मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएं Malik Muhammad Jaysi ki Kavyagat Visestayein सूफी काव्य धारा हिंदी साहित्य का इतिहास भक्ति काल महाकवि जायसी
मलिक मोहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएँ
मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएं Malik Muhammad Jaysi ki Kavyagat Visestayein सूफी काव्य धारा हिंदी साहित्य का इतिहास भक्ति काल महाकवि जायसी जायसी पद्मावत - मलिक मुहम्मद जायसी प्रेम की पीर के गायक के रूप में विख्यात हैं और हिन्दी के गौरव ग्रन्थ 'पद्मावत' नामक प्रबन्धकाव्य के रचयिता हैं। वे हिन्दी काव्य की निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के सर्वाधिक प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि हैं।
मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय
जायसी के अपने कथन के अनुसार उनका जन्म ९०० हिजरी (१४९२ ई०) में हुआ था : भा औतार मौर नौ सदी। (अखरावट, ४/१) जायसी का जन्म-स्थान रायबरेली जिले का जायस नामक स्थान था, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है— जायसनगर मौर अस्थानू । इसी कारण ये 'जायसी' कहलाए। उनके पिता का नाम शेख ममरेज था। इनके माता-पिता की मृत्यु इनके बचपन में ही हो गयी थी। फलतः ये फकीरों और साधुओं के साथ रहने लगे। जायसी का व्यक्तित्व आकर्षक न था। इनके बायें कान की श्रवण शक्ति एवं बायीं आँख सम्भवतः चेचक से जाती रही थी, जिसका उल्लेख इन्होंने स्वयं 'पद्मावत' में किया है-मुहम्मद बाईं दिसि तजा, एक सरवन, एक आँखि । जायस में प्रसिद्ध है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गये। शेरशाह उनके भौंडे चेहरे पर हँस पड़ा। इस पर कवि ने बड़े शान्त भाव से पूछा 'मोही काँ हँससि, कि कोहरति ?' [ अर्थात् तू मुझ पर हँसा या उस कुम्हार (सृष्टिकर्ता ईश्वर) पर ?] इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर क्षमा माँगी । पर कवि का कण्ठस्वर बड़ा मीठा था और काव्य था 'प्रेम की पीर' से लबालब भरा। मुख की कुरूपता को जो देखकर हँसे थे, वे ही इस प्रेमकाव्य को सुनकर आँसू भर लाये-
जेईं मुख देखा तेई हँसा, सुना तो आये आँसु ।
कवि का आध्यात्मिक अनुभव बहुत बढ़ा चढ़ा था। सूफी मुसलमान फकीरों के अतिरिक्त कई सम्प्रदायों (जैसे- गोरखपंथी, रसायनी, वेदान्ती आदि) के हिन्दू साधुओं के सत्संग से उन्हें हठयोग, वेदान्त, रसायन आदि सम्बन्धी बहुत-सी जानकारी थी जो उनकी रचना में सन्निविष्ट है। इस सबके बावजूद उन्हें इस्लाम और पैगम्बर पर पूरी आस्था थी। जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य-परम्परा में थे । जायसी बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय में बड़े ही सिद्ध और पहुँचे हुए फकीर माने जाते थे। सच्चे भक्त का प्रधान गुण दैन्य उनमें भरपूर था। अमेठी के राजा रामसिंह इन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे ।
मृत्यु — जीवन के अन्तिम दिनों में वे अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। यहीं पर एक शिकारी की गोली से उनकी मृत्यु हो गयी । उनका निधन सन् १५४२ ई० में बताया जाता है। जायसी की कब्र अमेठी में राजा के कोट से लगभग एक किलोमीटर पर है ।
मलिक मुहम्मद जायसी की रचनाएँ
जायसी की तीन रचनाएँ प्रामाणिक रूप से उन्हीं की मानी जाती हैं। वे हैं—पद्मावत, अखरावट और आखिरी कलाम ।
पद्मावत
जायसी की कीर्ति का मुख्य आधार 'पद्मावत' नामक प्रबन्धकाव्य है, जो हिन्दी में अपने ढंग का अनोखा है। यह एक प्रेमाख्यानक काव्य है, जिसका पूर्वार्द्ध कल्पित और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक है। पूर्वार्द्ध में चितौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती की प्रेमगाथा है। सूफी सिद्धान्तानुसार कवि ने रत्नसेन को साधक और पद्मावती को ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया है। रत्नसेन अनेक बाधाओं को पार करता और कष्टों को सहता हुआ अन्त में पद्मावती को प्राप्त करता है। उत्तरार्द्ध में पद्मिनी और अलाउद्दीन वाली ऐतिहासिक गाथा है। इस भाग में पद्मावती ब्रह्म रूप में नहीं, प्रत्युत एक सामान्य नारी के रूप में प्रस्तुत की गयी है ।
