चन्ना सर छठी कक्षा में मेरा प्रवेश सरकारी “आदर्श उच्चतर विद्यालय” में हुआ था । उन दिनों मे लगातार कई वर्षों तक बोर्ड परीक्षाओं मे अच्छा रिजल्ट देन
चन्ना सर
छठी कक्षा में मेरा प्रवेश सरकारी “आदर्श उच्चतर विद्यालय” में हुआ था । उन दिनों मे लगातार कई वर्षों तक बोर्ड परीक्षाओं मे अच्छा रिजल्ट देने पर विद्यालयों को “आदर्श विद्यालय” घोषित किया जाता था। इस कारण से विद्यार्थियों को परीक्षा में कठिन मापदंडों से गुजरना होता था। चरनजीत (चन्ना "सर") मेरी कक्षा में पढता था । चरनजीत को "सर" की उपाधि मिलने की कथा भी बहुत अजीबो-गरीब थी। वह लगातार ६ बार छटवीं कक्षा में फेल हुआ और उसके साथ के सभी विद्यार्थी ग्यारवीं कक्षा पास करके कॉलेज में एडमिशन पा चुके थे । लगातार ६ बार फेल होने के कारण नए विद्यार्थियों में उसकी वरीयता इतनी अधिक थी की सभी बच्चे उसे "चन्ना सर" कह कर बुलाते थे ।
“चन्ना सर” दुबले पतले और लम्बे शरीर के मालिक थे और हर समय मुस्कराते रहते और कक्षा के बाकि विद्यार्थियों से बहुत कम बात किया करते थे । इसका कारण शायद उनके अंदर व्याप्त “हीन” भावना थी जो अपने से आधी उम्र के बच्चों के साथ पढाई करने की मजबूरी की वजह से घर कर गयी थी । इसी तरह अन्य कक्षाओं के बच्चे भी उनको ‘सर’ कह कर सम्बोधित करते थे । बच्चों के द्वारा चना को ‘सर’ कह कर बुलानें में मजाकिया भाव का पुट नहीं होता था, बल्कि बच्चों के द्वारा यह केवल आदर सूचक सम्बोधन के रूप मे ही प्रयोग किया जाता था । “चना सर” का व्यवहार इतना सौम्य था की कक्षा या स्कूल का अन्य कोई भी बच्चा उनसे मजाक करने की हिम्मत नहीं करता था। यहाँ तक की अध्यापकगण भी चना से बहुत ही प्यार और इज्जत से बोलते थे। खाली पीरियड मे जब अन्य बच्चे खेल-कूद मे मशगूल ओए जाते थे , “चना सर” अक्सर कक्षा में चरखा कातते दिख जाते थे । उन दिनों में त्रिभाषा फार्मूले के अंतर्गत हिंदी और अंग्रेजी अनिवार्य विषय थे तथा संस्कृत की जगह पंजाबी का विकल्प हुआ करता था । इसी प्रकार ड्राइंग की जगह ‘चरखा’ व ‘तकली’ का विकल्प दिया जाता था । अर्धावकाश के समय वह टीचर्स के स्टाफरूम में चला जाता और टीचर्स के लिए चाय बनाता था , बल्कि यूँ कहा जाए की टीचर्स उससे चाय बनवाते थे । उन दिनों में गुरु को देव तुल्य और गुरू-सेवा को तथा गुरु आज्ञा के पालन को परम धर्म माना जाता था ।
लगातार फेल होने के कारण चना की फीस माफी भी रद्द कर दी गई थी, किंतु उसे विद्यालय से निष्काषित नहीं किया गया था । शायद अध्यापकों की उस पर यह अनुकंपा थी जो उसे उसके द्वारा की गई चाय- सेवा के एवज़् मे मिली थी। गुरु- कृपा ( परीक्षा मे पास करने की अनुकंपा ) की आकांक्षा मन मे सँजोये हुए चना हमेशा गुरु-सेवा मे लीन रहता था ।
चना का परिवार बहुत साधन सम्पन्न नहीं था और पाकिस्तान से आए विस्थापितों की कालोनी में रहा करता था। उन दिनों मे पाकिस्तान से विस्थापित सभी परिवार पाकिस्तान मे अपना सब कुछ गँवाने के बाद भारत में नए सिरे अपने आप को स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे। वे लोग मुख्यत: व्यापारी लोग थे और छोटा-मोटा समान बेचकर या दुकानदारी करके अपना गुजर-बसर करते थे।
