मायावी दरवाजे की घंटी बजी। मैं भीतर घर के काम में लगी हुई थी। सामने बरामदे में आकर दरवाजा खोला। दो लड़के थे, बाईक पर सवार। पीछे बैठे लड़के के हाथ में
मायावी
दरवाजे की घंटी बजी। मैं भीतर घर के काम में लगी हुई थी। सामने बरामदे में आकर दरवाजा खोला। दो लड़के थे, बाईक पर सवार। पीछे बैठे लड़के के हाथ में निमंत्रण पत्रिका थी। उसी हाथ से उसने नमस्कार जैसा किया ओेैर पत्रिका मेरी तरफ बढ़ा दिया। बोला....आईयेगा मैडम। सामने बैठे लड़के ने बाईक स्टार्ट की और वे आगे निकल गये। पत्रिका पास रखी मेज पर रखकर मैं भीतर चली आई। अपने काम में लग गई।
सारे कामधाम निपटाकर नहाधोकर,पूजापाठ समाप्तकर, भोजन किया मैंने और आराम करने के लिए बिस्तर पर लेटने जा ही रही थी कि सबेरे मिली निमंत्रण पत्रिका की याद आई। सामने बरामदे में आकर मेज से निमंत्रण पत्रिका उठाई, देखा...अरे यह तो आशीषराय के बेटे की शादी का निमंत्रण है। आशीष को तो खुद ही आना चाहिए था निमंत्रण पत्रिका देने। पत्नी के साथ। कैसा बेवकूफ हेै। अभी तक मुँह फुलाये है।
आशीष राय मेरे पड़ोस में रहता है। शासकीय माध्यमिकशाला में अध्यापक है। पर विशेष लगाव हुआ था मुकुलराय के कारण। मुकुलराय लेखक हैं। राजनांदगाँव से निकलने वाले दैनिक ”प्रभात संदेश“ में बराबर उनकी कहानी छपती रहती है। कहानी छोटी सी ही होती आसपास की किसी घटना को लेकर या किसी बात को लेकर ही। अपने लेखन के आरंभिक दिनो में मुकुलजी ने कुछ बड़ी पत्र पत्रिकाओं में अपनी कहानियाँ भेजीं। वे नहीं छपीं। फिर वे अपने ही शहर के इस अखबार से चिपक गये। अखबार ने भी उनका साथ निभाया। बरसों से छप रहे हैं वे इस अखबार में। चूंकि राजनांदगाँव और डोंगरगढ़ एकदम लगे हुए शहर हैं, रोज ही हजारों लोगों का आना जाना लगा रहता है,ं इसलिये हम डोंगरगढ़ के लोग राजनांदगाँव को अपना ही समझते हैं। प्रभात संदेश को भी हम लोग स्थानीय अखबार समझते हेैं।
मुझसे मिलने मुकुलरायजी खुद ही आये थे। उस दिन मैं अपने ”कंप्यूटर सेंटर“ में बैठी काम में व्यस्त थी कि एक सज्जन दरवाजे पर आकर खड़े हो गए। जोर से बोले....आ सकता हूँ मैडम। मैंने सिर उठाकर देखा.... ”गोरा चिट्टा, मध्यम कद काठी का सुदर्शन व्यक्ति। बालों में चमकती सफेदी।“ मेरे देखते ही बोले....पहचाना?