आखिरी कलाम
यह रचना दोहे-चौपाइयों में और बहुत छोटी है। इनमें मरणोपरान्त जीव की दशा और कयामत (प्रलय) के अन्तिम न्याय आदि का वर्णन है।
अखरावट
इसमें वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर इस्लामी सिद्धान्त-सम्बन्धी कुछ बातें कही गयी हैं। ईश्वर, जाव, सृष्टि चित्ररेखा-यह प्रेमकाव्य है। इसमें कन्नौज के राजकुमार प्रीतम सिंह तथा चन्द्रपुर नरेश चन्द्रभानु की राजकुमारी चित्ररेखा की आदि से सम्बन्धित वर्णन है।
मलिक मोहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएँ
मलिक मोहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताएँ के अंतर्गत भाव पक्ष निम्नलिखित है -
रस योजना
'पद्मावत' प्रबन्धकाव्य होते हुए भी एक शृंगार-प्रधान प्रेमकाव्य है; अतः शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन इसमें मिलता है। यद्यपि अन्य रसों की भी योजना की गई है, परन्तु गौण रूप में ही। ये गौण रस हैं—करुणा, वात्सल्य, वीर, शान्त और अद्भुत ।
संयोग पक्ष
जायसी में संयोग-पक्ष का उतना विशद और विस्तृत चित्रण नहीं है, जितना वियोग-पक्ष का; क्योंकि संयोग-पक्ष से कवि के आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती थी। रहस्यवादी कवि होने के नाते उन्होंने रत्नसेन और पद्मावती को जीव और ब्रह्म का प्रतीक माना है। 'पद्मावत' में सूफी सिद्धान्त की दृष्टि से रत्नसेन और पद्मावती के संयोग-वर्णन को उन्होंने अधिक महत्त्व दिया है। संयोग के अन्तर्गत नवोढ़ा स्त्री की भावनाओं का कैसा सुन्दर चित्र निम्न पंक्तियों में मिलता है-
संयोग का एक मार्मिक स्थल यहाँ दशा का मार्मिक चित्र निम्न प्रकार है-
हौं बौरी औ दुलहिन, पीउ तरुन सह तेज ।
ना जानौं कस होइहिं चढ़त कंत के सेज ॥
आता है, जहाँ पद्मावती से बिछुड़ने के बाद रत्नसेन की उससे भेंट होती है। उस समय की -
पाँइ परी धनि पीउ के, नैनन सों रज भेंटि ।
अचरज भयउ सबन कहँ, भइ ससि कँवलहिं भेंटि ॥
ये संयोग के कुछ स्वाभाविक चित्र हैं, किन्तु विवाह के बाद रत्नसेन और पद्मावती से मिलन का कवि ने जो वर्णन किया है उसमें उत्तान श्रृंगार भी काफी मिलता है।
विरह वर्णन
जायसी का विरह-वर्णन अद्वितीय है। नागमती और पद्मावती दोनों के विरह-चित्र हमें पद्मावती से मिलते हैं। यद्यपि इस वर्णन में अत्युक्तियों का सहारा भी लिया गया है, पर उसमें जो वेदना की तीव्रता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। विरह में पद्मावती की दशा द्रष्टव्य है-
कँवल सूख पँखुरी बिहरानी, गलि गलि कै मिलि छार हैरानी ।
हिए विरह होइ चढ़ा पहारू, चल जोवन सहि सकै न भारू ॥
नागमती का वियोग वर्णन भी अनुपम है, ऐसा वियोग वर्णन हिन्दी-साहित्य में दुर्लभ है। उसका एक-एक पद विरह का अगाध सागर है। नागमती पति के प्रवासी होने पर बहुत दुःखी है। वह सोचती है कि वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जिनके पति उनके पास हैं-
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कन्त पियारा बाहिरे, हम सुख भूला सर्ब ।
आध्यात्मिक भावना
पद्मावत और रत्नसेन की इस प्रेम-कहानी को जायसी ने सूफियों की पारमार्थिक भावना का रूप दिया है। लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की गयी है।
मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा ।
कहा कि हम कहु और न सूझा ॥
रहस्यवाद
कविवर जायसी ने अपने पद्मावत महाकाव्य में लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम का चित्रण किया है। पद्मावत में अनेक स्थल ऐसे हैं जहाँ लौकिक पक्ष से अलौकिक की ओर संकेत किया है।
