महिलाएं समाज में किसी भी प्रकार के परिवर्तन में सक्रिय भूमिका निभाती हैं. उन्हें कमज़ोर समझने की आवश्यकता नहीं है. इसके बजाय, उनकी आवाज़ को सुनने और वि
महिलाएं पीड़ित नहीं, परिवर्तन की अग्रदूत बन रही हैं
महिलाओं ने अक्सर लचीलेपन और परिवर्तन के कार्यों का नेतृत्व किया है. उन्होंने एक साथ दो युद्ध मोर्चा, आपदाओं और लैंगिक सामाजिक प्रतिबंधों का मुकाबला किया है. ऐसे में परिवर्तनकर्ताओं के रूप में उनकी उपलब्धियों का पता लगाना, उजागर करना और दोहराना महत्वपूर्ण हो जाता है, न कि निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में उनकी पहचान बनाना.
संकट और आपदा के समय में, महिलाओं को बार-बार कमजोर समूहों के रूप में प्रस्तुत और चित्रित किया गया है. यहां तक कि इसी रूप में उनका अध्ययन भी किया गया है क्योंकि उनकी वास्तविक पहचान को सामाजिक धारणाओं से ढक दिया गया है. यह लक्षण वर्णन आपदाओं से परे मानव-प्रेरित सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल को भी शामिल करता है. हालांकि यह कहानी महिलाओं की उपलब्धियों को उजागर करने वाली कमी को दर्शाती है, जबकि वास्तविकता काफी अलग है. इस धारणा के विपरीत कि महिलाएं सामाजिक परिवर्तन में सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकती हैं, वह कमज़ोर है, अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकती हैं, को गलत साबित करते हुए वे विपरीत परिस्थितियों में सक्रिय भागीदार के रूप में उभरती हैं और अक्सर समुदायों में किसी भी प्रकार के परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. राजस्थान के जयपुर जिला स्थित सांभर ब्लॉक की गायत्री देवी और दौसा जिले के लालसोट की विष्णु कंवर की संघर्ष यात्रा इसका एक आदर्श उदाहरण है. निरंतर और विशिष्ट चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, ये दोनों महिलाएं आज न केवल अपने समुदाय का उत्थान कर रही हैं बल्कि लैंगिक मानदंडों को चुनौती देते हुए आशा की किरण बनकर भी खड़ी हैं.
गायत्री देवी जिस सांभर क्षेत्र की रहने वाली हैं, उसे राजस्थान के काफी दुर्गम इलाकों में एक माना जाता है. जहां लोगों को कठोर शुष्क जलवायु और झुलसाने वाली गर्मी का सामना करना पड़ता है. मई-जून के महीनों में यहां का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. इस चुनौतीपूर्ण वातावरण में, केवल 320 मिमी की अल्प वार्षिक वर्षा के कारण, पानी की कमी एक गंभीर मुद्दा बन जाती है. इस क्षेत्र में, फ्लोराइड जैसे विभिन्न प्रदूषकों के साथ पानी के उच्च प्रदूषण के कारण यह संकट और अधिक गंभीर हो गया है, जिसके कारण लोगों को फ्लोरोसिस जैसी गंभीर बीमारी हो रही है. इससे समुदाय के सदस्यों के स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता दोनों प्रभावित हो रही है. इन कठोर परिस्थितियों से जूझते हुए, गायत्री देवी को अपने परिवार के लिए पानी लाने की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी, जिसके कारण उन्हें अपनी शिक्षा छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. दुर्भाग्य से, भारत में सामाजिक मानदंड इस प्रकार तैयार किया गया है कि अक्सर लड़कियों को विभिन्न कारणों से अपनी शैक्षिक गतिविधियों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है. जिसमें लैंगिक रूढ़िवादिता और आर्थिक बाधाओं के साथ-साथ जल संग्रह का चुनौतीपूर्ण कार्य भी प्रमुख कारकों में से एक है.
गायत्री देवी ने इलाके में लगातार पानी की हो रही समस्या को दूर करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने स्थानीय संगठनों से खेत तालाबों और जल प्रबंधन के बारे में जानकारी प्राप्त करने की जिम्मेदारी संभाली। यह देखते हुए कि पानी की कमी न केवल पीने के पानी तक पहुंच को बाधित करती है, बल्कि टिकाऊ कृषि को भी बाधित करती है, गायत्री ने अपने समुदाय के भीतर कृषि को एक व्यवहार्य व्यवसाय में बदलने का भी दृढ़ संकल्प किया. हालांकि सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर उन्हें कोई पर्याप्त मदद नहीं मिली बल्कि उन्हें कई तरह की चुनौतियों और बाधाओं का सामना करने पड़ा. इसके बावजूद गायत्री देवी अपने अटूट विश्वास के साथ डटी रहीं और बिना किसी डर भय के उन्होंने उच्च-घनत्व पॉलिथीन वाली प्लास्टिक शीट के माध्यम से खेतों में एक मजबूत तालाब का निर्माण शुरू किया. व्यक्तिगत प्रयासों से आगे बढ़कर, गायत्री देवी ने 'खेत तलाई' योजना के तहत 345 तालाबों के निर्माण की देखरेख में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस प्रकार उन्होंने अपने क्षेत्र के 15 गांवों की महिलाओं के साथ सहयोग करते हुए 65 स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के गठन का नेतृत्व किया, जिसका उद्देश्य महिलाओं में वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देना और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना है.
