प्रकृति मानव की प्रथम शिक्षक है प्रकृति मानव की प्रथम शिक्षक है प्रकृति मनुष्य की मित्र है निबंध मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद प्रकृति मानव का संबंध
प्रकृति मानव की प्रथम शिक्षक है
प्रकृति मानव की प्रथम शिक्षक है प्रकृति मनुष्य की मित्र है निबंध मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में ही हुआ। आदिकाल से ही मानव प्रकृति में ही पला है और बड़ा हुआ है। मनुष्य में दयाभावना, प्रसन्नता, परोपकारी प्रवृत्ति और दूसरे को सुख देकर खुश होने की भावना प्रकृति को विलोक कर ही आई है। वनों में रहकर ही उसने आग जलाना, घर बनाना, खेती करना, वस्त्र पहनना और पहिए का निर्माण करना सीखा। जो सुख-सुविधाएँ आज हैं उनकी तो आदिकाल में कल्पना भी नहीं की थी। समय पर अपना हर काम करना और अपने कर्त्तव्य का पालन करना मानव ने प्रकृति से ही सीखा। वृक्ष और नदी से परोपकार करना सीखा। उदाहरण से यह बात ज्ञात होती है-
"वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखें नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारनै साधुन धरा शरीर ।।"
प्रकृति की ममतामयी गोद में ही मनुष्य अपनी आँखें खोलता है। हमारे देश में प्रकृति का वातावरण बड़ा ही रमणीक एवं अनुपम है। प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य हमारे मन को बरबस ही मोह लेता है। प्रकृति की रम्यता चारों ओर उमड़ती-सी दिखाई देती है। प्रकृति में बाल रवि के उदित होते ही अँधेरा अपना रास्ता ढूँढ़ना शुरू कर देता है। कविवर हरिऔध का शब्द चित्र देखिए-
"हुआ बालरवि उदित, कनक-नभ किरणें फूटीं ।
भरित तिमिर पर, परम प्रभातमय बन कर फूटीं । ।
जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली।
खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की, मंजुल थैली।।”
प्रकृति के सौन्दर्य का कहाँ तक वर्णन किया जाये ? प्रकृति पूरी धरा को नववधू की तरह सजा देती है। ऋतुओं के अनुसार प्रकृति की छटा बदलती रहती है। यहाँ के पर्वत, नदी, झरने, बाग-वन, सरोवर और अमराई धरती की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं। प्रकृति हमें मौन रहकर भी अनेक सन्देश देती है। अपनी सुन्दरता के प्रति आकर्षित कर हमें भी सुन्दर बनने का संकेत देती है। अपने हृदय में गहराई लानी चाहिए। उपवन सदा प्रसन्न रहने का सन्देश देता है तो नदियाँ सदा परोपकारी जीवन के प्रति समर्पित रहने का सन्देश देती हैं। वन-उपवन हमेशा हरा-भरा रहने और दूसरों के कष्ट में काम आने का सन्देश देते हैं। जिस प्रकार वृक्ष का जीवन परोपकारी है उसी प्रकार मनुष्य को भी परोपकारी जीवन अपनाना चाहिए। हमारी प्रकृति हमसे ताल-मेल रखना चाहती है। वह हमारे जीवन को पर्यावरण से सुरक्षित रखकर हमारे ऊपर अपनी कृपा की दृष्टि करती है। बादल कितना परोपकारी है कि स्वयं नष्ट होकर धरती पर समवृष्टि करता है। हमें भी चाहिए कि अपने व्यवहार में समानता लायें। सूरज रोज सुबह निकलकर लोगों को प्रकाश और ताप देता है। वह अपने समय का कितना पाबन्द है कि समय का ध्यान रखता है। प्रकृति का हर अंश हमें अपने कर्त्तव्य के प्रति सचेत करता है। प्रकृति मनुष्य की मित्र है। वह उससे तादात्म्य स्थापित कर ले तो कभी दुःखी नहीं रहे।
कश्मीर हमारे देश का मुकुट है। सुन्दरता में तो मानो वह नन्दन कानन हो। दुनिया में जितने भी देश हैं वे सभी कश्मीर की सुन्दरता को सराहते हैं। कश्मीर का दिव्य सौन्दर्य हमें अपने देश पर अभिमान करने और उसकी प्राण-प्रण से रक्षा करने का सन्देश देता है। कवि सुमित्रानन्दन पन्त के शब्दों में कश्मीर की सुन्दरता का अनुपम दृश्य देखिए-
"धरा स्वर्ग कश्मीर, प्रकृति का सद्यः सौन्दर्य स्थल,
अन्द्रनील नभ, मरकत हरित धरित्री शस्य श्यामल ।
गाता सर सरिता झरनों में गिरि का गीत-मुखर जल,
फूलों के रंगों की घाटी-हँसता मुक्त दिगंचल।।"
प्रकृति का वर्णन जितना भी किया जाये कम है। प्रकृति का ऐसा कोई रूप नहीं जो हमारे नुकसान के लिए बना हो। वह तो हमेशा हमारा ख्याल रखती है और हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करती है। हमारे ऋषि-मुनि सूर्य, चन्द्र, सागर, पेड़-पौधे आदि को देवता मानते थे। वे कहते थे कि प्रकृति के साथ चलकर ही हमारा जीवन सुरक्षित रूप से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है। जहाँ हम प्रकृति में असन्तुलन पैदा करते हैं, वहीं हमारी हानि होना शुरू हो जाती है। वनों को काटना, कृषि योग्य भूमि पर मकान बनाना, नदियों को प्रदूषित करना आदि कार्यों से हम प्रकृति से दूर जाने का प्रयास करते हैं। इन कार्यों से मनुष्य का जीवन संकटमय बनता जा रहा है। प्रकृति के खुले आँगन में रहने से मनुष्य की बुद्धि और बल का विकास होता है। हमें प्रकृति के संदेशों को समझ कर उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। प्रकृति की गोद माँ की गोद से कम नहीं है। ऐसी प्रकृति का हम बार-बार वन्दन करें जो हमारी शिक्षक बनकर और हमारे साथ-साथ चलकर हमें चिरायु होने का आशीर्वाद प्रदान करती है।
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