महाकवि केशवदास की मौलिकता महाकवि केशवदास की मौलिकता रचनाकार की मौलिकता की परख तब होती है, जब आलोचक रचनाकर की भाव-भूमि पर स्थापित हो जाता है। इस दृष्टि
महाकवि केशवदास की मौलिकता
महाकवि केशवदास की मौलिकता रचनाकार की मौलिकता की परख तब होती है, जब आलोचक रचनाकर की भाव-भूमि पर स्थापित हो जाता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो केशव कबीर, सूर और तुलसी पर भारी पड़ते हैं। आचार्य केशव उतने आध्यात्मिक नहीं थे, जितने कि उक्त कवि । इसीलिए उन्होंने भौतिक आवश्यकताओं, शरीर की भूख, आश्रितों के प्रति दायित्व और समाज में सम्मान से जीने की आकांक्षा से मुँह मोड़ने का प्रयास भी नहीं किया है। सत्य-तथ्य तो यह है कि सामान्य धरातल पर स्थिति के विचार से केशव अन्य मध्ययुगीन कवियों से कहीं ज़्यादा सामान्य जन के करीब हैं। केशव ने हिन्दी-काव्य-धारा को एक नवल आयाम दिया, इसलिए वे युगान्तकारी थे। संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-साहित्य से उन्होंने युगानुकूल तत्त्वों का चयन करके अपने काव्य के माध्यम से पहली बार हिन्दी के पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
आचार्य केशव का पद्य साहित्य
आचार्य केशव ने पद्य-साहित्य की प्रबन्ध, महाकाव्य, मुक्तक, प्रबन्धात्मक मुक्तक नाट्यात्मक काव्य, प्रशस्ति और वीर गाथात्मक विधाओं का इस प्रकार प्रयोग किया है कि वह लक्ष्य-ग्रन्थों के साथ-साथ लक्षण-ग्रन्थों के लिए भी उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।
आचार्य केशव ने दीर्घावधि से उपेक्षित कलापक्ष का जीर्णोद्धार किया एवं उसकी पुनर्व्यवस्था की। केशव ने कला-पक्ष के अन्तर्गत रस, छन्द, अलंकार, रीति, गुण, शब्द-शक्ति आदि किसी पक्ष की उपेक्षा नहीं की, पर चतुर-प्रवीण माली की भाँति दूसरे पौधों की बाढ़-विकास अवरुद्ध करने वाले भाव-रस-जैसे वट-वृक्षों को थोड़ा काट-छाँटकर नयी और मौलिक आवृत्तियों के लिए कुछ फैलाव का क्षेत्र अवश्य निकाल लिया। आचार्य केशव ने चरित-काव्य को भी वीर-पूजा, देव-पूजा, आश्रयदाता के प्रशस्ति-गायन एवं वृहचित्रफलक के विविधरूप दिये।
केशवदास की छंद योजना
केशव का छन्द-वैविध्य भी रेखांकनीय है। केशव ने जितने छन्दों का प्रयोग किया है; हिन्दी साहित्य ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में किसी कवि ने शायद ही किया हो। संवाद-योजना में केशव अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते । प्रायः समस्त रीतिकालीन प्रवृत्तियाँ- प्रशस्ति, शृंगार, नख-शिख, बारहमासा, व्यवहार-शिक्षा, पिंगल- शिक्षा, मुक्तक में आद्योपान्त श्लेष की योजना, छन्द-संबन्धी प्रयोग, नायिका-भेद, शौर्य-वर्णन, दानशीलता-वर्णन, राजनीतिक उपदेश आदि केशव के काव्य के माध्यम से पहली बार हिन्दी में अवतीर्ण हुईं और सुदीर्घकाल के लिए अपने अनुकरण की परम्परा छोड़ गयी। अस्तु- केशव की मौलिकता पर किसी को भी सन्देह नहीं होना चाहिए।
केशव की रसयोजना
रस काव्य का अपरिहार्य तत्त्व है। आचार्य विश्वनाथ ने तो 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं' कहकर रस को काव्यात्मा ही घोषित किया है। प्रकाण्ड पण्डित और अनुपम आचार्य होते हुए भी केशव की रसमयता बाधित नहीं होने पायी है। वैसे कहा जाता है कि आचार्यत्व और कवित्व सममार्गीय धाराएँ नहीं हैं। जो प्रकाण्ड पण्डित, विशुद्ध भाषा-शास्त्री होता है, वह रससिद्ध कवीश्वर नहीं और जो बड़ा कवि होता है, वह अद्भुत आचार्य नहीं। कविवर केशव इस तथ्य के अपवाद सिद्ध होते हैं। वे आचार्य और कवि दोनों एक-साथ हैं।
उनका रसों पर पूर्ण अधिकार था। उनकी रचनाओं में सभी रसों का पूर्ण परिपाक पाया जाता है। हाँ, इतना अवश्य है कि शृंगार को महत्त्व अवश्य ही प्राप्त हुआ है। डॉ. विजयपाल सिंह इस सन्दर्भ में लिखते हैं- "रस-व्यंजना में उन्होंने स्वाभाविक, सजीव एवं आकर्षक चित्र अंकित किये हैं। उदाहरणों में जो सरसता एवं हृदयहारिता है, वह कवि के हृदय की पूर्ण परिचायिका है।" केशव की रसमयता का परिचायक संयोग श्रृंगार का एक हृदयावर्जक चित्र अवलोकनीय है-
अलि उड़ धरत मञ्जरी जाल । देखि लाज साजति सब बाल ।।
अलि अलिनी के देखत धाइ। चुम्बत चतुर मालती जाइ ।।
अद्भुत गति सुन्दरी बिलोकी। बिहंसति है घूँघट-पट रोकी ।।
ऐसी ही रसमयता प्रकृति के उद्दीपन विभाव चित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता बनकर केशव के काव्य में अवतीर्ण हुई है। जब मानव-मन उल्लसित होता है, तो प्रकृति की सुषमा भी उसके उल्लास में सहायक होती है और जब वह वियोग-विषादित होता है, दुखी होता है, तो प्रकृति भी उसे उदास लगती है। मानव-मन के इन सुख-दुख-रूपों का वर्णन केशवदास जी ने भी किया है। प्रिय-सन्निधि मार्ग की धूल की दाहकता को किस प्रकार शीतलता में परिवर्तित कर देती है, इसका एक चित्र भावनीय है-
घाम को राम समीप महाबल। सीतहिं लागत है अति सीतल । ।
मारग की रज तापित है अति । केसव सीतहिं सीतल लागति । ।
अस्तु, केशव की रस-योजना प्रभावी है, इसमें सन्देह नहीं ।
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