सूरदास सगुण ब्रह्म के उपासक थे सूरदास की भक्ति का परिचय और बाल-लीला का उदाहरण सहित वर्णन भगवान की अनन्य उपासना की है और वही उनकी सगुण भक्ति कहलाई भक्
सूरदास की भक्ति का परिचय और बाल लीला का उदाहरण सहित वर्णन
सूरदास सगुण ब्रह्म के उपासक थे। उन्होंने भगवान की अनन्य उपासना की है और वही उनकी सगुण भक्ति कहलाई। सगुण ईश्वर का गान करने में उन्हें अधिक रुचि लगी क्योंकि निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान ऐसा ही है जैसे गूँगे व्यक्ति को मीठा फल दिया जाये तो वह उसका अनुभव तो कर सकता है पर उसका वर्णन नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने सगुण ब्रह्म की उपासना की और उनका वर्णन किया।
सूर के अनुसार, भक्त परमात्मा की कृपा को सबसे बड़ा आशीर्वाद मानता है। बड़े प्रेम-भाव से वह भगवान की लीलाओं का गुणगान करता है और इन्हीं लीलाओं के माध्यम से और इसी भाव से अपने प्रभु का दर्शन भी कर लेता है। कवि हमें हरि (भगवान) से विमुख व्यक्ति से सदा दूर रहने का सन्देश देता है क्योंकि नास्तिक व्यक्ति सदा ही आस्तिक को भी अपनी तरह बनाना चाहता है। सूरदास ने आस्तिक बनकर सत्संगति पर बड़ा बल दिया है। सत्संगति में रहकर वह माया, मोह, क्रोध का त्याग कर सकता है। जब तक मनुष्य इन बुराइयों का साथ नहीं छोड़ता तब तक उसे ज्ञान, भक्ति और ईश्वर दर्शन नहीं हो सकता। ईश्वर-दर्शन में मोह-माया बड़ा व्यवधान पैदा कर देती है। मोह-माया के चक्कर में पड़कर, बन्धनों में बँधकर उसे न ज्ञान की प्राप्ति होती है और न ईश्वर की । अतः इन मोह-माया के झंझटों का त्याग करना अति आवश्यक है। माया मनुष्य को नचाती रहती है और ईश्वर की तरफ नहीं जाने देती। क्या अच्छा है और क्या बुरा है ? यह समझाने में कठिनाई भी मोह-माया के कारण ही होती है। सूरदास श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति प्रकट करते हैं तथा उनका मन श्रीकृष्ण के चरणों में ही आश्रय तथा सुख पा सकता है।
सूरदास का मन श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के वर्णन में अधिक लगा है। उन्होंने बाल-लीलाओं का ऐसा सजीव चित्रण किया है जैसे सूर स्वयं ही उन लीलाओं को देख रहे हों : जैसे-
मुख दधि लेप किए, सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
दूसरे स्थान पर उन्होंने कृष्ण के बोलना शुरू करने पर अति हर्ष प्रकट किया है; जैसे-माता पिता अपने पुत्र या पुत्री को पहले बोलते हुए सुनते हैं तो अतिहर्षित होते हैं। देखिए-
कहन लागे मोहन मैया-मैया।
नंद महर सौं बाबा-बाबा, अरु हलधर सौं भैया॥
ऊँचे चढ़ि-चढ़ि कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की गैया॥
गोपी-ग्वाल करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ, चरननि की बलि जैया॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूर सगुण भक्ति के उपासक थे और 'अष्ट छाप' कवियों में श्रेष्ठ थे। कृष्ण भक्ति की तन्मयता और बाल-चेष्टाओं से प्रेम उनके रचित पदों में मिलता है।
अन्त में सूरदास का कहना है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना से सगुण ब्रह्म की उपासना सरल, प्रेमोत्पादक और मोहक है। सगुण भक्ति सरल होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी है। इसीलिए सूरदास ने भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर उनकी रास लीला तथा जीवन के प्रत्येक पहलू के गीत गाये हैं। सूर वात्सल्य रस के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं।
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