धपेल उपन्यास की समीक्षा श्याम बिहारी श्यामल सच्चा भारत गाँव-देहात में ही बसता है, और इसी ग्रामीण समाज और उसकी जीवनशैली की छवि ही प्रकृत भारत की तस्वीर
धपेल उपन्यास की समीक्षा श्याम बिहारी श्यामल
वर्ष १९९३-९४ के पलामू अकाल -सूखा पर आधारित यह अत्यन्त मार्मिक उपन्यास ग्रामीणों एवं वनांचल में रहने वाले आदिवासियों की वेदना और शोचनीय स्थिति को दर्शाता है साथ ही अकर्मण्य, भ्रष्ट और नाम-प्रचार के लोभी राजनीतिक नेताओं पर करारा व्यंग्य भी करता है।
छोटा नागपुर अधित्यका पर अवस्थित, नदी-नालों से सिंचित यह क्षेत्र,रांची- हज़ारीबाग पठारांचल के पवनविमुखी क्षेत्र में पड़ता है।इस भौगोलिक विशेषता के कारण ही पलामू का यह वृष्टि-छाया अंचल, कोयल, पुनपुन, औरंगा आदि नदियों से सिंचित होते हुए भी प्रायः ही सूखे और अकाल की चपेट में आ जाता है । परन्तु यह अभिशप्त भूगोल ही इस दुर्भिक्ष का एकमात्र कारण नहीं । वर्षों के अवैध उत्खनन और अवैध वनोन्मूलन ने यहाँ की कई पहाड़ियों को नष्ट किया है, वनभूमि,वनसम्पदा और वन्यप्राणियों का ह्रास हुआ है और नदियों की धाराओं को गाद और रेत से अवरुद्ध कर दिया गया है ।'धपेलों' ने यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को अनवरत लूटा है और साथ ही साथ यहाँ के सीधे-सादे अशिक्षित ग्रामीणों और आदिवासीवृन्द को भी इन ठगों ने जमकर लूटा है ।
लेखक ने अपनी इस कृति में इस तथ्य को पूर्ण रूप से स्पष्ट किया है ।
"वर्षों-वर्षों से यहाँ किसिम-किसिम के धपेलों का प्रकोप है जो विभिन्न क्षेत्रों की ऊर्जा और उसके स्रोतों को चाटते- सुड़कते जा रहे हैं ।चाहे यहाँ का जंगल हो, या यहाँ की खेती हो या यहाँ के खनिज स्रोत,धपेल सभी क्षेत्रों में हावी हैं। वे पी जाते हैं यहाँ की तमाम नदियों और सभी नालों का पानी। वे चबा जाते हैं यहाँ का जंगल और चाट जाते हैं नरम - मुलायम हरियाली को। वे ही पी जाते हैं यहाँ की धरती की निकालकर खनिज सम्पदाएँ ।इस धरती के रस को उन्होनें ही सोखा है, वे ही पोसते-पालते हैं अकाल और सूखे का राक्षस, जिससे करते हैं अपनी लक्ष्य सिद्धि ।" (पृष्ठ ११९ )
उपन्यास का मुख्य पात्र, घनश्याम तिवारी, घनु बाबू, लगभग एक दशक बाद गाज़ियाबाद से अपनी जन्मभूमि, डाल्टनगंज लौटते हैं । इस एक दशक में डालटनगंज में इतना परिवर्तन आ चुका है कि घनु बाबू अतीत और वर्त्तमान में सामनजस्य रखने में प्रायः असफल हो जाते ।
छात्र जीवन में ही घनश्याम तिवारी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्पर्श में आ चुके थे, कम्युनिस्ट विचारधारा ने उन्हें प्रभावित भी किया था ।यौवन के प्रथम सोपान में वह कामरेड सूर्यभूषण सहाय, यानी मास्टर जी के शिष्य भी बन गए थे और उनके नेतृत्व में अपने साथियों के साथ दूरस्थ ग्रामांचलों और आदिवासी अध्यासित क्षेत्रों के कई दौरे भी किए थे। शनै: शनै: घनश्याम तिवारी मास्टर साहब के दाहिने हाथ बन गए । "गाँवों में धूल फांकते फिरने वालों से सबसे आगे रहना वाला लड़का " (पृष्ठ २८३) विवाहोपरान्त ऐसा बदला कि विगत दस-बारह वर्षों में उन्होंने कभी भी अपनी जन्मभूमि में पदार्पण ही नहीं किया । उनकी जीवन शैली की पूर्ण कायापलट हो गई थी । वह अपने श्वसुरालय, गाज़ियाबाद, में ही रह गए और वहीं अपनी वकालती और गृहस्थी में व्यस्त हो गए ।
