आपसी प्यार मोहब्बत से बड़ी कोई चीज नहीं प्यारे प्यारे लड़के, निर्दोष किस्म की लड़कियां मारे जा रहे हैं, भटक रहे हैं। प्यार करो और जिससे करो उसका साथ
आपसी प्यार मोहब्बत से बड़ी कोई चीज नहीं
ऐसे कई लोगों को देखा है जो दिल्ली की दुनिया में एडजस्ट नहीं कर पाए। जिस बैकग्राउंड से आते थे उसके दबाव होते हैं।
आप देखने में अच्छे हो सकते हैं पर आप मनोज बाजपेई नहीं हो सकते। इलाहाबाद से आया हुआ लंबा लड़का अमिताभ नहीं बन सकता। सहरसा से चलकर आई प्रखर लड़की अरुंधती राय नहीं बन पाती।इन दिनों बहुत संघर्ष की फेक स्टोरीज देखता रहा हूं। कैसे खाने के पैसे नहीं थे, रेस्तरां में दोस्तों के साथ खाना सूंघ कर आते थे, बेंच पर सोते थे...
ये कहानियां कुछ छुपाती हैं। इनमें से अधिकतर लोग सामाजिक रूप से संपन्न बैकग्राऊंड से आते हैं। हमलोग नसीर और इरफान को देखकर उनके बैकग्राउंड के बारे में नहीं जानकर ही बड़े हुए। बाद में जाना कि ये लोग बहुत संपन्न घरों से आए।
कई बेचारे लोगों के पास तो और कुछ नहीं था, सिवाय सपनों के। हां, जेब में जवाहरलाल नेहरु की चिट्ठी थी!देव आनंद भूख से बिलबिला रहे थे और खाने को पैसे नहीं। बेचारे को अपनी प्रिय डाक टिकटों का एल्बम बेच कर अपनी भूख मिटानी पड़ी! इस बात का पता बाद में चला कि ...देव आनंद ख्वाजा अहमद अब्बास के घर में रहते थे, राजा राव से जुड़े थे, चेतन आनंद से भी ...
जीवनी को ध्यान से पढ़ना चाहिए।
ये जो गुमनामी से बड़े होने की कहानी किसी शो में आप देखते हैं उससे हजारों लोगों को भ्रम हो जाता है कि वे टैलेंट से बुलंदी पर जा सकते हैं, बस एक मौका मिल जाए !
हजार में से एक या दो कुछ बड़े बनते हैं और वही स्टोरी घूमती है। 998 फेल हुए, उनमें से दस बीस मर मरा गए यह भी होता है।
लड़कों का रोग लड़कियों को भी स्वाभाविक तरीके से होगा ही। दिल्ली की पत्रकारिता की भी एक फेक दुनिया को नजदीक से देखा। आज लगता है स्टार है, एक बरस बाद नौकरी खोज रहा है, मास्टर को देखकर सोच रहा है कितनी सेक्योर्ड लाइफ है!
महत्वाकांक्षा अच्छी या बुरी नहीं कह रहा। जीवन में कुछ करके दिखाना है ऐसा सोचने में भी कोई बुराई नहीं, लेकिन उसके भी कुछ नियम हैं।सामान्य परिवार से गांव से उठकर आए लड़के लड़कियां दिल्ली में जाकर कैसा महसूस करते हैं इसपर सोचते हुए एक मित्र के एक पत्र का स्मरण हो आया। जब दिल्ली आ रहा था तो उन्होंने स्नेह वश लिखा था कि दिल्ली में जाकर लड़के वैसा ही महसूस करते हैं जैसे बड़े शहर के लड़के विदेश में जाकर।
दिल्ली बंबई भी विदेश ही है! चले आए दिल्ली बंबई तो कुछ काम भी करेंगे ही। किस्मत से आप जे एन यू के सेफ कैंपस में आ गए तो फिर क्या कहना ! आसमान तक सोच लेंगे! आई ए एस से लेकर बड़े अखबार के एडिटर तक सब कुछ बन सकते हैं इसका पूरा विश्वास हो जाएगा।
उनमें से अधिकतर धक्के खाकर किसी स्कूल कॉलेज में मास्टरी कर रहे हैं और उनके पास लक नहीं साथ दिया वरना यहां होते वाली कहानियां होती हैं, बस ! इसमें सबसे अधिक ट्रैजिक है आपसी प्रेम के मरने का वृत्तांत।
भगवतीचरण वर्मा का एक उपन्यास है तीन बरस। उसमें एक नौजवान और उसकी प्रेमिका की कथा है जो संघर्ष करते हुए एक दूसरे से दूर हो गए! आगे बढ़ने की ललक में साथी छूट जाता है इस थीम पर वैसे मेरा नाम जोकर भी है और गाइड भी!
यह साथ जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण है। जिसका दामन थामा है उसके लिए बड़ी से बड़ी सफलता को भी छोड़ देने की ताकत होनी चाहिए। ये क्या कि कल जिसके लिए खून से खत लिख रहे थे आज वो बेकार है, बेवकूफ है सोचने लगें।
मैं आमिर खान को बहुत ही बेकार किस्म का उदाहरण मानता हूं। एक्टर बढ़िया है।जो बीमारी लड़कों को होगी वह लड़कियों को भी होगी ही। जैसे जैसे ऐसे लोग दिल्ली बंबई में बढ़े सपनों का खेल बढ़ा और कैजुअल्टी भी बढ़ गई।
अब पैसा होता नहीं है और उम्र चली जा रही है इससे आदमी और औरत दोनों परेशान। क्या करें!सब साथ छोड़ देते हैं।
ऐसी अकुलाहट के 'अंधेरे बंद कमरों ' में साथी को ही नोचना पड़ता है। ये साला/ साली न होता/ होती तो मैं इस जगह नहीं कहीं और होता, सोचते हुए ...हर तरह के लोग मिलते हैं। वे खुद साथ छोड़ कर कुछ बन रहे होते हैं। कुछ नहीं तो फेमिनिस्ट या कुछ और इस्ट हो रहे होते हैं।ये लोग हत्याएं करवा रहे हैं, साथ छुड़वा रहे हैं।प्यारे प्यारे लड़के, निर्दोष किस्म की लड़कियां मारे जा रहे हैं, भटक रहे हैं।...
प्यार करो और जिससे करो उसका साथ निभाओ !
नहीं तो क्या आदमी/ औरत हो !
छक से लगेगा, जोर से!
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( इसमें मेरा बायस हो सकता है, पर इतने उदाहरण देखे हैं कि अपने को रोक नहीं सका।)
- हितेंद्र पटेल
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