मैं मुँह देखती ही रह गई।
बोले...मैं मुकुलराय।
अरे....रे बैठिये बैठिये....मैंने उन्हंे आदर से कुर्सी में बैठाया। बताने लगी....मैं तो ”प्रभात संदेश“ में आपकी कहानियाँ पढ़ती ही रहती हूँ। सौभाग्य हेेै कि आप खुद आ गए।
कहने लगे...आप तो बड़ी लेखिका हैं। बड़ी पत्रिकाओं में छपती हैं। मैं तो आपकी रचनायें पढ़ता ही रहा हूँ। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। डोंगरगढ़ आता ही रहता हूँ। यहाँ मेरी भतीजी रहती है। उसके पति का नाम है, आशीषराय।
अरे वह तो मेरे पड़ोसी हैं।
फिर वे आशीष की बड़ी तारीफ करते रहे। बहुत ही सज्जन हैं। हमें तो दामाद नहीं, बेटा मिल गया है। आपको कोई भी परेशानी हो, आप इनसे बेहिचक कहा कीजिये।
फिर तो आशीष सचमुच मेरा खयाल रखने लगे। कभी मेरा टी.वी. खराब हो, फ्रिज, कूलर, पंखा, गैस चूल्हा, किसी में भी कोई परेशानी हो, मिस्त्री बुलाकर लाते। सुधरवाते। बीमार होऊं तो डॉक्टर को दिखाना, दवाईयाँ लाना, सब खुशी खुशी करते। मुझे तो सचमें सहारा हो गया।
मुकुलरायजी जो पहली बार आये, फिर आने ही लगे। कहानियाँ वे लिखते ही थे। नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद तो हर हफ्ते उनकी एक कहानी छपनी ही है। इतवार को मेरा कंप्यूटर सेंटर बंद रहता है सो हर इतवार को वे आ जाते। टेªन से उतरते ही सीधे मेरे घर। सीधे मेरे घर आने का कारण था, उन्हें अपनी ताजा लिखी हुई कहानी सुनानी होती। मेरे घर कहानी सुनाकर खूब चर्चा कर लेते तब जाते वे अपनी भतीजी के घर। वहीं खाना खाते,आराम करते। शाम की ट्रेन से वे लौट जाते।
मगर सुबह सुबह उन्हें अपने दरवाजे पर देखकर मैं मन ही मन कहती....अरे बाप, गये मेरे तीन घंटे। दरअसल सुबह मुझे बहुत काम रहता है, जैसा कि हर गृहणी, हर महिला को रहता है। तिस पर इतवार को कई सारे अतिरिक्त काम भी। सब काम निपटाकर, नहा धोकर पूजापाठ कर, निवृत हो लेती हूँ तो मुझे चैन लगता है। मैं किसी से बढ़िया बोल बतिया सकती हूँ। वर्ना तो उखड़ी उखड़ी सी मनःस्थिति। मगर मुकुलरायजी क्या करें। अपनी ताजा कहानी सुनाने को छटपटाते, लपकते हुए चले आते हैं सबेरे सबेरे। हाँ मगर कहानी के साथ बेहतरीन मिठाईयों और नमकीन का डिब्बा लाना न भूलते। कुर्सी पर पसरते हुये बड़ी बेतकल्लुफी से कहते....खिलाईये ये बढ़िया नमकीन, पिलाईये चाय, और सुनिये मेरी ताजा कहानी...
लेकिन फिर उनका मेरे घर आना काफी कम हो गया, क्योंकि मैं ही उनके शहर राजनांदगाँव जाने लगी थी। हुआ यह कि मुझे राजनांदगाँव ”किशोर अपराधियों की अदालत“ की मानद सदस्य बना दिया गया, जिसमें मुझे हर बुधवार को जाना होता था। मैं सबेरे दस बजे की बस से राजनांदगाँव के लिये रवाना हो जाती। बस जब राजनांदगाँव पहुँचकर किशोर अपराधियों की अदालत के सामने रुकती, मैं बस से उतरकर अदालत में चली जाती। अदालत की कार्यवाही शाम पाँच बजे तक निपटती। मैं अदालत से निकलती कि बस आ जाती। मैं बस में बैठकर डोगरगढ़ आ जाती।