पलामू के अकाल दुर्भिक्ष के समाचारों से उन्हें झकझोर कर रख दिया । आत्मकेन्द्रिक और पूर्ण निश्चिन्त जीवन व्यतीत करने वाले घनु बाबू का अन्तस भी शायद उनकी इस जीवनशैली के विरुद्ध विद्रोही बन उठा था, सुप्त वामपंथी भावनाएं भी तरंगायित होने लगी थी और अंततः उनको अपनी जन्मभूमि आना ही पड़ा ।
परन्तु इन दस - बारह वर्षों में डालटनगंज की भी कायापलट चुकी थी - कोयल नदी क्षीणकाया हो गई थी और घनु बाबू के आदर्श, पलामू के ग्रामांचलों में क्रान्ति की मशाल जलाने वाले व्याघ्र विक्रम पौरुषयुक्त मास्टरजी भी अब अचेतन अवस्थ्य में अपनी मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए थे ।
कम्युनिस्ट विचारधारा वाले मास्टर जी कभी अपने शिष्यों से कहा करते -" धर्मभीरु जनता से पहले धार्मिक कट्टरता और अंधापन छीनो , 'राम चरित मानस' ले लो , तो तुरंत 'राम की शक्तिपूजा ' तमसा भी दो, ताकि फिर वह पहले वाले के पीछे न भागे । ऐसा कर के तुम्नसे उनसे सैकड़ों साल की जहर पिलाई हुयी ब्राह्मणवाद की चमचमाती कतार बहुत आसानी से मांग ली , कि जिसके लिए तुम्हें काफी बड़ा युद्ध भी छेड़ना पद सकता था और बहुत आहिस्ते से तुमने निराला की दुर्द्धर्ष और पराक्रमी विद्रोही मशाल भी पकड़ा दी " (पृष्ठ ३४)
विकल, व्यथित हृदय घनु बाबू, डॉ मिश्र और उनके सुपुत्र अरुण और गाड़ी-चालक सुन्नर के साथ पलामू के ग्रामों और वनांचल की परिस्थिति का जायज़ा लेने निकल पड़े । उन्हीं के माध्यम से लेखक ने पलामू अकाल का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया है । दुर्भिक्ष की भयावह स्थिति का सटीक चित्रण कर पाठकवर्ग को पलामू की वास्तविक स्थिति से परिचित कराया है ।
"देखिये आप लोग ! कितनी भयावह स्थिति है । एक बूढ़ा आदमी और एक गाय दोनों आस पास गिरे मरे पड़े हैं। दोनों , लगता है , चारों ओर से भटककर यहां पानी की तलाश में ही पहुंचे थे। यहां एक नाला बहता था, जो अब रेत पठार में तब्दील हो चुका है !" (पृष्ठ १४४)
इस यात्रा के दौरान, घनु बाबू, प्रायः ही स्मृति रोमन्थन करते हुए अपने अतीत जीवन में पहुँच जाते । उन्हें अपने कॉमरेड साथी याद आते , याते आतें गिरिजा, जो उन सभी के अधिनायक थे ,दल के इस युवा मोर्चे का नेतृत्व करते थे। गिरिजा, पलामू क्षेत्र के प्रसिद्ध स्वाधीनता संग्रामी, जगबीर महतो के पुत्र थे, जिनका नाम 'पलामू के इतिहास ' में भी उल्लिखित है । इस अकाल दुर्भिक्ष में इसी स्वाधीनता सेनानी ,जगबीर महतो की पुत्री, मुनिया, को फटेहाल वस्त्रों से अपने शरीर को ढकते हुए , जंगल में कंदमूल एकत्रित करते हुए देखकर घनु बाबू का अंतस्तल रो पड़ा । जब जगदीश महतो के घर पहुंचे तो अपने पुराने साथी और मित्र गिरिजा को देख वह भयभीत हो गए .....नग्न, जीर्ण, जर्जर शरीर ,केवल एक मैले वस्त्र से लज्जास्थान आवृत किये हुए कंकाल प्राय आकृति । वृद्ध,जर्जर महतो जी भी अर्द्धचेतन अवस्था में शैय्या पर लेटे कराह रहे थे । इस वीभत्स दृश्य को देख सभी सहम गए । प्राथमिक सुश्रूषा उपरांत जब महतो जी ने संज्ञालाभ की तब घनु बाबू ने उनके पूरे परिवार को डालटनगंज ले चलने का निर्णय किया परन्तु उस दृढ़संकल्पी वृद्ध ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया
