परित्यक्ता हिंदी कहानी सर्दियों की रात थी मैं रसोई मे माँ के साथ बैठकर भोजन के पश्चात अंगीठी पर हाथ सेक रहा था शिशिर ऋतु अपने अवसान पर थी, फिर भी गाँव
परित्यक्ता | हिंदी कहानी
सर्दियों की रात थी मैं रसोई मे माँ के साथ बैठकर भोजन के पश्चात अंगीठी पर हाथ सेक रहा था। शिशिर ऋतु अपने अवसान पर थी, फिर भी मौसम में काफी ठंडक थी। माघ का महिना चल रहा था, शिवरात्रि की तैयारियां जोरों से चल रही थी और होली अभी कुछ हफ्ते दूर थी ।अचानक मेरे कानों मे कहीं से एक जानी-पहचानी सुरीली गीत ध्वनि लहराती हुई आई। गीत वही पुराना होरी गीत था जिसे अक्सर चमेली अपनी सुरीली आवाज मे गया करती थी। मैंने माँ से कहा “ माँ! यह तो चमेली की आवाज है “ ।
माँ ने मुझे डांट कर कहा “ तेरा दिमाग खराब हो गया है। चमेली को मरे तो एक साल से भी अधिक हो गया है”। माँ ने फिर कहा “ मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही है, तुझे बहम हो रहा है”।
मैंने फिर माँ से कहा “माँ ! मैं आँगन का दरवाजा खोल कर देखता हूँ की गाने की आवाज कहाँ से आ रही है, और कौन गा रहा है “ ।
माँ ने मुझे फिर झिड़क कर कहा “चुप-चाप बैठा रह; और बिस्तर में सो जा, मुझे परेशान ना कर”।
फिर भी मुझे अपने कानों पर भरोसा था कि वह चमेली की ही आवाज थी। पहले मुझे लगा की माँ मेरा ध्यान बँटाने के लिए ऐसा कह रही है, किंतु बाद मे मुझे लगा कि वास्तव में माँ ठीक कह रही है कि चमेली को मरे तो काफी समय बीत चुका है, यह केवल मेरा भ्रम हो सकता है; या फिर कोई और गा रहा होगा। और मैं सोने के लिए अपने बिस्तर पर चल गया।
हमारा मकान कोने का था तथा मुख्य चौराहे के एक तरफ को था। वह बहुत ही रौनक वाली जगह पर था। चाहे कोई बारात जा रही हो या फिर राम-नवमी या दशहरे का जलूस हो या किसी की अन्तिम यात्रा निकल रही हो, बिना उस चौराहे से गुजरे सम्पन्न नहीं होती थी। घर के दूसरे छोर पर एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था जिस पर तरह-तरह के पंछी बसेरा करते थे। साँझ को तथा सवेरे पक्षियों का कलरव मन को बड़ी शांति देता था और समुदायिकता का आनंद प्रदान करता था । पीपल के पेड़ की शाखें इतनी बड़ी थी कि सड़क के दूसरी ओर स्थित तीन-चार मकान इस पेड़ की छाँव मे आते थे। पीपल के पेड़ के साथ-साथ नीम,शहतूत ,बरगद और अन्य छायादार पेड़ भी थे जिनकी वजह से घर के आस-पास के वातावरण में शीतलता बनी रहती थी। पेड़ों की झुरमुट के पास एक खाली आहाता था जो हमेशा किसी ना किसी गतिविधि का केंद्र बना रहता था । फागुन माह में होलिका दहन; सावन माह मे पेड़ों पर झूलों का पड़ना और उन पर रामणियों का गीत गाते हुए झूलना ; भाद्रपद माह मे श्रीमद भागवत कथा का वाचन और श्रवण; सर्दियों की रातों मे लोगों का अलाव जलाकर आग तापते हुए चक्कलस में शामिल होना; या फिर दोपहर में किसी मदारी का खेल दिखाना; सभी कुछ तो उस आहाते मे होता था। कहना ना होगा की पूरे साल भर या फिर प्रतिदिन वहाँ पर कुछ ना कुछ रौनक लगी रहती थी।
