे सम्राट ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया और शान्ति का उपासक बना। भारतवर्ष आर्यों की पवित्र भूमि है। भारतवासियों ने अतिथि को देवता माना है। यहाँ के लोग किसी को दुःखी नहीं देख सकते। उन्होंने जो प्रतिज्ञाएँ कीं उनको पूरा किया। हम उन्हीं दिव्य आर्यों की सन्तान हैं जिन्होंने अपने देश की रक्षा की और उसके गौरव को बनाए रखा।
प्रश्न 3. प्रस्तुत कविता में कवि ने किन-किन ऐतिहासिक एवं पौराणिक महापुरुषों की ओर संकेत किया है ?
उत्तर-प्रसाद जी ने हमारा प्यारा भारतवर्ष कविता में गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, श्रीराम, मनु, महर्षि दधीचि, सम्राट अशोक आदि ऐतिहासिक एवं पौराणिक महापुरुषों की ओर संकेत किया है ।
प्रश्न 4. निम्नलिखित वाक्यांशों द्वारा कवि ने किन-किन महापुरुषों की ओर संकेत किया है ?
(क) भिक्षु होकर रहते सम्राट ।
(ख) यवन को दिया दया का दान ।
(ग) हुआ करती बलि कर दी बंद ।
(घ) नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
(ङ) एक निर्वासित का उत्साह ।
उत्तर—(क) प्रस्तुत वाक्यांश में गौतम बुद्ध द्वारा अहिंसा का उपदेश प्राप्त करके सम्राट अशोक के भिक्षु बन जाने और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लग जाने की ओर संकेत हैं।
(ख) इस वाक्यांश में यवन आक्रमणकारी के भारतीय सम्राट से परास्त होने और सम्राट द्वारा दया करके उसे प्राणदान दिये जाने की ओर संकेत किया गया है।
(ग) धर्म के नाम पर दी जाने वाली बलि को महावीर स्वामी के अहिंसा परमोधर्मः कहकर बन्द कराये जाने की ओर संकेत है।
(घ) प्रलय काल में बीज के रूप में श्री मनु महाराज को एक नाव पर सृष्टि हेतु प्रकृति द्वारा बचाने की ओर संकेत है।
(ङ) अयोध्या से निर्वासित होकर चौदह वर्षों तक वन में रहने वाले धैर्य, पराक्रम एवं साहस के प्रतीक 'श्रीराम' की ओर कवि ने संकेत किया है।
प्रश्न 5. 'भारत-महिमा' कविता में कवि हमें क्या संदेश दे रहा है ?
उत्तर—कवि प्रस्तुत कविता में हमें अपने देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा देता है। हमें सदा अपनी, संस्कृति, धर्म, सभ्यता, की रक्षा करनी चाहिये। तब ही हम सच्चे भारतीय कहला सकते हैं। हमें दुष्टों पर क्रोध और दीन-हीन जनों पर दया करनी चाहिए और शत्रु का अन्त करते हुए अपने प्राणों की चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मातृभूमि की रक्षा करना हमारा परम कर्त्तव्य है।
प्रश्न 6. 'भारत महिमा' कविता में कवि ने भारत की जिस प्राचीन गरिमा का वर्णन किया है उसे अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए।
उत्तर - प्रस्तुत कविता में कवि ने भारत की संस्कृति, सभ्यता, गौरव-गरिमा एवं साहित्य का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने प्राचीन भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का सजीव वर्णन किया है।
हमारा भारत पूर्व दिशा में स्थित है। जहाँ ऊषा ने सबसे पहले अपनी स्वर्णिम किरणों से प्रकाश फैलाया। हम ही वे भारतीय हैं जिन्होंने ज्ञान प्राप्त किया तथा ज्ञान की ज्योति विश्व में फैलाई। कवि भारत में पैदा हुए महापुरुषों, ऋषियों, मुनियों का उल्लेख करता हुआ कहता है कि दधीचि जैसे भी मुनि हुए, जिन्होंने इन्द्र देव के कहने पर अपनी हड्डियों का दान कर दिया। श्रीराम जैसे आज्ञाकारी पुत्र, भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी जैसे महापुरुषों ने तो एक नया इतिहास ही रच डाला। इन लोगों ने विश्व को एक नया शान्ति का सन्देश दिया।