" नहीं ! हमारे साथ के लोगों में कितनों के बाल बच्चे और अन्य इस भूख में यहां मर चुके हैं । इस गाँव से रोज़ एक न एक लाश निकलती जा रही है । मैं इस स्थिति से अकेले भागने को कायरता मानूंगा ।ये लोग हमारे सिपाही रहे हैं ......" (पृष्ठ २४९)
चेरो आदिवासी, धनुकधारी सिंह की मर्मान्तक कथा भी पाठकों को स्तंभित कर देती है । अभयारण्य के चौकीदार की अस्थायी नौकरी, वेतन भी पूरा नहीं मिलता था, आत्मरक्षा के लिए बन्दूक या अन्य हथियार की भी कोई सुविधा नहीं .......वह नौ दिनों तक संपूर्ण वनांचल में भटकता रहा , बाघिन के नवजात शावकों की खोज में । फॉरेस्टर साहब का आदेश जो था, वही फॉरेस्टर साहब जो उसके वेतन का एकांश स्वयं खा जाते । बाघिन के चार शावक तो सुरक्षित मिले परन्तु नौ दिवसोपरांत जब धनुकधारी घर पहुँचा तो अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को मृत पड़े हुए देखा ......क्षुधा तृष्णा से तड़प तड़प कर तीनों के प्राणपखेरु उड़ गए थे । शोक संताप और अत्यधिक शारीरिक श्रम से पीड़ित धनुकधारी भी वहीं अचेत हो भूपतित हुआ । घनु बाबू और उनके साथियों ने धनुकधारी सिंह को अचेतन अवस्था में ही पाया ।
तभी वहाँ पर पूर्व पंचायत सेवक रहे , सरकारी अधिकारी आ पहुँचते हैं और सभी से प्रश्न करते हैं - " इसी गाँव में न आज दो बच्चों और एक औरत की अज्ञात बीमारी से मौत हुयी है ? वह औरत और बच्चे किस घर के थे ?"
छल, कपट और पाखण्ड का यह कैसा नग्न नाच ?सरकार, बहुत ही चालाकी से किसी 'अज्ञात बीमारी ' की यवनिका के पीछे अकाल और भुखमरी की सच्चाई को छिपाने का पूर्ण प्रयास कर रही थी । केवल सम्पूर्ण राज्य को सूखा प्रदेश घोषित कर दिया गया था , जिससे कि केंद्रीय सरकार से आकर्षक आर्थिक सहायता प्राप्ति की संभावना बनी रहे। केवल इतना ही नहीं सभी सरकारी अस्पतालों एवं स्वास्थ्य केंद्रों में भी "अज्ञात बीमारी" के तथ्य की ही पुष्टि की जा रही थी । अनाहार से जहाँ लोग मर रहे थे, वहाँ यह पाखंडियों का दल 'अज्ञात बीमारी ' के तथ्य पर ज़ोर दे रहा था ।
स्मृतिचारण करते घनु बाबू के माध्यम से लेखक ने पलामू की ७० -८० के दशकों की शोचनीय स्थिति का भी वर्णन किया है और सुदूर ग्रामांचलों में फैली बंधुआ श्रमिक प्रथा को भी दर्शाया है । इन्हीं बंधुआ श्रमिकों की स्थिति को जानने समझने और उनके उद्धार हेतु गिरिजा के नेतृत्व में कभी घनु बाबू और उनके अन्य साथियों ने गाँव-गाँव के दौरे किए थे । ये ग्रामीण श्रमिक पीढ़ी दर पीढ़ी अपने मालिक के घर में गुलामी करते , फिर भी अपने पूर्वजों द्वारा लिए गए अदृश्य क़र्ज़ से उऋण न हो पाते , क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी ऋण बढ़ता ही जाता । इनसे पशु जैसा आचरण किया जाता । स्थानीय पुलिस अधिकारियों की भी इन महाजनों और सेठों से मिलीभगत रहती अतः न्याय विचार की कोई आशा ही नहीं थी ।