सायंकाल तीन बजे के आस-पास एक बुजुर्ग खीरे बेचने वाला भी जगह -जगह फेरि लगाते हुए उस आहाते मे सुस्ताने के लिए बैठ जाया करता था। वह बुजुर्ग “खीरे” को “खींरें…..” (नासिका का प्रयोग करते हुए ) बोलकर उच्चारित करता था। बच्चे बाबा का अक्सर “खींरें…” “खींरें……” बोल कर मजाक उड़ाया करते थे। कभी- कभी यह मजाक शालीनता की सीमा को पार कर जाता और वह बुजुर्ग उन बच्चों को गालियां भी बकने लगता था ।
उसी अहाते में एक अन्य फेरीवाला भी आता था जो कभी चुरन वाली गोलियां कभी कोई मौसमी फल बेचा करता था। उसका नाम चतर सिंह था तथा वह रामलीला में रावण का पार्ट किया करता था । दशहरे के दस दिन वह अपनी फ़ेरी के काम से नदारद रहा करता था, और रहता भी क्यों नहीं - रावण के वैभव की एक फेरीवाले की मजबूरी से कोई तुलना नहीं की जा सकती थी। चाहे दस दिन के लिए ही सही लंकेश के स्वप्निल संसार से निकलना चतर सिंह तो क्या किसी अन्य के लिए भी संभव नहीं था । चतर सिंह के लिए तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं था क्यों रात में दशानन के डायलॉग जिसमें “ सोने की लंका के वैभव का बखान” और सुबह को फ़ेरी लगाकर बोली बोलने के बीच की स्थिति में बहुत बड़ा अंतर था। कभी चतर सिंह के पास कुछ काम नहीं होता तो वह दुकानों के इश्तहार भी बांटा करता; कोई साड़ी की नई दुकान खुलती तो डुग - डुगी बजा कर उसका प्रचार करता। कभी किसी धार्मिक जलूस मे पुलसिया सीटी बजाकर भीड़ को अनुशासित करता था - किंतु यह काम वह केवल शौक के तौर पर करता था । वह फुटबॉल के मैच देखने का भी शौकीन था। बड़े मैदान मे जब भी फुटबॉल मैच होता तो वह अर्ध-अवकाश मे अपनी संतरे की टोकरी साइकल पर लादे हुए ले कर पहुँच जाता और सभी खिलाड़ियों को मुफ़्त में संतरे खिलाया करता था। तब यह लगता कि जिस आदमी को अपनी आमदनी और रोजगार का भरोसा नहीं वह कितना बड़ा दिल रखता है।शायद रावण का पार्ट अदा करते करते शाहीपन उसकी आदत में शामिल हो चुका था।
गर्मियों मे जब किसी प्रकार की हवा का नामोनिशान नहीं होता तो पीपल के पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर कंपायमान पत्तियों को देखकर मन को सांत्वना मिलती थी कि आधी रात मे ही सही ठंडी हवा तो जरूर चलेगी। पीपल के पत्ते हमेशा कंपायमान रहते हैं, संत तुलसीदास ने शायद इसीलिए पीपल के पत्तों के कंपन को माध्यम बनाकर वर्षा ऋतु में मेघ-गर्जन सुनकर सीता जी की मन:स्थिति का सुंदर वर्णन (पीपर पात सरिस मन डोला ) किया है । उन दिनों में रात को लोग घर के बाहर ही अपनी चारपाई और बिस्तर लगा कर सोते थे और प्राकृतिक आबो-हवा पर अधिक निर्भर करते थे। पीपल के पेड़ नीचे एक साइकिल मिकैनिक की दुकान हुआ करती थी जिस कारण से दिन भर वहाँ साइकिल मरम्मत कवाने वालों की भीड़ लगी रहती थी। साइकिल की दुकान होने का एक फायदा या नुकसान यह था कि पीपल के नीचे किसी भी प्रकार के टोने -टोटके या किसी अन्य अनुष्ठान की कोई जगह नहीं बचती थी। परंतु उस विशाल वृक्ष की छाँव का आनंद लेने में मनुष्यों और पक्षियों के लिए किसी प्रकार की वर्जना नहीं थी।