एक दिन अदालत का काम जल्दी ही निपट गया। मेरे मन में आया क्यों न मैं मुकुलरायजी के घर चली जाऊंँ। रिक्शा करके मैं उनके घर पहुँची। मुकुलरायजी ने शादी नहीं की थी। वे अपने बड़े भाई भाभी के परिवार के साथ रहते थे। सब मुझे देखते ही चकित। उनके भैया, भाभी तो बहुत ही खुश। भाभी कहने लगीं...धन्यभाग, जो दीदीबाई हमारे घर पधारी हैं। खूब स्वागत सत्कार हुआ। सब बैठे। खूब बोलना बतियाना हुआ। दुनिया जहान की बातें। किस्से। हँसी के फौहारे। भाभीजी तो मानो प्रेम रस में रची बसी। भारी परंपरावादी भी। मुझे ननद मानतीं। ब्राह्मण मानतीं। यहाँ पुराने लोग ननद को ”बाई“ संबोधित करते हैं। सो मुझे बाई ही कहने लगीं। पैर छूने लगीं। मैं संकोच से गड़ गई....भाभी आप बड़ी हैं। कहने लगीं...ननद का रिश्ता बड़ा होता है बाई। ननद के आशीर्वाद से घर में बरक्कत आती है। मैंने भी मौज में आकर खूब आशीर्वाद दिये....सौभाग्यवती रहो। खुद सुखी रहो और सबको सुखी करो।
भाभी के प्रेम ने मुझे अंदर तक भिगो दिया। अब अदालत की कार्यवाही निपटते ही मैं रिक्शा बुलाकर उनके घर चली जाऊँ। दरवाजे पर ही कुर्सी डाले बैठे मुकुलरायजी मिलते। सफेद कुर्ते पाजामें में स्वागत करने को तैयार। भीतर भाभीजी भी वैसी ही तैयार मिलतीं। चाय के साथ के लिये कुछ न कुछ नाश्ता बनाये हुये। यहाँ का ऐसा परंपरागत नाश्ता जो प्रायः मेैं न बना पाती। मसलन तिलिया पीठिया,चीला, दहरोरी। हम साथ मिलकर खाते। चाय पीते। घर परिवार से लेकर दुनिया जहान की बातें करते। प्रेमरस बरसते रहता। शाम ढलने लगती। अँधेरा घिरने लगता। मुकुलरायजी मुझे छोड़ने स्टेशन आते। वही टिकट कटाते। जब तक गाड़ी नहीं चलती, साथ लगे रहते। गाड़ी आती। ठीक जगह देखकर मुझे बैठाते। गाड़ी चलती। प्लेटफॅार्म पर खड़े हाथ हिलाते मुझे विदा करते। मेरा मन भर आता। मुझ अकेली को मानो एक प्रेमिल परिवार मिल गया। सुखरस में भरी घर लौटती। मीठी नींद सोती।
भाभीजी मुझे इतना बढ़िया खिलातीं तो मैं क्यांें कमी करती। कभी कभी मैं भी कुछ न कुछ बनाकर ले जाती। अक्सरहाँ लड्डू, कभी बेसन, कभी मूंग, कभी मगज के। कभी मालपुये, तो कभी शकरपारे ही। कभी कुछ न बना पाती तो उनके घर जाते हुए रिक्शा प्रसिद्ध मिठाईयों की दुकान ”मानव मंदिर“ के आगे रुकवा लेती। कभी वहाँ के प्रसिद्ध मीठे समोसे, कभी बालूशाही तो कभी इमरती बँधवा लेती। सब खुश होकर खाते। आनंद कई गुना बढ़ जाता। भाभी कहतीं...बाई तुम अकेली औरत हो। अकेली औरत का पैसा ही सहारा होता है। ऐसे पैसा खर्च मत किया करो। मैं कहती...भौजी, इतना आनंद मिल रहा है। यह क्या पैसे से बढ़कर है?