भारत में अनेक धर्म, सम्प्रदाय तथा जाति के लोग रहते थे और रह रहे हैं। यहाँ कई विदेशी आक्रमण हुए। कई आक्रमणकारी यहीं बस भी गए। कुछ लूटपाट कर चले गए। उन्होंने हमारे अस्तित्व को मिटाना चाहा, किन्तु वे सफल न हो सके। हम भारतवासी वीर. नम्र तथा उत्साही हैं। हमारा गौरव अखण्ड है और अतीत गौरवशाली है।
कवि अपने विचार प्रकट करते हुए कहता है कि हमने अपने पूर्वजों से दया, दान, क्षमा, परोपकार, प्रेम, सत्य आदि गुणों को प्राप्त किया। त्रेता युग के राम और द्वापर युग के कृष्ण के उपदेश आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। इस तरह राम और कृष्ण हमारे आदर्श पुरुष हैं।
हमें इस बात का गर्व है कि हम सच्चे भारतीय हैं। हमको अपना देश प्राणों से भी प्यारा है और हम तन-मन-धन से अपने देश पर समर्पित हैं। मातृभूमि के प्रति आभार प्रकट करते हुए कवि कहते हैं।
जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
भारत महिमा कविता का सारांश
हमारा प्यारा भारतवर्ष शीर्षक कविता प्रसाद जी द्वारा रचित नाटक 'स्कन्दगुप्त' से ली गयी है। इसमें कवि ने भारत के महान पूर्वजों के गरिमामय चरित्र का सुन्दर वर्णन किया है। इसमें हमें और आने वाली पीढ़ियों को अपने देश पर बलिदान होने का सन्देश दिया है।
कवि कहते हैं कि सबसे पहले ऊषा ने हिमालय के आँगन में अपनी स्वर्णिम किरणों का उपहार प्रदान किया और हीरों का हार पहनाया। विश्व में भारतवासी ही हैं जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और फिर हमने ही उस ज्ञान को सारे विश्व में फैलाया और हम 'जगद्गुरु' कहलाये । हमने ज्ञान का प्रकाश फैलाकर विश्व में छाया अज्ञानता का अन्धकार दूर किया। यहीं पर विद्या की देवी सरस्वती की वीणा के तारों से सप्त स्वर (स, रे, ग, म, प, ध, नि, सा) फूटे। वेदों का निर्माण हमारे ही देश में हुआ। मनु और श्रद्धा के मिलन से मानव की उत्पत्ति हुई और सृष्टि का निर्माण हुआ। अर्थात्, आदि पुरुष 'मनु' भी भारतीय ही था।
भारत में दधीचि जैसे महर्षि भी हुए जिन्होंने अपनी हड्डियों का दान कर वृत्रासुर नामक राक्षस का वध कराया। हम भारतवासी कर्मकाण्डी थे। हवन, यज्ञ करते थे, पशुओं की बलि दी जाती थी परन्तु शान्ति का उपदेश देने आए महावीर स्वामी और बुद्ध जैसे सन्त यहाँ उत्पन्न हुए, उन्होंने इस बलि प्रथा का अन्त किया और विश्व को शान्ति का उपदेश दिया। हमारे यहाँ ऐसे भी महापुरुष हुए जिन्होंने अपना राजपाट त्याग कर अपना सर्वस्व त्याग कर संन्यास लिया।
यूनानी राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। राजा पुरू ने उनको हराया, कैदी बनाया और अन्त में उन्हें क्षमा प्रदान कर दी। कहने का अर्थ यह है कि हम दूसरों का कुछ नहीं छीनते । दूसरे को देते हैं, लेते नहीं।
हम आर्यवंशी यहीं के मूल निवासी हैं हम कहीं से नहीं आए तथा बाद में भारतवासी कहलाए। इस बात का हमें गर्व है। हम वीर, साहसी और नम्र स्वभाव के रहे हैं। हमारा प्राचीन इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। कवि मातृभूमि के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए कहते हैं-
जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतबर्ष ॥
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