सावन के महीने को तो वैसे भी मन-भावन कहा गया है। सावन माह के शुरू होते ही नीम की डालियों में स्त्रियाँ मोटी-मोटी रस्सियाँ डालकर झूले डालती और उन पर नव -योवनाएं तथा नव-विवाहिताएं झूला झूला करती। रामणियों के मुख से गीत “ हिंडोला कुंज वन डारो , झूलन आई राधिका प्यारी रे” सुनकर मन प्रफुल्लित हो जाता था। इसी प्रकार ब्रज क्षेत्र के कर्णप्रिय लोक-गीत ( कच्चे नीम की निंबोरी सावन जल्दी आइयो रे; अम्मा दूर मत दीजो , दादा नहीं बुलावेंगे; भाभी दूर मत दीजो, भैया नहीं बुलावेंगे) दिनभर सुनने को मिल जाते थे। रामणियाँ उन्मुक्त भाव से सावन के गीत गाती रहती और सुनने वालों के कानों मे मिस्री घोलने का काम करती थी। इन रामणियों के साथ प्रोढ़ अवस्था की चमेली भी अपना ढोलक लेकर मधुर आवाज में संगीत-रस घोला करती । कभी-कभी वह भी झूला झूलने की इच्छा जाहीर करती तो उसे किनारे बिठा दिया जाता क्यों कि वह ‘परित्यक्ता’ थी और वह अन्य रामणियों के साथ झूला नहीं झूल सकती थी। चमेली ब्याहता थी किंतु उसके पति ने संतानहीनता के कारण उसका परित्याग कर दिया था और दूसरी स्त्री ले आया था। तभी से चमेली इन विकट परिस्थितियों मे निरापद जीवन जीने को मजबूर थी, लेकिन वह हमेशा आनंदमग्न हो कर रहती थी, और अपनी गीत-संगीत की कला-परायणता से लोगों की खुशियों मे शामिल होकर बलईयां बांटती और आनंद का अनुभव करती थी। यह भी विडम्बना ही थी कि जिस सावन या तीज की कल्पना चमेली की मधुर गीतों के बिना नहीं की जा सकती थी, उसी का बाकी स्त्रियों के साथ झूला- झूलना वर्जित था।
चमेली की आवाज बहुत मिठास भरी थी, वह रात को चौराहे के दूसरी तरफ स्थित चबूतरे पर बैठ कर और अपने गीत संगीत को बिखेरते हुए सो जाती। बारिश होने पर पास मे धोबी के छप्पर के नीचे बैठ कर रात गुजारती थी। सर्दियों में भी धोबी का छप्पर उसका रैन-बसेरा हुआ करता था। भोजन के नाम पर जो भी उसे मांग कर मिल जाता या फिर लोग उसे दे देते उसीमें उसकी गुजर हो जाती थी। वहीं पास में एक छोटी सी पुलिया थी उस पर बैठ कर एक गोपु नामका नवयुवक बहुत सुरीली तान मे मुरली पर पहाड़ी धुन बजाया करता था। वह गाँव से शहर मे नौकरी की तलाश में आया था और किसी नजदीकी रिश्तेदार के घर पर रहता था । कभी-कभी वह चमेली के साथ मिलकर उसके गानों मे मुरली की संगत देता था । चमेली और गोपु के गीत-संगीत से निकलनेवाली बन्दिशों के आनंद का बखान नहीं किया जा सकता, वह केवल महसूस किया जा सकता था।