चाय नाश्ता ही नहीं कई बार मुझे वहाँ भोजन भी करना होता। भाभी की स्पष्ट चेतावनी होती...बाई अगले बुधवार को आपको यहीं भोजन करना है, अब आप जैसे समय निकालो। उनके प्रेम में बंँधी मैं अपने साथ बैठनेवाले मजिस्ट्रेट से बता देती...पटवर्धनजी, आज मुझे एक जगह भोजन के लिये जाना जरूरी हेै। वे कुछ जरूरी कागजों पर मेरे दस्तखत लेकर मुझे विदा कर देते। बस फिर अपनो के बीच पहुँचकर आनंद ही आनंद। भाभी कुछ विशिष्ट ही सब्जी बनाई होतीं...कभी जमीकंद मुनगा की सब्जी, कभी इड़हर की सब्जी, कभी रसाल। ये सब इस क्षेत्र की विशेष परंपरागत सब्जियाँ हैं। इन्हें बनाने में समय और मेहनत लगती हेै। भाभी का भारी शरीर, बुढ़ाती उम्र। कितने कष्ट से मेरे खातिर ये सब्जी बनाई होेंगी, मैं विह्वल हो जाती। विदा होते समय ये सब्जियाँ, व्यंजन, डिब्बे में भरकर मुझे देतीं...बाई फ्रिज में रख देना। दो तीन दिन तक खाना। खाने के पहले गरम कर लेना। मेरी आँखें भर आतीं। मुझ अकेली अभागिन को इतना प्रेम लुटाने वाली मेरी प्यारी भौेजी। मेरे बीरान नीरस जीवन को प्रेम रस बरसाकर लहलहा दिया तुमने तो।
कई बार ऐसा भी हो गया कि मैं अदालत का काम निपटते ही सीधे डोंगरगढ़ के लिये रवाना हो जाती। लेकिन अगली बार जब भोेैजी के घर पहुँचती तो भौजी का कलपन ...बाई हमसे ऐसी क्या गलती हो गई जो एकदम ही आना छोड़ दीं। तुम्हारे भैया बार बार पूछ रहे थे.... ”किसी ने कुछ कह तो नहीं दिया बाई को। हर बुधवार को सामने बैठे हर रिक्शे को ताकते रहते है, बाई इसमें से उतरेगी। रिक्शा आगे चला जाता हेै। जब अँधेरा घिर आये तब आखिर मैं चाय बनाने को उठती। चाय हमसे पी न जाती।“
कई बार ऐसा भी होता कि भौजी सपरिवार अपनी बेटी के घर आतीं। यानी आशीष राय के घर। हफ्ते, पंद्रह दिन रहतीं। सो मैं शाम को आशीषराय के घर जाती। पता नहीं क्यो,ं वह आनंद यहाँ न आ पाता जो भौजी के घर आता था। हाँ, मगर इसकी करीब करीब भरपाई हो जाती जब वे मेरे घर आतीं। मैं अक्सर उन्हें सपरिवार अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित करती। करीब करीब वही आनंद छा जाता, जो उनके घर हम पाते। मगर आशीष राय का परिवार बहुत आग्रह पर भी नहीं आता। मैं टिफिन में पूरे परिवार के लायक भरपूर भोजन भरकर उनके घर भिजवा देती।
मुकुलरायजी तो मेरे घर आते ही थे। कहानी तो सुनाते ही थे। मेरी कोई परेशानी हो तो हल करने की कोशिश भी करते। कभी कभी आशीष राय भी साथ होते। दरअसल आशीष राय की भतीजी मेरे घर के सामने ही रहती है। भतीजी विधवा है। चालीस पैंतालिस की उम्र। पहले माँबाप साथ थे। उनके गुजर जाने से अकेली पड़ गई है। पिता ने अपने जमीन जायदाद में अपनी बेटी के नाम के साथ अपने भाई आशीष का नाम भी डाल दिया है। सो आशीष राय उसकी खोज खबर लेने आते ही रहते थे। उसके घर आते तो मेरा भी हाल चाल पूछ लेते। पास रहते हुये भी इस भतीजी से मेरी कोई घनिष्टता नहीं हो पाई। शुरू से ही इस भतीजी का रंग ढंग मुझे रास नहीं आया। एक दिन आई तो मुझसे बड़ी अजीजी से कहने लगी...बुआजी आपसे एक विनती है। मैं बहुत दिनो से आपसे एक बात कहना चाहती थी। आज हिम्मत करके आई हूँ। बात आपके भले के लिये ही हेेै। कृपया धैर्य से सुन लीजिये।
ऐसी क्या बात है भाई ?