गायत्री देवी की समर्पित प्रतिबद्धता के कारण क्षेत्र में कृषि पद्धतियों में परिवर्तनकारी बदलाव आया है, जिसमें दोहरी फसल और पोषण बागवानी जैसी पहल शामिल है. उनके इन प्रयासों ने न केवल महिलाओं ने वित्तीय सशक्तिकरण में अपना अहम योगदान दिया है, बल्कि उन्हें अपने स्वयं के बैंक खाते और पारिवारिक बजट को प्रबंधित करने में भी सशक्त बनाया है. उनके इस असाधारण और अग्रणी योगदान के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा उन्हें वर्ष 2023 का प्रतिष्ठित "जल योद्धा पुरस्कार" से सम्मानित किया गया है.
गायत्री देवी की तरह विष्णु कंवर की कहानी भी महिला सशक्तिकरण और सामाजिक परिवर्तन की एक मज़बूत कहानी के रूप में उभर कर सामने आती है. जिनके हौसले ने एक पूरी पीढ़ी को सशक्त बनाने का काम किया है. दौसा जिले के मटलाना गांव के राजपूत समुदाय की विष्णु 19 साल की छोटी उम्र में ही विवाह के बाद घरेलू हिंसा का शिकार रही हैं. पति शराब की लत के कारण आये दिन उनके साथ शारीरिक और मानसिक अत्याचार किया करता था. लेकिन स्थानीय संस्कृति में निहित एक महिला के लिए दमघोंटू सामाजिक रीति-रिवाज और परम्पराओं को चुपचाप सहने के लिए उन्हें मजबूर कर रहा था. लगातार हो रही घरेलू हिंसा से तंग आकर विष्णु कंवर ने पति का घर छोड़ने का सख्त निर्णय ले लिया. वह अपने और अपने अजन्मे बच्चे के जीवन की सुरक्षा के लिए अपने वैवाहिक घर को छोड़ कर अपने माता-पिता के घर चली आई.
हालांकि सामाजिक कुरीतियों से दबे समाज में विष्णु कंवर के फैसले का विरोध भी हुआ, लेकिन उनके इस फैसले में उनकी भाभी ने साथ दिया और इस उथल-पुथल भरे दौर में उन्हें आगे बढ़ने में मदद की. अपनी आजीविका सुरक्षित करने के लिए विष्णु ने सिलाई का कौशल अपनाया, जिससे न केवल उनकी दक्षता प्रदर्शित हुई, बल्कि एक स्थिर आय और उद्देश्य की एक नई भावना भी सुनिश्चित हुई. 1995 में, विष्णु ने खुद को एकल महिला मंच के साथ जोड़ लिया. यह उनके लिए एक महत्वपूर्ण क्षण था. जिसने उन्हें व्यापक संसाधन और महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक मंच प्रदान किया. इसने 19 वर्षीय एक पूर्व बालिका वधू द्वारा पारंपरिक और सामाजिक बाधाओं पर विजय प्राप्त करते हुए उठाए गए क्रांतिकारी कदमों की शुरुआत के रूप में पहचान दिलाई. उनकी इसी सशक्त पहचान ने उन्हें ग्राम प्रधान पद के लिए चुनाव लड़ने को प्रेरित किया जो समाज में उनके बढ़ते प्रभाव और स्वीकार्यता का प्रतीक था.
आज, विष्णु कंवर गांव में एक सम्मानित महिला के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं. यही कारण है कि समुदाय किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले उनके पास परामर्श के लिए आता है और उनका मार्गदर्शन प्राप्त करता है. वास्तव में, विष्णु कंवर की कहानी एक समय युवा, आश्रित, निशक्त और उत्पीड़ित बालिका-वधू से गांव की नेता और महिला मुक्ति की मुखर आवाज में परिवर्तन की मिसाल बन चुका है. गायत्री देवी यादव और विष्णु कंवर जैसी महिलाओं की ये कहानियाँ, परिवर्तन के प्रतीक का रूप हैं. जो पूरे समुदायों को सशक्त बनाती है और आने वाली पीढ़ियों को हौसला देती है. वे उस कहानी को चुनौती देती हैं जो महिलाओं को समाज में कमज़ोर और विकास की प्रक्रिया में असहाय के रूप में प्रस्तुत करता है.
दरअसल, महिलाएं समाज में किसी भी प्रकार के परिवर्तन में सक्रिय भूमिका निभाती हैं. उन्हें कमज़ोर समझने की आवश्यकता नहीं है. इसके बजाय, उनकी आवाज़ को सुनने और विकास की सभी प्रक्रियों में भागीदारी निभाने की आज़ादी देने की ज़रूरत है क्योंकि यदि हम उन्हें अनदेखा करते हैं, तो हमें एक सभ्य समाज की कल्पना करना बेमानी होगी. (चरखा फीचर)
- ये आलेख आयुष्य सिंह द्वारा IGSSS के 'व्हिस्परर्स ऑफ रेसिलिएंस - आई एम स्टोरी, आई एम चेंज' से संकलित है .
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