बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरा है बिहारी के दोहे हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं गागर में सागर भरने वाले कवि बिहारी के दोहे प्रेम विरह
बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरा है
बिहारी के दोहे हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि उनके रचनाकाल में थे। वे हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने और उसे बेहतर तरीके से जीने की प्रेरणा देते हैं।बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भरा है। इसका अर्थ है कि उन्होंने बहुत ही कम शब्दों में बड़ी बातें कही हैं। बिहारी के दोहे अत्यंत संक्षिप्त होते हैं, लेकिन उनमें गहन भाव और विचार समाहित होते हैं। वे अपने दोहों में श्रृंगार, नीति, भक्ति, और समाज के विभिन्न पहलुओं पर विचार व्यक्त करते हैं।
मुक्तक काव्य का अर्थ है-ऐसा काव्य, जिसका प्रत्येक छन्द स्वतः पूर्ण और स्वतन्त्र हो अर्थात् प्रत्येक छन्द किसी एक भाव का पूर्णतः द्योतन कर सके और अपने अर्थ की पूर्णता के लिए किसी दूसरे छन्द से सम्बद्ध या उस पर निर्भर न हो। सफल मुक्तक काव्यकार कौन हो सकता है, इसके सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल लिखते हैं, “जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी अधिक होगी, मुक्तक-रचना में वह उतना ही सफल होगा।” इसका आशय यह है कि जो कवि एक बड़ी कल्पना को एक छोटे-से छन्द में समा सकेगा, वही श्रेष्ठ मुक्तककार होगा। इस दृष्टि से महाकवि बिहारीलाल हिन्दी के अद्वितीय मुक्तक काव्यकार हैं; क्योंकि उन्होंने दोहे जैसे छोटे-से छन्द में भाव का सागर लहरा दिया। उनके मुक्तक-काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
कल्पना की समाहार शक्ति
बिहारी की कल्पना शक्ति अत्यधिक प्रबुद्ध थी, इसी कारण उन्होंने अपने सीमित क्षेत्र में अनेकानेक. नए प्रसंगों की योजना द्वारा चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
जुवति जोन्ह में मिल गई, नेक न होत लखाय ।
सोंधे के डोरनि लगी, अली चली सँग जाय ॥
यह शुक्लाभिसारिका नायिका का चित्र है। वह प्रिय से मिलने के लिए पूर्णिमा की चाँदनी भरी रात में श्वेत रेशमी साड़ी पहने जा रही है। पीछे-पीछे कुछ दूरी पर उसकी सखी आ रही है। नायिका उस चाँदनी रात में ऐसी मिल गयी कि सखी को वह कहीं नहीं दिखायी देती। यह तो सौभाग्य से वह सुन्दरी सुगन्धित पुष्पहार धारण किये थी, जिससे निकलने वाली सुगन्ध का सहारा लेकर सखी उसके पीछे-पीछे जा सकी, अन्यथा वह अन्यत्र भटक जाती, उसका साथ न निभा पाती ।
बिहारी ने अपने दोहों में नायिका के चाँदनी में विलीन हो जाने के द्वारा कवि ने उस सुन्दरी की चन्द्रिका जैसी अंग-दीप्ति की अद्भुत व्यंजना की है। भाषा की समास-शक्ति-भाषा की समास-शक्ति का अर्थ है—-सीमित शब्दों (थोड़े-से शब्दों) में असीम अर्थ भर देना। बिहारी ऐसे ही कवि थे,इसी कारण वे दोहे-जैसे छोटे-से छन्द में अर्थ का असीम सागर समा सके। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु हीं सौं बात ॥