आपके घुटनो में दर्द रहता है न। आपने इतना ईलाज करवाया, ठीक नहीं हुआ न। अब मेरी बात मानिये। एक दीदीजी हैं। उनसे प्रार्थना करवा लीजिये। उनकी प्रार्थना में इतना दम है कि कितना ही भीषण दर्द हो, उनके प्रार्थना करते हीं छूमंतर हो जाता है।
कौन दीदी हैं? किसकी प्रार्थना करती हैं?
हैं एक दीदी। उनके अपने भगवान हैं। उन्हीं की प्रार्थना करती हैं।
तुम उन्हें कैसे जानती हो?
वह बताने लगी....आप तो जानती हैं। मेरे पेट में भीषण दर्द रहता था। एक दिन ऐसे ही दर्द में तड़प रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो एक महिला थी। सामान बेचने वाली। बोली...नमस्ते मैडम, मैं कुछ सामान लाई हूँ, महिलाओं के उपयोग की। बड़ी अच्छी क्रीम हैं। एकदम त्वचा निखार देने वाली। शेम्पू हैं, बाल काला करने वाले तेल हैं.. मैं बोली...बाई मुझे कुछ नहीं लेना है, तुम जाओ। कहने लगी ,मैडम एक बार देख तो लीजिये। मैं बोली, नहीं देखना है भई। मैं इस समय बहुत तकलीफ में हूँ। पूछने लगी क्या तकलीफ है मैडम आपको? उसकी आवाज में इतनी मिठास, इतनी हमदर्दी थी कि मेैं बता दी...पेट में भीषण दर्द है भाई। डॉक्टर की दवाई खाई हूँ तब भी ठीक नहीं हो रहा है। कहने लगी,.आपका दर्द तो बहन, एक मिनट में छू हो जायेगा अगर आप मेरी एक बात माने। मेरे कान खड़े हुए...ऐसी क्या बात हैे भाई। बताई,एक दीदीजी हैं। आप अपने दर्द निवारण के लिए उनसे प्रार्थना करवा लीजिये। मैं बोली ठीक है कर दे प्रार्थना। तो बोली, मगर फिर आपको उनकी एक शर्त माननी होगी। मैंने पूछा क्या शर्त है? तो बोली, यही कि आपको यह मानना होगा कि जिन भगवान की उन्होंने प्रार्थना की है, दर्द उन्होंने ही ठीक किया है। किसी और ने नहीं। मैंने कहा,हाँ भई, मान लेंगे कि उन्होंने ही ठीक किया है। तो बोली ऐसे नहीं। आप अब तक जिन भी भगवान को मानती रही हों, जिन भी देवी देवता वगैरह की तस्वीर हो, मूर्ति वगैरह हो घर में,उन्हें आप घर से निकाल दीजिये।
अब चमकने की मेरी बारी थी, बोली....तुमने घर के देवी देवता की तस्वीरें निकाल दिया?
हाँ, जब ठीक होने के लिये उनकी शर्त ही यही थी।
घर में जो बालकृष्ण की पुरानी मूर्ति थी, निकाल दिया?
हाँ...
दक्षिणमुखी हनुमानजी थे, उनको भी?
हाँ...
कुलदेवी की तस्वीर?
हाँ भई। कह तो रही हूँ सब मूर्तियों, सब तस्वीरों को।
कहाँ किया?
फेंक दिया।
कहाँ?
पीछे वाले घूरे में।
मेरे तलवे की लहर माथे में....कौन हैं वो भगवान जिनके लिये अपने पीढ़ियो की आस्था को घूरे में फेक दिया?
मेरा रौद्ररूप देखते ही वह थर थर काँपने लगी। मैं फिर गरजी...बताती क्यों नहीं?
काँपते बोली...वे प्रभु ईशु को मानती हैं बुआजी।
मेरा क्रोध सातवें आसमान पर...लोगों ने गर्दन कटा लिये मगर धरम नहीं बदला ओैर तुमने पेट दर्द होने के कारण धर्म बदल लिया....?
वह थरथराती हुई भाग गईं.....इसीलिये मैं नहीं कहना चाहती थी मगर उनलोगों ने.......