उन दिनों मे 5 वीं , 8 वीं तथा 11 वीं कक्षाओं मे बोर्ड की परीक्षाएं हुआ करती थीं, और सभी विद्यालय पूर्ववर्ती परीक्षाओं मे कठिन मापदंडों का पालन करते थे, ताकि बोर्ड की परीक्षाओं मे उनका रिजल्ट अच्छा बना रहे। हमारे विद्यालय में इन मापदंडों का पालन और भी सखताई से किया जाता था क्यों कि उसे “आदर्श” विद्यालय का तमगा हाँसिल था और बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट में किसी कमी के कारण “आदर्श” का तमगा छिन सकता था । नतीजा यह होता था बोर्ड से पहले वाली परीक्षाओं में बहुत सारे बच्चों को छंटनी मे फेल कर दिया जाता था। आज के जमाने में तो यह नियम बना दिया गया है कि 8 वीं कक्षा तक किसी को फेल ही नहीं किया जा सकता। आज के विद्यार्थी 60-70 के दशक के विद्यार्थियों की पास होने की ‘प्रसन्नता’ ओर फेल होने के ‘भय’ के बीच के संघर्ष को नहीं समझ सकते। उन दिनों मे एक तो आर्थिक साधनों की कमी थी; हर परिवार अपनी गुजर- बसर की चिंताओं में उलझा रहता था। साधनों की कमी थी इसलिए ट्यूशन पढ़ने का प्रश्न ही नहीं उठता था। सभी बच्चों को स्कूल मे मिलने वाले मार्ग-दर्शन पर और निजी मेहनत पर ही निर्भर रहना पड़ता था। ट्यूशन पढ़ना उन दिनों सम्पन्न लोगों का शुगल माना जाता था। इसके विपरीत ट्यूशन पढ़ने वाले विद्यार्थियों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। ट्यूशन के नाम पर कुछ स्टडी सर्कल चलन मे आ चुके थे जिनमे 15-20 विद्यार्थियों को एक साथ अलग-अलग विषयों मे ट्यूशन पढ़ाई जाती थी और फीस मात्र 10 रुपये (मासिक) प्रति विद्यार्थी हुआ करती। अगर एक ही परिवार के दो विद्यार्थी वहाँ पढ़ने जाते तो एक ही विद्यार्थी की फीस में दो को ट्यूशन पढ़ने की सहूलियत मिलती थी। वैसे सच्चाई यह थी कि उन दिनों में 10 रुपये मासिक की रकम को भी घरेलू बजट पर एक अतिरिक्त बोझ समझा जाता था और हर किसी के लिए इसका वहन करना संभव भी नहीं हो पाता था। शायद यही कारण था की “चना सर” किसी प्रकार की ट्यूशन इत्यादि से वंचित थे; घर में पढ़ाई संबंधित मार्ग-दर्शन की कमी और उधर स्कूल में परीक्षा के मापदंडों की सख्ती उनके फेल होने का एक बड़ा कारण थी। इसी प्रकार के ट्यूशन सेंटर में दत्ता नाम के सज्जन अंग्रेजी विषय मे ट्यूशन देते थे। पढ़ाते तो वह बहुत मेहनत से थे, साथ ही वे वार्षिक परीक्षा के समय प्रोत्साहन के तौर पर स्कूल के पास वाली बिल्डिंग की छत पर जाकर ऊंची आवाज मे अंग्रेजी ग्रामर के पेपर के सवालों के उत्तर विद्यार्थियों को नोट करवाया करते थे ।यह सुविधा वे अपने ट्यूशन पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए करते थे, किंतु इस सुविधा का लाभ सभी परीक्षार्थियों को मिलता था। इसी चक्कर मे एक बार दत्ता जी को हवालात की सैर भी करनी पड़ गई , किंतु बाद मे उन्हे चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था।
मेरी ही कक्षा मे ठाकुर दास नाम का अन्य विद्यार्थी भी पढ़ता था, वह दो बार 6 वीं कक्षा मे फेल हुआ था। वह भी वरिष्ठ था, किंतु ‘सर’ की उपाधि से उसे वंचित रहना पड़ा था क्यों कि सर की उपाधि पर केवल और केवल “चना सर” का एकाधिकार था और उन पर “ एको अहम द्वितीयो नास्ति , न भूतो न भविष्यति “ वाली कहावत शत-प्रतिशत चरितार्थ होती थी। सच्चाई यह थी कि “चना सर” के पश्चात इस उपाधि को पाने का सौभाग्य किसीअन्य विद्यार्थी को नहीं मिल पाया था। कहना गलत नहीं होगा कि जैसे क्रिकेट मे सर डॉन ब्रेडमेन की शान थी लगभग वही शान “चना सर” की अपने विद्यालय मे थी। क्योंकि यह अर्जित उपाधि नहीं थी वरन दूसरों के द्वारा प्रदत्त या थोपी गई थी “चना सर” मुस्कराते हुए इसे लगातार ढोते चलते थे। चना बहुत ही विनम्र विद्यार्थियों मे से एक था और कभी भी किसी अन्य विद्यार्थी से दुर्व्यवहार नहीं करता था। जब भी कोई अध्यापक छुट्टी पर होता तो “चना सर” को कक्षा मे अनुशासन बनाए रखने के लिए कहा जाता था। उनके रहते अव्वल तो कोई भी बच्चा शरारत नहीं करता था, यदि कोई करता भी तो “चना सर” उसे पुचकार कर समझा देते और बच्चे बड़े ही आदर भाव से उनका कहना मन करते करते थे , मानो कोई अध्यापक समझा रहा हो ।
