पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत से लोग कुशल होते हैं, लेकिन जो स्वयं उन उपदेशों का पालन करते हैं, वे बहुत क
पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी
पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी par updesh kushal bahutere par kahani दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत से लोग कुशल होते हैं, लेकिन जो स्वयं उन उपदेशों का पालन करते हैं, वे बहुत कम होते हैं। इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने एक महत्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन किया है। वह कहते हैं कि दूसरों को उपदेश देना तो बहुत आसान है, लेकिन स्वयं उन उपदेशों का पालन करना बहुत कठिन। लोग अक्सर दूसरों को उपदेश देते हैं कि वे कैसे जीना चाहिए, लेकिन स्वयं वे उन उपदेशों का पालन नहीं करते हैं।
वर्तमान समय में महत्त्व
इस दोहे का वर्तमान समय में भी उतना ही महत्व है जितना कि अतीत में था। आज भी हम देखते हैं कि लोग दूसरों को उपदेश देते हैं कि वे ईमानदार, सच्चे, और न्यायप्रिय बनें, लेकिन स्वयं वे इन गुणों का पालन नहीं करते हैं। वे दूसरों को कहते हैं कि वे पर्यावरण का संरक्षण करें, लेकिन स्वयं वे प्रदूषण फैलाते हैं। वे दूसरों को कहते हैं कि वे शांति और सद्भाव बनाए रखें, लेकिन स्वयं वे हिंसा और कलह फैलाते हैं।पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी
यदि हम वास्तव में अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो हमें स्वयं उन उपदेशों का पालन करना शुरू करना चाहिए जो हम दूसरों को देते हैं। हमें स्वयं ईमानदार, सच्चे, और न्यायप्रिय बनने का प्रयास करना चाहिए। हमें स्वयं पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। और हमें स्वयं शांति और सद्भाव बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।उपरोक्त लोकोक्ति के आधार पर निम्नलिखित कहानी है -
रोगियों की चिकित्सा
बात पिछले वर्ष की है। जून का महीना समाप्ति पर था, परन्तु वर्षा होने का नाम नहीं लेती थी। दिन भर आकाश से आग बरसती रहती थी । पिताजी ने हमें ग्रीष्म की विभीषिका से बचाने के लिए घर पर कूलर लगवा दिया था।
उन दिनों मेरा सहपाठी मित्र विलियम, जो मेरे पड़ोस में ही रहता था, प्रायः दोपहर के भोजन के बाद हमारे घर पर आ जाया करता था। हम दोनों कूलर की शीतल हवा में बैठकर साथ-साथ छुट्टियों का गृहकार्य करते । यदि हम पढ़ाई-लिखाई के कार्य से थक जाते तो कभी हम स्टीरियो पर कैसेट सुनते, कभी कैरम या लूडो खेलकर मन बहलाते और कभी इधर-उधर की गप्प मारते। विलियम के पिता डॉक्टर जोसेफ़ नगर के एक लब्धप्रतिष्ठित चिकित्सक थे । उनकी प्राकृतिक चिकित्सा में अनन्य निष्ठा थी। उन्होंने नगर में एक आरोग्य-निकेतन की भी स्थापना की थी। वे रोगियों की चिकित्सा मिट्टी और पानी के प्रयोग द्वारा किया करते थे । उनका दावा था कि वे प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा कठिन से कठिन और पेचीदा से पेचीदा रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं।पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी
ईश्वर की विचित्र लीला ! थोड़े ही दिन में मेरी माँ को पित्त की बीमारी (urticaria) ने आ घेरा। दो-चार दिन में ही उनका सारा शरीर लाल चकत्तों से भर गया। पिताजी ने माँ की चिकित्सा नगर के एक सर्वमान्य त्वचा-विशेषज्ञ डॉक्टर बनर्जी द्वारा कराई और लगभग एक सप्ताह में ही उन्हें आशातीत लाभ भी हो गया। परन्तु दवा बन्द करने पर उनकी बीमारी फिर उभरने लगी। जब वे कैप्सूल और इजेक्शन का प्रयोग करतीं तो उन्हें लाभ हो जाता, परन्तु दवाइयों का प्रयोग बन्द करने पर बीमारी फिर नये सिरे से उभरने लगती । यह क्रम लगभग एक महीने तक चलता रहा। पिताजी माँ की दशा देखकर अत्यन्त चिन्तित हो उठते । माँ के कष्ट को देखकर मुझे भी बड़ी पीड़ा होती । एक दिन मैं विलियम के साथ उसके घर गया हुआ था। उस दिन मैंने आरोग्य-निकेतन में देखा कि दो रोगी माँ के समान ही पित्त के रोग से पीड़ित हैं और उन्हें वहाँ की चिकित्सा से स्वास्थ्य लाभ भी हो रहा है। अपने घर जाकर मैंने माँ और पिताजी से प्राकृतिक चिकित्सा सम्बन्धी चर्चा चलाई और पारस्परिक परामर्श के बाद यह निश्चय किया गया कि माँ को आरोग्य-निकेतन में ही भर्ती करा दिया जाए। माँ को भी प्राकृतिक चिकित्सा के लिए तैयार होना पड़ा, क्योंकि अब उनके पास कोई अन्य चारा रह भी नहीं गया था ।
अगले दिन मैं और पिताजी माँ को लेकर प्रातः काल ही आरोग्य-निकेतन पहुँच गए। डॉक्टर जोसेफ़ ने माँ की बीमारी में बड़ी रुचि दिखाई और उनकी बीमारी के सम्बन्ध में उनसे अनेक प्रश्न पूछे। इसके बाद डॉक्टर साहब ने माँ को आश्वस्त करते हुए कहा कि वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जायेंगी परन्तु एक शर्त है कि वे खान-पान सम्बन्धी विशेष परहेज करें। उन्हें चाय, कॉफ़ी, चीनी आदि के प्रयोग से बचना होगा। नमक उन्हें पूरी तरह छोड़ना होगा। पूड़ी-पराँठे, तली हुई और गरिष्ठ चीजें जैसे कचौड़ी, समोसे आदि उनके स्वास्थ्य की प्रबल शत्रु हैं। वे गेहूँ का दलिया, अंकुरित दालें और फलों के रस का ही अधिक प्रयोग करें। डॉक्टर साहब के खान-पान सम्बन्धी निर्देशों को सुनकर माँ की तो जान ही सूख गई। वे खाने-पीने की शौकीन हैं। तली-भुनी, चटपटी, मसालेदार सब्जियाँ, अचार, मुरब्बे और चटनी में तो उनकी जान बसती है
माता की सेवा
आरोग्य-निकेतन में पहले दिन उन्हें खाने के लिए उबली और फीकी गाजरें दी गईं। उस दिन वे भूखी-प्यासी पड़ी रहीं । उन्होंने वहाँ कुछ भी नहीं खाया । सन्ध्या के समय उन्होंने मुझसे कहकर चुपचाप बाजार से दो खस्ता कचौड़ी और दो समोसे मँगवा लिये, परन्तु संयोग की बात उसी समय डॉक्टर साहब भी उधर आ निकले। वे खस्ता कचौड़ी और समोसे देखकर आगबबूला हो उठे । उन्होंने दोनों दोने उठाकर बाहर सड़क पर फेंक दिये और माँ से कहा कि वे उन्हें जीवन-भर उस विष को नहीं खाने देंगे । दूसरे दिन संध्या के समय पिताजी माँ की कुशलता पूछने के लिए आरोग्य-निकेतन आए। उन्होंने माँ की कुशल-क्षेम पूछने के बाद मुझसे कहा कि मैं बाजार जाकर एक थर्मस में ताजे फलों का रस और कुछ सेब, सन्तरे और अनार माँ के लिए ले आऊँ । पर उपदेश कुशल बहुतेरे विषय पर मौलिक कहानी
पर उपदेश कुशल बहुतेरे को चरितार्थ
मैंने बाजार जाने के लिए विलियम से उसकी साइकिल माँगी तो वह भी मेरे साथ बाजार चलने को तैयार हो गया। थोड़ी ही देर में हम दोनों साइकिल पर सवार होकर बाजार की ओर चल दिये। बाजार पहुँचने पर उस समय मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, जब मैंने देखा कि नगर के सबसे प्रसिद्ध हलवाई की दुकान के सामने खड़े हुए डॉक्टर साहब एक दोने में खस्ता कचौड़ी और समोसे लिये हुए उन्हें चटकारे ले-लेकर खा रहे हैं। विलियम ने भी अपने पिता को देख लिया। हम दोनों चुपचाप फलवालों की दुकान की ओर बढ़ गये। फलवालों की दुकान पर पहुँचकर मैंने विलियम के कान में धीरे से कहा-डॉक्टर साहब ने तो 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया ।
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