मैं काँटों में लोटती रही। सहा नहीं जा रहा था। आशीषराय को फोन किया...जल्दी आईये। आपसे जरूरी बात करनी है।
वह आये। मैं शुरू हो गई...आशीषजी आपका परिवार एक खानदानी धर्मपरायण परिवार रहा है। आप शिक्षक हैं। इस देश का इतिहास अच्छे से जानते हैं। किस तरह से आक्रमणकारियों ने अपने अपने तरीेके से इस देश की संस्कृति को नष्ट किया है। आपकी ये भतीजी आपके संरक्षण में रही है। घर में पीढ़ियों से बिराजे देवी देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को घूरे में फेंक दी है। धर्म बदल ली है। पेट दर्द के कारण। आपको पता हेै?
वे आँय वाँय करने लगे...क्या है। भगवान तो सब एक ही हैं। किसी रूप में मानो। उसे ईसा मसीह रूप में मानने से राहत मिलती है तो ठीक ही तो है।
ईसा मसीह को मानने से कोई ऐतराज नहीं। हम भी मानते हैं। वे महान थे। मानना अलग बात है। धर्म परिवर्तन, एकदम अलग बात है। वह भी पेट दर्द के कारण?
धर्म तो सब एक जैसे ही होते हैं।
एक जैसे कैसे होते हैं...... मैं बिगड़कर दलील देने लगी कि हिन्दू धर्म अपने देश की मिट्टी का धर्म है। इस देश की सभ्यता, संस्कृति, परंपराये, चिंतन, दर्शन सब हिंदू धर्म के अंग हेैंं। देश को एक सूत्र में जोड़ने वाला धर्म है ये..
वे एकदम उठ खड़े हुये....मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता। आप जैसे कट्टरवादी ही समाज में नफरत फैलाते हैं...
मैं सन्न।
मगर वे मुझसे सचमुच ही बिगड़ गए। कभी सामने पड़ जायंे ंतो मुँह फेर लेते। पत्नी तो मुझे देखकर इस तरह मुँह बिचकातीं कि मेरा पूरा शरीर क्रोध से सनसना जाता।
यह मेरे लिये गहरा आघात। सहा न जाता। बेचैन रहती। जब मुकुलरायजी मुझसे मिलने आये तो मैंने उनसे भी अपनी बेचैनी कही। व्यथित हो बताने लगे कि कुछ ऐसे मामले हैं कि आशीष इस मंदबुद्धि, रोगिणी भतीजी को छोड़ नही सकता। उसी के मन की करता है। मुझे भी इस बात को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। जो जिस राह जाना चाहे, जाये, हम ऐसे लोगों को नहीं रोक सकते। सो हमें अपनी शांति भंग नहीं करना चाहिये।
और मुझे भी लगा कि मुकुलरायजी ठीक ही तो कह रहे हैं। कोई अपना धर्म परिवर्तन कर खुश है तो मुझे क्यों अपनी शांति भंग करनी चाहिए। मैं इन बातों को भूलने लगी। इस बीच कुछ ऐसा हुआ भी कि उन लोगों से मेरा संपर्क छूट सा गया। ”किशोर अदालत“ में मेरा कार्यकाल समाप्त होते ही मेैने राजनांदगाँव जाना छोड़ दिया। उधर मुकुलराजी के हृदय का भारी आप्रेशन हुआ। आप्रेशन के बाद वे घर आ तो गए मगर डॉक्टर ने कहीं आने जाने से मना कर दिया था। सो वे डोंगरगढ़ नहीं आ पा रहे थे। उन लोगों से मिले अरसा हो गए। भाभीजी का वह अगाध प्रेम याद कर मै ंरोने लगती। मायके से बिछुड़ी हुई बेटी जैसी हालत हो गई मेरी तो। सोचने लगी , कब जाकर मिलूं।
कि अचानक यह निमंत्रण पत्र।
वैसे परिचितों मंें चर्चा थी ही कि आशीषराय के बेटे को नामी कंपनी में मोटे पैकजों वाली नौकरी मिल गई है। बड़े घरों से रिश्ते आ रहे हैं। भाव बढ़े हुए हैं आशीषराय के तो...।
मेरा मन हुलसने लगा। जब आशीष राय के बेटेे की शादी है तो भौजी तो आयेंगी ही। आखिर उनके नाती की शादी है। पूरा परिवार ही आयेगा। कितने दिन हो गये भोैजी का वह प्रेमरस में सराबोर चेहरा देखे। उनकी प्रेम भरी मीठी मनुहार भरी बातों के अमृतरस में नहाये। बड़े भैया से बोले बतियाये। मुकुलरायजी के साथ साहित्यिक चर्चा किये। उनकी ताजा कहानी सुने। इस आशीष के घर में तो ऐसी प्यारी, ऐसी जीवंत महफिल हो नहीं सकती। तिस पर अब तो शादी वाला घर। तब क्या मैं उन लोगों को अपने घर भोजन पर आमंत्रित कर लूँ। मगर वे लोग तो शादी के घर में आ रहे हैं। एक से एक जायेकेदार भोजन बन रहे होंगे वहाँ। कैसे करूँ! तेरह तारीख को शादी है। आज दस हो गई। जरूर अब तक वे लोग आ ही गए होंगे। चली ही जाती हूँ मिलने। रहा नहीं जा रहा.।
मगर आशीष की पत्नी का यूं मुँह बिचकाना। ....
