ऋग्वेद का नासदीय सूक्त और ब्रह्मांड की उत्पत्ति ऋग्वेद भारतीय सनातनी सभ्यता और परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद को मंडल,सूक्त और ऋचाओं म
ऋग्वेद का नासदीय सूक्त और ब्रह्मांड की उत्पत्ति
ऋग्वेद भारतीय सनातनी सभ्यता और परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। ऋग्वेद को मंडल,सूक्त और ऋचाओं में बांटा गया है। वेद में 10 अध्याय निहित हैं जिन्हे मंडल की संज्ञा दी गई है। प्रत्येक मंडल में अनेक सूक्त हैं और प्रत्येक सूक्त के अंतर्गत अनेक ऋचाओं का समावेश किया गया है। इस प्रकार ऋग्वेद में 10 मंडलों में 1028 सूक्त और तकरीबन 10580 ऋचाएं अर्थात मंत्रों को समाविष्ट किया गया है। इन विभिन्न 10 मंडलों में प्रथम और अंतिम मंडल समान रूप से बड़े हैं। ऋग्वेद के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के विषयों का समायोजन किया गया है यहां हम वेदों में उल्लेखित कुछ ऐसी ऋचाओं के बारे में जानने का प्रयास करेंगे जो हमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विषय में जानकारी देती हैं।
सृष्टि से पहले सत नहीं था असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं आकाश भी नहीं था
शायद आपको यह पंक्तियां स्मरण हों। वर्ष 1988 के दौर में प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक और लेखक श्याम बेनेगल द्वारा बनाया गया एक प्रसिद्ध दूरदर्शन धारावाहिक भारत एक खोज में इसे सम्मिलित किया गया था। वास्तव में यह ऋग्वेद के नासदीय सूक्त से संबंध में रखता है और उसका हिंदी रूपांतरण है। सूक्त को मंत्रों का समूह कहा जाता है। इस सूक्त की पंक्तियों में कुछ ऐसा रहस्य छुपा है जहां तक पहुंचने में आधुनिक विज्ञान को कई दशक लग गए। नासदीय सूक्त में बताया गया है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई थी।
ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विषय में ऋग्वेद के दसवें मंडल के 129 वें सूक्त में जानकारी दी गई है। इस सूक्त के अंतर्गत कुल सात मंत्र हैं जो ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विषय में हमें जानकारी देते हैं। अत्यंत ही आश्चर्य की बात है इतनी सटीक और उपयोगी जानकारी हमारे शास्त्रों में निहित होने के उपरांत भी हम इस ज्ञान से कैसे एक लंबे समय तक अनभिज्ञ रहे। ऋग्वेद में इस सूक्त को नासदीय सूक्त के रूप में जाना जाता है। इस सूक्त के अंतर्गत कुल सात मंत्र अथवा ऋचाएं हैं। माना जाता है कि यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफ़ी सटीक जानकारी देता है। इसी कारण दुनिया में काफ़ी प्रसिद्ध हुआ है। नासदीय सूक्त के रचयिता ऋषि प्रजापति परमेष्ठी हैं। इस सूक्त के देवता भाववृत्त है। यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी। आइए एक एक कर इस सूक्त के अंतर्गत सात मंत्रों को समझते हैं।
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥1॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2।।
अन्वय- तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।
अर्थात उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था । उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥3॥
अन्वय- अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।
अर्थ- सृष्टि के उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, आज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था। इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा। ॥4॥
अन्वय- अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन
अर्थ- सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥5॥
अन्वय- एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।
अर्थ- पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान् रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण के.
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥
अन्वय- कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।
अर्थ- कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
अर्थ- यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुई इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरूप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि किस प्रकार से ऋग्वेद अत्यंत ही सूक्ष्मता और सटीकता के साथ ब्रह्मांड की उत्पत्ति जैसे जटिल और महत्वपूर्ण विषय पर जानकारी हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। पश्चिम के वैज्ञानिकों ने आज से कुछ दशक पूर्व बिग बैंग अर्थात महा विस्फोट के सिद्धांत का प्रतिपादन किया तब विश्व को इस बात का पता चला कि भारतीयों के पास यह ज्ञान तो हजारों वर्षों पहले से ही था। यह बताया गया कि तकरीबन 15 अरब वर्ष पूर्व समस्त भौतिक जगत और ऊर्जा एक बिंदु के रूप में विद्यमान थी। इस बिंदु ने धीरे-धीरे फैलना आरंभ किया तो ब्रह्मांड का निर्माण हुआ। यह एक विस्फोट की तरह है जो आज भी जारी है। यह सूक्त बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पहले सत,असत, रज,अंतरिक्ष कुछ भी नही था। और उसके परे जो कुछ भी है वह भी नहीं था। न ही मृत्यु थी और ना ही अमृत था। प्रारंभ में तो सिर्फ अंधकार में लिपटा हुआ अंधकार ही था। एक प्रकार का अनादि पदार्थ था जिसका कोई रूप नहीं था। तत्पश्चात इस अनादि पदार्थ से एक महान निरंतर तप से वह रचयिता अर्थात ईश्वर प्रकट हुआ। रचयिता ने सृष्टि की रचना की कामना की जो कि उत्पत्ति का पहला बीज बना। इस कामना रूपी बीज से चारों ओर अनेकों सूर्य किरणों ने समान ऊर्जा की तरंगे निकली जिन्होंने उस अनादि पदार्थ अर्थात प्रकृति से मिलकर सृष्टि की रचना की। यह एक दार्शनिक विचार है जिसमें कई प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। और यदि सरलता पूर्वक इसे समझने का प्रयास करें तो यह कुछ नहीं होने से कुछ होने की प्रक्रिया कही जा सकती है। इसी बात को विज्ञान ने आगे चलकर अब से कुछ दशक पूर्व बिग बैंग अर्थात महाविस्फोट के सिद्धांत के रूप में बताया।आश्चर्य की बात तो यह है कि केवल ऋग्वेद में ही नहीं अपितु इसके अलावा अनेक भारतीय ग्रंथों में भी मिलता है कि सृष्टि का उद्भव शून्य से हुआ है। संपूर्ण सनातन धर्म के जीवन का आधार भी यही यह माना जाता है। माना जाता है कि संपूर्ण सृष्टि का जन्म एक ही सर्वोच्च शक्ति से हुआ है।" द गॉड पार्टिकल" के लेखक डिक थेरेसी ने लिखा है कि भारतीय ब्रह्मांड विज्ञानी पहले थे जिन्होंने पृथ्वी की आयु चार अरब वर्ष से अधिक होने की बात कही थी। आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान और प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलने वाले वर्णन की समानताएं केवल संयोग मात्र नहीं है। अब यह हमें तय करना है कि कौन सा मार्ग हमें सत्य और प्रकाश की ओर लेकर जाता है और कौन सा मार्ग असत और अंधकार की ओर।
इति।
संदर्भ:-ऋग्वेद दशम मंडल,शोध पत्र
- इंजी. संजय श्रीवास्तव
बीएसएनएल,बालाघाट(मध्यप्रदेश)
9425822488
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