इसमें मार्मिक अनुभाव योजना द्वारा कवि ने प्रियजनों और परिजनों से भरे घर में नायक-नायिका का परस्पर पूरा वार्त्तालाप इस चमत्कारपूर्ण ढंग से करा दिया है कि किसी को रंचमात्र पता नहीं चलता। यह भरे घर में दिन-दहाड़े डकैती डालने जैसा कौशल है।
नूतन प्रसंगोद्भावना
बिहारी शृंगार के अन्तर्गत नये-नये प्रसंगों की उद्भावना (कल्पना) करने में बड़े कुशल हैं। इसी कारण उन्होंने संयोग श्रृंगार के न जाने कितने नये-नये चित्र प्रस्तुत किये हैं, किन्तु विशेषता यह है कि प्रत्येक चित्र सर्वथा नूतन और आकर्षक बन पड़ा है-
बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ ।
सौंह करै, भौंहनु हँसें, दैन कहैं नटि जाइ ॥
नायिका ने नायक (कृष्ण) की मुरली इसलिए छिपाकर रख ली है कि प्रिय से वार्तालाप एवं नोक-झोंक का रस लिया जा सके। तदनुसार दोनों के सांकेतिक वार्त्तालाप का एक बड़ा मनोरम चित्र कवि ने अंकित कर दिखाया है।
उक्ति वैचित्र्य
उक्ति वैचित्र्य का अर्थ है बात कहने के ढंग में वक्रता अर्थात् वाणी की चातुरी । बिहारी ने अपने दोहों में साधारण बात को भी इस प्रकार घुमाकर कहना कि सुनने वाला दंग रह जाए। बिहारी तो अतीव कल्पना-प्रवण समर्थ कवि थे, इसलिए उनमें इस गुण का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। उनकी 'सतसई' उक्ति वैचित्र्य के अनेक चमत्कारपूर्ण उदाहरणों से भरी पड़ी है। कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं-
भूषन भार सँभारिहै, क्यों यह तन सुकुमार ।
सूधे पाय न परत घर, सोभा ही के भार ।।
इसमें सौन्दर्य के भार से नायिका के लड़खड़ाकर चलने के कथन द्वारा कवि ने उसके अल्हड़पन और असीम सौन्दर्य की कैसी सुकुमार व्यंजना की है। उसका रूप तो इतना अधिक है कि उसे भूषणों की आवश्यकता ही क्या है? सचमुच सहज सौन्दर्य के सामने अलंकार जैसे कृत्रिम साधन फीके पड़ जाते हैं।
समस्त रस सामग्री का समावेश
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि महाकवि बिहारी ने अपने द्वारा चुने छोटे-से छन्द में रस के समस्त अवयवों की असाधारण कौशलपूर्वक मार्मिक व्यंजना कर दी है अर्थात् उन्होंने विभाव (आलम्बन विभाव के अन्तर्गत नायक-नायिका. का रूप वर्णन एवं उद्दीपन विभावान्तर्गत वातावरण का चित्रण), अनुभाव (आश्रय की आंगिक चेष्टाएँ, जिसके अन्तर्गत नायक-नायिका दोनों की आंगिक चेष्टाएँ आती हैं; क्योंकि उभयनिष्ठ प्रेम में दोनों एक-दूसरे के आलम्बन एवं आश्रय हैं), संचारी भाव (हाव, अभिलाषा गर्व, हर्ष, अमर्ष, स्मित आदि) तथा स्थायी भाव (रति) की बड़ी मनोरम अभिव्यक्ति की है।
निष्कर्ष
इस प्रकार बिहारी ने अपने दोहों में कल्पना की समाहार-शक्ति, भाषा की समास-शक्ति, उत्तरोत्तर नूतन प्रसंगों की उद्भावना की असाधारण क्षमता, वाग्वैदग्ध्य, रस-मर्मज्ञता एवं भाव-सुकुमारता ने बिहारी के दोहों को रस का सागर बना दिया है। यही कारण है कि 'बिहारी सतसई' को जैसी अद्भुत लोकप्रियता मिली उसका शतांश भी अन्य कवि न पा सके। मुक्तक-रचना के क्षेत्र में बिहारी सचमुच अप्रतिम हैं, एकच्छत्र सम्राट् के समान रसिकों के हृदय पर अविच्छिन्न राज्य कर रहे हैं। किसी कवि ने इसी कारण बिहारी के दोहों की प्रशंसा में निम्न दोहा लिखा है -
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥
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