अपराध के लिए मृत्युदंड अनिवार्य है पक्ष या विपक्ष में विचार apradh ki samapti ke liye mrityudand avashyak hai मृत्युदण्ड को बदलकर आजीवन कारावास कर दिय
अपराध समाप्ति के लिए मृत्युदण्ड आवश्यक है
अपराध के लिए मृत्युदंड अनिवार्य है पक्ष या विपक्ष में विचार स्पष्ट कीजिए संसार के सामने आज यह अहम प्रश्न है - क्या अपराध समाप्ति के लिए मृत्युदण्ड आवश्यक है ? इस विषय पर निरन्तर विचार एवं शोध चल रहे हैं, पर अभी कुछ निर्णय नहीं हो सका है। मानव आयोग तो इस बर्बर कृत्य के लिए आवाज उठा रहा है कि ऐसा दण्ड बन्द कर इसे आजीवन कारावास में बदल देना चाहिए। देश के कानून के अनुसार मृत्युदण्ड आवश्यक है। विदेशों में भी निश्चित रूप से मृत्युदण्ड दिया जा रहा है। मृत्युदण्ड की व्यवस्था प्राचीन काल से ही प्रचलित है। किसी जघन्य अपराध के लिए ही मृत्युदण्ड दिया जाता है।
कानून में भी यह व्यवस्था है कि किसी निरपराध को किसी प्रकार का दण्ड न मिले। मैं अपने विचार इस उक्ति के विपक्ष में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यद्यपि रहीम जी ने भी दुष्टों के प्रति कठोर दण्ड देने की वकालत इस दोहे में की है -
'रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।"
राजा-महाराजाओं के समय में भी यही होता था कि किसी बात पर राजा नाराज हो गया ते तुरन्त मृत्युदण्ड की आज्ञा दे देता था, लेकिन यह कितना अमानुषिक था। आज के सभ्य समाज में ऐसा दण्ड अशोभनीय है। क्रोधवश अपराध हो जाता है, लेकिन बाद में अपराधी को पश्चाताप होता हे। क्रोध बुद्धि का विनाश कर देता है। ईसा मसीह ने जब देखा कि एक अपराधिन स्त्री को जनसमूह पत्थर मार रहा है, तो उन्होंने उसे बचाया और कहा कि सबसे पहले वह व्यक्ति पत्थर मारे जिसने कभी कोई अपराध न किया हो। उनकी इस बात को सुनकर सभी के पत्थर उनके हाथों में ही रह गए। आज भी शिक्षित वर्ग यह नहीं चाहता कि मृत्युदण्ड चलता रहे। पहले की अपेक्षा अब कम ही निर्णय मृत्युदण्ड के सामने आते हैं। धार्मिक पक्ष को लें तो जन्म-मरण सब ईश्वर के हाथ में है। तुलसीदास जी के अनुसार-
"हानि लाभ जीवन-मरण जस अपजस विधि हाथ। "
इसका मतलब यह हुआ कि मनुष्य कर्त्ता नहीं है। पूर्वकृत कर्मों के अनुसार मनुष्य इस जन्म में कार्य करने को बाध्य होता है। भगवान कृष्ण ने तो गीता में यह कहा है-
"य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते । ।"
अर्थात् जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा न तो किसी को मारती है और न किसी के द्वारा मारी जाती है। इस मत से तो अपराध ही सिद्ध नहीं होता, लेकिन भगवान कृष्ण ने तो केवल आत्मा के बारे में कहा है क्योंकि आत्मा किसी भी कर्म से निर्लिप्त है। प्रभु ईसा मसीह और महात्मा गाँधी के विचारानुसार तो यह बात निकल कर आती है कि "पाप से घृणा करो पापी से नहीं।" बाल्यावस्था में कोई जघन्य अपराध हो जाता है तो बाल्य कारागार में उन्हें सुधरने का अवसर दिया जाता है। यदि मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाय तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है। कुछ लोगों का यह मत है कि मृत्युदण्ड समाप्त कर देने से अपराध वृत्ति बढ़ेगी। तो क्या आज मृत्युदण्ड के रहते हुए भी अपराध प्रवृत्ति कम हो रही है ? अपराध तो पहले भी होते रहे हैं ।
महाभारत की एक कथा के अनुसार अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों के वध के बाद भीम उसे पकड़कर द्रौपदी के पास लेकर आये और कहा कि इस अपराधी को दण्ड दो। इस पर द्रौपदी ने विह्वल होकर यह कहा कि इसके मारने से मेरे पुत्र तो जीवित नहीं हो जायेंगे। यह कहकर उसे क्षमा कर दिया। अर्जुन ने उसके मस्तक की मणि निकाल कर उसके प्राण क्षमा कर दिए।
दास प्रथा की एक कहानी के अनुसार दास एण्ड्रोक्लीज अपने मालिक के घर से भागकर जंगल में चला गया था। उन दिनों दासों के भाग जाने पर मृत्युदण्ड दिया जाता था। वन में एण्ड्रोक्लीज ने एक शेर के पंजे में घुसे हुए काँटे को निकालकर उसे कृतज्ञ किया था और कुछ दिन उसके पास रहकर उसके लिए शिकार भी किया। कालान्तर में एण्ड्रोक्लीज पकड़ा गया और तत्कालीन राजा ने उसे भूखे शेर के सामने डाले जाने की सजा सुनाई। सभी प्रजाजनों के सामने एक मैदान में शेर को छोड़ दिया गया और एण्ड्रोक्लीज को भी उसी मैदान में फेंक दिया गया। सभी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह शेर एण्ड्रोक्लीज पर हमला न कर उसके पैर चाटने लगा। वह शेर वही था जिसका काँटा एण्ड्रोक्लीज ने निकाला था। पशु भी अपने ऊपर किये गये उपकार को नहीं भूलता। राजा ने कारण जानकर एण्ड्रोक्लीज को क्षमा कर दिया। क्षमादान सबसे बड़ा दान है। क्षमा उसी को शोभा देती है जिसके पास बल हो -
'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।"
निष्कर्षतः मृत्युदण्ड को बदलकर आजीवन कारावास कर दिया जाय तो सभी लोग इसका स्वागत करेंगे।
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