मेरी कक्षा मे एक अन्य विद्यार्थी ‘शंकर’ भी पढ़ता था, उसके पिता कालोनी में स्थित मशहूर ‘शिव मंदिर’ मे पुजारी थे, या यूं कहा जाए की मंदिर पर उनका ही कब्जा था । यह उस जमाने की बात है जब मंदिरों को शिव, हनुमान और राम आदि भगवानों के नाम से जाना जाता था। शिव मंदिर में सोमवार को, श्रवण मास में और शिवरात्रि के अवसर पर भीड़ लगा करती थी। हनुमान मंदिरों में मंगलवार को और कुछ अन्य अवसरों पर भीड़ होती थी। राम मंदिर में भी इसी प्रकार विशेष अवसरों पर धार्मिक अनुष्ठान तथा भीड़ हुआ करती थी। आज ऐसी बात नहीं रही; अब तो बहुउद्देशीय मंदिर बन गए हैं जैसे ‘शिव-हनुमान राम मंदिर’ ‘ शनि-भैरों मंदिर,’ माँ काली मंदिर ‘। ऐसा शायद आर्थिक कारणों से किया जाता है। आज मंदिर के आगे ‘प्राचीन’ शब्द जोड़ने का प्रचलन भी बहुत हो गया है इसका कारण भी व्यवसायीकरण में ढूढा जा सकता है। आज शनि-भैरों मंदिरों की तो भरमार हो गई है, और हो भी क्यों ना ‘ कलियुग ’ में जैसा कि नाम से ही परिलक्षित होता है इस युग के अधिष्ठाता देव शनि और भैरव ही हैं ।सोमवार और मंगलवार को मंदिर मे प्रशाद ( बर्फ़ी और बूंदी ) का बहुत चढ़ावा आता था जो उस कालोनी में रहने वाले लोगों की संपन्नता का परिचायक था । शंकर अगले दिन यानि बुधवार को मिठाई का डब्बा भर कर प्रशाद कक्षा मे लता था और खुले दिल से बच्चों में बांटता था। हर हफ्ते इस तरह मिठाई मिलना उन दिनों मे बड़े सौभाग्य की बात थी। उस जमाने में घर में मिठाई केवल विशेष त्योहारों पर ही मिल पाती थी । यहाँ तो ‘शंकर’ की कृपा से हर हफ्ते बच्चों की दिवाली मनती थी । किसी बुधवार को अगर ‘शंकर’ स्कूल नहीं आता तो बच्चे उदास हो जाते और मन- मसोसकर रह जाते। सभी बच्चे यह दुआ करते कि ‘शंकर’ कम से कम बुधवार को बीमार ना पड़े, भले ही वह किसी और दिन बीमार पड़ जाए। जीभ का स्वाद (मिठाई से वंचित न रहने का भाव) बाल मन की उड़ान को कहाँ तक उड़ा कर ले जा सकता ही, यह बचपन के उन दिनों में भली भांति समझा जा सकता था। उन दिनों में छात्रों में एनसीसी में भाग लेने का काफी प्रचलन था। जिसका प्रमुख कारण देशभक्ति की भावना, अनुसाशन के साथ साथ परेड के पश्चात जो अल्पाहार (जिसमे फल,ब्रेड और मक्खन तथा अंडा भी होता था) का मिलना था। उन दिनों में ये सब पदार्थ उच्च जीवन स्तर के परिचायक थे, और साधारण रूप से इनके सेवन का सुअवसर कभी-कभार विशेषत: बीमार पड़ने पर ही मिलता था। अर्थशास्त्र का सिद्धांत कि जैसे- जैसे मनुष्य की आर्थिक स्थिति मे सुधार होता है उसके भोजन मे दूध और दूध से बने पदार्थों - अंडा, ब्रेड इत्यादि का अंश बढ़ जाता है शब्दश: उस समय की परिस्थितियों में खरा उतरता था और शास्वत रूप में विद्यमान दिखायी देता था ।