नागमती का हृदयद्रावक सन्देश निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य है-
पिउ सौ कहेउ सँदेसड़ा हे भौरा हे काग
सो धनि बरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।
इस प्रकार नागमती का विरह-वर्णन स्वाभाविक, मर्मस्पर्शी और वेदना की अनुभूति से पूर्ण है।
करुण रस
श्रृंगार के उपरान्त करुण रस का जायसी ने विशेष वर्णन किया है। करुणा का प्रथम दृश्य वहाँ आता है, जहाँ रत्नसेन योगी बनकर घर से निकलने लगता है और उसकी माता तथा पत्नी विलाप करती हुई उसे समझाती हैं-
रोवत माय न बहुरत बारा, रतन चला, घर भा अँधियारा।
रोवहिं रानी तजहिं पराना, नोचहिं बार, करहिं खरिहाना ||
वात्सल्य रसवात्सल्य का वर्णन वहाँ हुआ है, जहाँ रत्नसेन के योगी बनकर चले जाने पर उसकी माँ का हृदय पुत्र-प्रेम से विह्वल हो उठता है-
कैसे धूप सहब बिन छाँहा, कैसे नींद परहि भुँइ माहाँ।
शान्त रस का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है। अध्यात्मपरक काव्य में ऐसा होना स्वाभाविक ही है। वीर रस के प्रसंग में वीभत्स की भी पंक्तियाँ आ गयी हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पद्मावत में शृंगार, वीर और करुण-रस का ही परिपाक विशेष रूप से हुआ है, शेष रस गौण रूप में ही समाविष्ट हैं।
भावपक्ष के उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि जायसी वास्तव में रससिद्ध कवि हैं।
जायसी का कलापक्ष
भावपक्ष के साथ ही जायसी का कलापक्ष भी पुष्ट, परिमार्जित और प्रांजल है।
छन्दोविधान
जायसी ने अपने काव्य के लिए दोहा-चौपाई की पद्धति चुनी है। इस पद्धति में कवि ने चौपाई की सात-सात पंक्तियों के बाद एक-एक दोहे का क्रम रखा है, जबकि तुलसी ने आठ-आठ पंक्तियों के बाद दोहे का क्रम रखा है।
भाषा
जायसी की भाषा ठेठ अवधी है। उसमें बोलचाल की अवधी का माधुर्य पाया जाता है। उसमें शहद की सहज मिठास है, मिश्री का परिमार्जित स्वाद नहीं। कहीं-कहीं शब्दों को तोड़-मरोड़ दिया गया है और कहीं एक ही भाव या वाक्य कई स्थानों पर प्रयुक्त होने के कारण पुनरुक्ति दोष भी आ गया है।
अलंकार
अलंकारों का प्रयोग जायसी ने काव्य-प्रभाव एवं सौन्दर्य के उत्कर्ष के लिए ही किया है, चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नहीं । उनके काव्य में सादृश्यमूलक अलंकारों की प्रचुरता है। आषाढ़ के महीने के धन-गर्जन को विरहरूपी राजा के युद्ध-घोष के रूप में प्रस्तुत करते हुए बिजली में तलवार का और वर्षा की बूँदों में बाणों की कल्पना कर कितना सुन्दर रूपक बाँधा गया है-
खड्ग बीजु चमकै चहुँ ओरा ।
बुंद बान बरसहिं घन घोरा ॥
यहाँ रूपक के साथ अनुप्रास का भी सुन्दर एवं कलात्मक प्रयोग हुआ है।
प्रकृति चित्रण
मानव-प्रकृति के चित्रण के अतिरिक्त जायसी ने बाह्य दृश्यों का चित्रण भी बहुत सुन्दर किया है। यद्यपि उनके काव्य में प्रकृति का आलंबन-रूप में चित्रण नहीं मिलता, पर उद्दीपन और अलंकारों के रूप में प्रकृति के अनेक रम्य चित्र उपलब्ध होते हैं। महाकाव्यत्व'पद्मावत' में महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान् हैं। प्रबन्ध-पटुता, सम्बन्ध-निर्वाह आदि की दृष्टि से वह एक महाकाव्य माना जा सकता है, यद्यपि इसकी रचना भारतीय महाकाव्य-पद्धति पर न होकर फारसी मसनबी शैली पर हुई है।
निष्कर्ष - इस प्रकार भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों की दृष्टि से विचार करके यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि जायसी उसी श्रेणी के कवि हैं, जिसमें सूर और तुलसी की गणना होती है। यद्यपि तुलसी के समान जीवन की विविधता के दर्शन जायसी में नहीं होते तथापि सामाजिकता का उन्होंने परित्याग नहीं किया। तुलसी के 'रामचरितमानस' के पश्चात् 'पद्मावत' ही हिन्दी का श्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है।
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