एक बंधुआ मज़दूर की मुँहज़बानी " एक बार भुनसेरा अउर भुनसेरा बहू दूनो खरिहान से उठके डाल्टनगंज भाग गईल हलन सब , ता ओकरेन पर चोरी के मुकदिमा डलवा के मउवार सहेबवा पुलिस से पकड़वाइलक अउर आपन घरे मंगवा के दरोगा जी की सामने अपने हाथें बेंट से रात भर सोंटलक ! भुनसेराबहू के छाती पर जूता पहले चढ़कर अइसे अहँड़ देलक कि बेचारी उहिं पेट के बच्चा के साथ साथ अपनहुँ मर ही गईलक " (पृष्ठ २०८ )
इस उपन्यास में एक और बहुत महत्त्पूर्ण बात सामने आती है......राजनीतिक नेतागण हो या उनके दल के छुटभैय्ये हो, सेठ, साहूकार बनिए हो या धर्म के पाखंडी ठेकेदार- सभी इस अकाल-दुर्भिक्ष -भुखमरी को अपनी लक्ष्यसिद्धि हेतु प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे । एक ओर सरकारी आधिकारिक अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में वास्तविक स्थिति को छिपाने का पूर्ण प्रयास कर रहे थे तो दूसरी ओर कई सेठ और बनिए राजनीतिक नेताओं के निरापद आश्रय में रहकर राहत सामग्री की लूट और उसके आवंटन में हेरा फेरी करने में अपनी सिद्धहस्त्ता प्रमाणित कर रहे थे ।उधर, कई धार्मिक संस्थाएं सहायतार्थ खाने पीने की सामग्री बांटने तो आ पहुँची थी परन्तु धीरे-धीरे इन ये संस्थाएँ निरीह आदिवासियों को बहला फुसलाकर धर्मांतरण के लिए प्रेरित करतीं ....यह कार्य लगभग दो दशक पहले से ही बहुत ही सावधानी से चल रहा था , तभी तो ९० के दशक तक कई आदिवासीवृन्द ईसाई धर्मावलम्बी हो चुके थे। अर्थात सबल और उच्चपदासीन, इस अकाल और भुखमरी का पूरा फायदा उठा रहे थे । मानो यह सम्पूर्ण मृत्यु-उपत्यका इन गृद्धों और शकुनों की कुदृष्टि से और अधिक काली और भयनाक होती जा रही हो । महत्त्पूर्ण बात यह भी है कि पलामू अकाल का समयकाल (१९९३-९४) ऐसा था जब देश भर में मंदिर मस्जिद का मुद्दा ही मुख्य हो उठा था, बाकी सब गौण । एक ओर कुछ पाखंडी और स्वार्थी जाति-धरम की बीन-बजा कर हिंसा की नागिन को भड़काने का कार्य कर रहे थे तो दूसरी ओर पलामू के ग्रामीण और आदिवासीवृन्द अनाहार से मर रहे थे ।
इस उपन्यास में लेखक ने स्वातंत्र्योत्तर काल में जन साधारण के मोह भंग का भी उल्लेख किया है । स्वातंत्र्यपूर्व काल में साधारण जनता ने जो सपने देखे थे, जो आश्वासन उन्हें दिए गए थे वे सब किसी बालुका दुर्ग की भाँति ढह गए । गांधीवाद और गांधी जी के आदर्श केवल पुस्तकों तक ही सीमित हो कर रह गए और राजनीति को अर्थ और बाहुबल के राहु ने पूर्ण ग्रास कर लिया, घोर अर्थवाद का युग जो ठहरा । लेखक ने इस तथ्य को स्वाधीनता सेनानी , जगबीर महतो और उनके परिवार के माध्यम से और भी पुष्ट किया है ।