वह कठिनाइयों का दौर था, उन दिनों में जो लोग बिना उधार लिए अपना घर खर्च चला लेते थे वे ही आर्थिक रूप से सम्पन्न माने जाते थे । आर्थिक विषमताएं न के बराबर थीं, क्यों कि संपन्नता और विपन्नता के बीच की लकीर बहुत बारीक हुआ करती थी। देश में अनाज की कमी थी तो वह सबके लिए थी, यानि कि पैसेवाले और बिना पैसेवाले सभी को अनाज के लिए सरकारी दुकानों मे घंटों तक लाइन में लगना पड़ता था, क्यूँ कि अनाज (गेहूं और चावल) की उपलब्धता राशन में ही थी। सरकारी नियम कानून इतने सख्त थे कि राशन के अलावा अनाज उपलब्ध नहीं होता था। गेहूं और चावल के लिए सरकार को आयात या फिर यूरोपीय देशों से सहायता के रूप मे प्राप्त होने वाले गेहूं तथा चावल पर निर्भर रहना पड़ता था। आज अनाज उत्पादन में जो आत्मनिर्भरता दिखती है वह हरित क्रांति के द्वारा किए गए अथक प्रयासों के फलस्वरूप ही है।
हमारी कालोनी में बटुआ (उपनाम) नाम का बच्चा था जो किसी दूसरे स्कूल मे पढ़ता था, लेकिन उसे भी कई बार 6 वीं तथा 7 वीं कक्षा मे फेल होने के बाद ही आगे की कक्षाओं मे बढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसके बारे मे एक घटना बहुत चर्चित थी। उन दिनों मे परीक्षा का रिजल्ट स्कूल से पोस्टकार्ड द्वारा भेजा जाता था । जो बच्चे पास हो जाते थे उनसे पोस्टमैंन चार आने बख्शीश ले कर रिजल्ट का पोस्टकार्ड उनके सुपुर्द करता था। 7 वीं कक्षा का रिजल्ट आया जिसमे वह फेल हो गया था। बटुवे ने अपने रिजल्ट का पोस्टकार्ड लेकर छुपा दिया। सायं को जब उसके पिताजी ऑफिस से घर आए तो उन्होंने बटुवे से पूछा की रिजल्ट कहाँ है, तो उसने पिता से कहा कि पहले जलेबी के पैसे दो। उसके पिता ने यह मानकर की जरूर बटुआ इस बार पास हो गया है उसे जलेबी लाने के लिए पैसे दे दिए। बटुआ जलेबी लाया और जब वह जलेबी खा चुका था तो उसके पिता ने उसे रिजल्ट का पोस्टकार्ड दिखाने को कहा। बटुए ने तुरंत जवाब दिया की आधी से ज्यादा क्लास या तो फेल है या कम्पार्ट्मेन्ट है। उसके पिता ने गुस्से मे कहा कि रिजल्ट दिखाता है की नहीं, तो उसने तपाक से कार्ड दिखते हुए कहा कि जब आधी क्लास फेल है तो मैं कैसे पास हो सकता हूँ। उसके बाद तो बटुए के पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था और उसकी इतनी पिटाई हुई की सारी जलेबी चाशनी समेत बाहर निकल गई।
अब “चना सर” की बात कर ली जाए। छै बार फेल होने के बाद भी इस बार कोई गारंटी नहीं थी कि उनकी नैया पर लगेगी। “चना सर” का व्यवहार इतना अच्छा था कि सभी बच्चे यह मनाते थे कि इस बार “चना सर” को परीक्षा में सफलता अवश्य मिलनी चाहिए। कहावत है कि ‘भगवान के घर मे देर है लेकिन अंधेर नहीं है’। बच्चों की प्रार्थना का असर हुआ और उस वर्ष (1966-67) मे स्कूल टीचर्स की बहुत लंबी हड़ताल चली। लगभग 3-4 महीने स्कूलों मे पढ़ाई का बहुत नुकसान हुआ। इसके चलते सरकार ने यह निर्णय लिया की सभी बच्चों की बिना किसी परीक्षा के अगली कक्षा मे उन्नति दे दी जाएगी। सरकार के इस निर्णय से “चना सर” 7 वीं कक्षा में उन्नति पा गए। इसी प्रकार कुछ अन्य रुके हुए विद्यार्थी भी उन्नति पा गए। इसके बाद “चना सर” ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, और आगे की परीक्षाओं मे निर्बाध रूप से सफलता पाते गए। यह सफलता निष्काम भाव से की गई गुरु-सेवा का ही फल था, और “चना सर” के संदर्भ में आदिग्रंथों मे किया गया गुरु- कृपा का महिमा मंडन अक्षरश: सही साबित होता हुआ दिखाई देता है।
- प्रेम वल्लभ
दिल्ली , संपर्क सूत्र - 9899293975
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