सावन माह के समाप्त होने के पश्चात इस आहाते मे श्रीमद भागवत सप्ताह का आयोजन होता था, जिसमे अखाड़े वाले मंदिर के पण्डित जी काथा-वाचन करते थे । पंडित जी का कथा-वाचन चमेली के सुमधुर गीतों और कृष्ण भगवान को समर्पित पदावलियों के बिना पूरा नहीं होता था। कथा मे चमेली तन्मय और समर्पित भाव से ढोलक-वादन और कभी-कभी खड़ताल भी बजा कर समा बांधा करती। कहना ना होगा की चमेली उस छोटी सी दुनिया का अभिन्न अंग थी और उसके बिना किसी बार-त्योहार की कल्पना बेमानी थी।
सुबह-सुबह लगभग साढ़े पाच और छ: बजे के आस-पास एक साधु बाबा रोज प्रभात फेरी में “ जय जय राम - जय सिया-राम” का संकीर्तन करते हुए और हाथ से घड़ियाल बजते हुए उस चौराहे के पास से गुजरते थे। उनके गुजरते ही सब लोग अपना बिस्तर समेट कर अपनी दिनचर्या में लग जाते थे। बाबाजी घुमंतू साधु थे और गर्मियों मे कुछ अन्य साधुओं के साथ कालोनी में स्थित मंदिर में प्रवास किया करते थे। सायंकाल को सभी साधु मिलकर सायंकालीन फेरी “ राम नाम सुखदाई भजन करो भाई ये जीवन दो दिन का” भजन गाते हुए निकलते थे। उनका प्रवास लगभग एक महीने का होता और प्रवास के अंत मे सभी साधु भिक्षा दान लेते और अपने अगले पड़ाव की ओर चले जाते। यह सिलसिला साल-दर-साल निर्बाध रूप से चलता रहा। चमेली इन साधु बाबाओं की फेरी में भी खड़ताल बजाकर अपना पूरा योगदान दिया करती थी।
समय का चक्र चलता रहता है । जैसा कि कहा गया है कि - “ काल का पहिया घूमे भैया रात चले दिन रात चले” । आखिर एक दिन चमेली इस संसार को छोड़ कर चली गई; लोगों ने मिलकर उसका अंतिम संस्कार किया । किंतु चमेली उस चहल-पहल भरी छोटी सी दुनिया मे अपने पीछे एक विशाल शून्य छोड़ गई जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल थी । हर बार-त्योहार के अवसर पर उसकी कमी महसूस की जाती थी । “परित्यक्ता” होते हुए भी उसने समाज में अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाया था कि समाज के किसी भी अंग ने उसे कभी भी तिरस्कृत भाव से नहीं देखा। ऐसा प्रतीत होता था कि उसके मधुर स्वर में गाए हुए सावन, होली गीत और कृष्ण भगवान को समर्पित पदावलियां आज भी वहाँ के वातावरण मे गुंजायमान थीं । शायद यही कारण था कि उस दिन रात को मुझे जो होली गीत सुनायी दिया था मुझे लगा था कि वह चमेली की आवाज थी । वह भ्रम भी हो सकता था और सत्य भी - क्यों कि इस संसार मे घटने वाली सभी घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध नहीं हैं। ज्ञानी पुरुष ठीक ही कहते हैं कि जहां विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहीं से मानवेतर संसार आरंभ होता है।
कुछ दिनों बाद पता चला की गोपु मुरली वाला भी शहर छोड़ कर गाँव वापस चल गया था । उसे नौकरी नहीं मिल पायी थी या फिर चमेली के इस संसार से चले जाने की शून्यता ने उसे गाँव की ओर वापस भेज दिया था, इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना कठिन था।
- प्रेम वल्लभ
दिल्ली , संपर्क सूत्र - 9899293975
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