नहीं, भौजी जरूर खुद आयेंगी मुझसे मिलने। ऐसी प्रेममयी भौजी, पड़ोस में आकर मुझसे मिले बिना कैसे रह सकती हैं। अगर नहीं ही आ सकीं तो फोन तो जरूर ही करेंगी मुझे। अगर उनका फोन आया तो मैं तो चली ही जाऊंगी उनसे मिलने आशीष के घर।
मगर वे नहीं आईं, उनका फोन भी नहीं आया। मेरे कान लगे रहते। पड़ोस में ही तो घर है। सो वहाँ की हलचलें स्पष्ट पता चल रही हैं। विद्युत बल्बों से की गई शानदार सजावट की रंगीन जगमगाहट मेरे घर में भी झिलमिल कर रही हेै। बैंड बाजे की धुन बता रही है, अभी लड़के को हल्दी लगाई जा रही हेै। अब बारात विदा हो रही है। अब बरात आ गई है दुल्हन को लेकर। अब दुल्हे दुल्हन की अगवानी हो रही है। आज ”रिसेप्शन समारोह“ हेै। लोग सजधजकर जा रहे हैं तोहफे लिये। वह भतीजी तो रोज ही शाम सबेरे जा रही है, तरह तरह से सजधजकर।
हाँ, मगर रिसेप्शन की शाम मुकुलराय मेरे घर आये। न भौजी की बात। न शादी की बात। कुछ पुस्तक चर्चा करते रहे। एक बात बार बार कहते रहे....आजकल लोगों में कितना अहम हो गया है। अपने अहम के सिंहासन से एक कदम नीचे नहीं उतरना चाहते लोग। उनके ढंग से लग रहा था, वे मुझसे कहना चाह रहे हों। अपने अहम से उतरकर मैं उस रिसेप्शन समारोह में चली चलूं, उनके साथ।
वे चले गये। मैं अपने घर कठुआये बैठी हूँ। ये मुझे कह रहे हैं अपने अहम से उतरूं। अपने दामाद को क्यो नहीं कहते.। भौजी भैया, मुकुलराय, सबने अपना रुपया पैसा, मकान जमीन, गहना गुरिया, सब इसी बेटी दामाद के नाम किया हुआ है.. फिर भी इनमें इतना दम नहीं कि कह सकें कि ”दीदी बाई से हमारा बहुत प्रेम संबंघ है। तुम दोनो पति पत्नी जाओ और उन्हें सादर निमं़ित्रत करो। आयेंगी, तो आशीर्वाद ही देंगी।“
उनके घर के विस्तृत छत में चल रहा है रिसेप्शन समारोह। समारोेह के हर्षोल्लास भरे टुकड़े मेरे आँगन तक भी धूम मचा रहे हैं। मगर मेरे जेहन में तो वह दृश्य घूम रहे हेैं जिन्होंने मुझे कभी आनंद से सराबोर कर दिया था..”.मैं उनके घर गई हूँ। पूरा घर आश्चर्य चकित। भौजी गदगद हो रही हैं...धन्न भाग! जिन दीदीबाई का इतना नाम सुनते थे, वह हमारे घर खुद पधारी हेैं। फिर किसी दिन मेरे लिये झंझट वाले व्यंजन अनरसा, गुझिया बनाये बैेठी हेैं तो किसी दिन परम झंझट वाली सब्जी इड़हर। खिलाती तो हैं ही सामने बैठाकर, डिब्बे में भरकर दे रही हेैं। ”हरतालिका तीज“ में बहन बेटी को दिया जाने वाला शगुन मेरी ओली में डाल रही हेैं। किसी दिन करुण कलपन....बाई हमसे ऐसी क्या गलती हो गई, जो हमारे घर आना ही भूल गई। चाय पीने बैठते हैं, दीदी बाई बिना किसी से चाय नहीं पी जाती....“