नेताजी के आज़ाद हिंद फ़ौज में उनके सहयोगी रहे, जगवीर महतो को निरुपाय होकर उपार्जन हेतु चाय की दूकान खोलनी पड़ी , इसी दुकान से उनकी जीविका चलती । उन्हीं के पुत्र, गिरिजा महतो को खाद्य सामग्री के आवंटन कार्य में हुए हेरा-फेरी के विरुद्ध आवाज़ उठाने और दोषी व्यक्ति पर प्राणघाती हमला करने के लिए पुलिस ने कारागार में डाल दिया था । तभी तो लेखक ने वृद्ध स्वाधीनता संग्रामी, महतो जी से कहलवाया है - "आज़ादी गाँवों की गरीब -गुरबा जनता और पलामू जैसी शापित धरती को कहाँ मयस्सर हुई ? आज़ादी का सौवाँ हिस्सा भी यहां कहीं कण जैसा चमकता दिख रहा है ? एकदम वह पागल सपना था , जो हमने आज़ादी पाने के मुगालते में देख लिया था ! कितनी-कितनी यातना ! कितनी-कितनी जद्दोजहद ! कैसी-कैसी कुर्बानियां !" (पृष्ठ २३६)
लेखक ने उपन्यास में कई इंगितपूर्ण मंतव्य भी किए हैं,जैसे - " जिन लोगों ने आज़ादी मिलते ही सबसे पहले गांधी जी को मार गिरवाया , क्या वे अंग्रेज़ों से ज़रा भी काम थे ? क्या वह जीवित नेताजी को देखकर चुप रहते ? " (पृष्ठ २३५) और "कल के बनिए रामनामी ओढ़े-ओढ़े आज अरबपति बनकर देश समाज के शत्रु नहीं साबित हुए हैं ? " (पृष्ठ २३५)
उपन्यास में लेखक ने पलामू के इतिहास पर भी प्रकाश डाला है । पलामू किले का इतिहास, चेरो जनजाति के मेदिनियाँ राजवंश के स्वर्णिम काल की कुछ कथाएं तथा चेरो राजवंश के साथ फिरंगियों का युद्ध, राजकुल की वीरगाथा और राजवंश का पतन । इन सब का संक्षिप्त उल्लेख किया है लेखक ने वृद्धा मोहना की दादी की रोचक पाराम्परिक वाचिकशिल्प प्रतिभा के माध्यम से जिससे यह उपन्यास और अधिक पठनीय बन जाता है ।
पलामू, वहाँ की पहाड़ियाँ या बेतला के वनांचल के बारे में हिंदी साहित्य में अधिक नहीं लिखा गया है । हालांकि बांग्ला साहित्य में महाश्वेता देवी जी ने इस साल-पियाल से भरी वनभूमि और यहां के आदिवासियों पर बहुत लिखा है । श्री सुनील गंगोपाध्याय की पुस्तक "अरण्येर दिन रात्रि" भी इसी क्षेत्र पर आधारित है ।'धपेल' को पढ़ते हुए कई बार मुझे श्री विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास "आरण्यक" की भी याद आ जाती ।
यद्यपि यह उपन्यास पलामू क्षेत्र की ही कथा कहता है तथापि इसकी प्रासंगिकता विस्तृत है क्योंकि इसमें भारतीय गाँवों की सच्ची छवि दिखाई गयी है - यही दर्पण है भारत का । भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण (Indian Economic Survey ),२०२१ के अनुसार हमारे देश की लगभग ६५ % जनसंख्या गाँव और देहातों (रूरल एरिया) में बसती है। मेरे राज्य, पश्चिम बंगाल, की भी यही स्तिथि है( लगभग ६५-६७ % आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में ही रहती है)। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सच्चा भारत गाँव-देहात में ही बसता है, और इसी ग्रामीण समाज और उसकी जीवनशैली की छवि ही प्रकृत भारत की तस्वीर है।
धपेल - श्याम बिहारी श्यामल
राजकमल प्रकाशन
(१९९८ में प्रकाशित )
राजकमल पेपरबैक्स में प्रथम संस्करण : २०२३
पृष्ठ : २९६
मूल्य : २५०/-
ISBN : 978-81-19159-76-5
अभिषेक मुखर्जी
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पश्चिम बंगाल
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