नहीं भौजी मुझे ऐसे नहीं छोड़ सकतीं। कम से कम जाते जाते मुझसे भेंट करने जरूर आयेंगी, चाहे थोड़ी देर के लिये ही। विदा होने की घड़ी आ गई। अतिथि सब लौट रहे हैं अपनी अपनी कारों में। मैं अपने घर के सामने बरामदे में बेैठी हँू। हर कार को ताकती... किसी कार से भौजी उतरेंगीं, बाहें फैलाये दौड़ेंगी मेरी ओर....कहाँ हो दीदी बाई...
नहीं कोई कार नहीं रुकती। शादी की हलचल भी खतम हो जाती है। बची है खुरचन की खदबद। पड़ोसिने आज मेरे ही घर बैठी बतिया रही हैं शादी वालेे घर की बातें..... ”आशीष को तो फुरसत ही नहीं थी। उसकी पत्नी मूर्ख, न बोलना आये, न बतियाना। रिश्तेदार महिलायें सब सजने संवरने में। पुरूष जिम्मेदारियाँ संभालने में। स्वागत कौन करे अतिथियों का। सो आशीष की थुलथुलबदनी सास को बढ़िया श्रृंगारकर, गहने कपड़े से सजाकर सामने सोफा में बैठा दिया गया था, एकदम ”मातारानी“ की तरह। अब वो बुढ़िया है ही स्वाभाव से परम मायावी। सोफे में बैठी बेैठी ऐसा मीठा स्वागत करे कि सब गदगद, चाहे परिचित हो या अपरिचित, सब पर प्रेम वर्षा.... किसी को गले लगा रही हैं, किसी की पीठ थपथपा रही हैं। आशीर्वाद की तो झड़ी...सुखी रहो। खूब पढ़ो। खूब कमाओ। किसी को अहा, धन्न भाग आप आये। इस विवाह की तो शोभा बढ़ गई। किसी को.....अरे निर्मला तुम अब आई। मेरी तो आँखें थक गई थीं तुम्हारा इंतजार करते करते। सुनील, तू कैसे अपनी मामी को भूल गया था रे! मैं तो तुझे रोज याद करती थी। तुझे देखकर तो मेरी आँखें जुड़ा गईं। भैया मैं आपको पहचान तो नहीं रही हूँ मगर मेरे भीतर से लग रहा है, आप हमारे कोई बहुत अपने हैं... देखिये न आपके कदम रखते ही कैसा उजाला सा छा गया.। पूछो मत बहन, उन मातारानी का मायावी इंद्रजाल.....मेरे मुँह से निकल गया...आपकी ”दीदी बाइर्“ नहीं दिख रही हैं, तो अनसुना कर गईं.....“
एक एक बात मुझे तीर की तरह चुभ रही है। अंग अंग में चुभ रहे हैं तीर। अंग अंग लहूलुहान हो रहा हेेै। पर बैठी हूँ अडोल। अबोल। सब सहते।
मायावियों का दंश सहना मजाक नहीं है बंधु।
- शुभदा मिश्र
14 पटेल वार्ड, डोेंगरगढ़(छ.ग.)
COMMENTS