ग्रहों की वक्री दृष्टि क्या होती है कुंडली में समान्यत: अधिकतर ग्रह मार्गी होते हैं, लेकिन कुछ ग्रह वक्री भी होते हैं। जन्म कुंडली में स्थित ग्रहों क
वक्री ग्रहों की आध्यात्मिक विवचना
कुंडली में समान्यत: अधिकतर ग्रह मार्गी होते हैं, लेकिन कुछ ग्रह वक्री भी होते हैं। जन्म कुंडली में स्थित ग्रहों के वक्रत्व का संबंध पूर्व जन्मों से किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जन्म कुंडली में ग्रह, जातक को कुछ न कुछ सीख देने के लिए ही वक्री होते हैं। तभी तो भिन्न-भिन्न जातकों की जन्म कुंडली में भिन्न-भिन्न ग्रह वक्री होते हैं। अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग करके, जातक ग्रहों के वक्रत्व का कारण जानकर, अपने जीवन में पूर्व जन्मों में की गई गलतियों से सीख ले सकता है और यही ग्रहों के वक्रत्व की आध्यात्मिक विवेचना है।
वक्री ग्रह अपने साथ असामान्य और अप्रत्याशित घटनाओं को साथ लाता है, क्योंकि वक्र गति का अर्थ है असामान्य गति या विपरीत गति। जन्म कुंडली में किसी ग्रह का वक्रत्व, जातक को उस ग्रह से संबंधित कार्यकत्वों के विषय में अतिवादी बना देता है। ग्रहों के वक्रत्व के कारण उनमें चेष्टा बल आ जाता है, जिसके कारण ग्रह अधिक बलशाली बन जाता है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में, पृथ्वी को केंद्र मानकर ग्रहों की गति की गणना पृथ्वी के सापेक्ष की जाती है। पृथ्वी से देखने पर यदि ग्रह पीछे की ओर जाता हुआ दिखाई दे तो वह वक्री कहलाता है। सूर्य और चंद्र कभी वक्री नहीं होते, क्योंकि वास्तविक स्थिति में पृथ्वी सहित सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर ही चक्कर लगाते हैं, ऐसी स्थिति में सूर्य के पीछे चलने का सवाल ही नहीं उठता और चंद्रमा तीव्र गति से पृथ्वी के ही चक्कर लगाता है इसलिए वह भी कभी वक्री नहीं हो सकता। राहु और केतु का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, ये दोनों छाया ग्रह हैं, इसलिए सदैव वक्री ही होते हैं, अतः इनके वक्रत्व पर विचार नहीं किया जाता।
यह सत्य सर्वविदित है कि जातक की आत्मा जन्म जन्मांतरों में भिन्न-भिन्न शरीर धारण कर, अंतहीन पथ पर यात्रा करती हुई, अपने कर्मों से ही अपने भाग्य का निर्माण करती है। कोई भी जातक आदर्श नहीं होता। वह अपने पिछले जन्मों में कुछ न कुछ गलतियाँ अवश्य करता है। उन्हीं गलतियों को इंगित करते हुए, जातक की इस जन्म की पत्रिका में उसे सही राह पर चलने की सीख देने हेतु, ग्रह वक्रत्व धारण करते हैं। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कुछ विशेष सीख देने हेतु ही जातक की पत्रिका में कुछ ग्रह वक्री हो जाते हैं।
मंगल, क्रोध, छोटे भाई बहन, भूमि, दुर्घटना या शल्य क्रिया के कारण चोट-चपेट का कारक ग्रह है। काल पुरुष की कुंडली में मंगल पहले और आठवें भाव के भावेश हैं, अतः यह आयु और मृत्यु दोनों में योगदान दे सकता है। यदि पत्रिका में मंगल वक्री हो तो अचानक या अप्रत्याशित रूप से क्रोध आना जातक का स्वभाव हो सकता है। अचानक दुर्घटना के कारण चोट-चपेट की संभावना अथवा शल्य चिकित्सा की संभावना बन सकती है। चूँकि वक्री ग्रह अतिवादी प्रवृत्ति का द्योतक है अतः जातक या तो अपने दोस्तों और छोटे भाई बहनों से असीमित लगाव रख सकता है अथवा विशेष परिस्थितियों में कभी कभी जातक अपने दोस्तों और भाई बहनों से पूर्णतः अलगाव भी महसूस कर सकता है। अतिवादी प्रवृत्ति के कारण ही जातक या तो अत्यधिक तेज वाहन चला सकता है या बहुत ही धीमी गति रख सकता है। जातक अत्यधिक क्रोधी प्रवृत्ति का हो सकता है अथवा अपने अंतःकरण में क्रोध की ज्वाला को दबा कर रखने वाला भी हो सकता है। जातक को भूमि से संबंधित जायदाद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हो सकती है अथवा कभी कभी जायदाद के मामले में पूरी तरह से उदासीन भी हो सकता है। संभव है कि पिछले जन्म में जातक ने क्रोध के वशीभूत होकर अथवा भूमि से संबंधित या छोटे भाई-बंधुओं के साथ कोई अनुचित कार्य किया हो और इसी भूल की ओर इंगित करते हुए इस जन्म में जातक की पत्रिका में मंगल ने वक्रत्व प्राप्त किया हो ताकि जातक को सही पथ का ज्ञान हो सके। वक्री मंगल जातक को मध्यमार्ग अपनाने की सीख देता ऐसे जातकों को अधिक क्रोधित होने से बचना चाहिए और बातचीत का सहारा लेकर अपने क्रोध को अपने अंदर दबाने से भी बचना चाहिए। भाई-बहनों के साथ मध्यमार्गी संबंध बनाकर रखना चाहिए। भूमि से संबंधित कार्य भी सोच समझकर करना चाहिए। वाहन की गति भी मध्यम रखना श्रेयस्कर होगा। इसप्रकार पत्रिका में यदि मंगल वक्री हो तो जातक को उसके गुण-धर्मों को ध्यान रखकर अपने जीवन में सुधार के लिए प्रयास करना चाहिए।
बुध वाणी का कारक ग्रह है। पत्रिका में यदि बुध वक्री हो तो जातक अप्रत्याशित रुप से अपनी वाणी का उपयोग कर सकता है। गलत समय पर गलत बात करके, दूसरों के बारे में आलोचनाएँ करके, निंदा करके, अफवाहें फैलाकर जातक अपने शत्रुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी कर सकता है। बुध दस्तावेजों का भी कारक होता है। वक्री बुध के कारण अतिवादी प्रवृत्ति के चलते जातक कभी कभी दस्तावेजों पर बिना सोचे समझे या बिना पढ़े ही हस्ताक्षर करके समस्याओं में पड़ सकता है अथवा यह भी हो सकता है कि जातक हस्ताक्षर करने से पहले हद से ज्यादा सोच विचार करे, यहाँ तक कि हस्ताक्षर के मामले में अपने घर के लोगों पर भी विश्वास न करे। बुध रिश्तेदारों का भी कारक होता है। वक्री बुध होने की स्थिति में जातक के संबंध अपने रिश्तेदारों के साथ कभी अत्यधिक घनिष्ठ या कभी अत्यधिक खराब भी हो सकते हैं। संभव है कि पिछले जन्म में जातक ने अपनी वाणी या अपनी बुद्धि का गलत उपयोग किया हो और इसलिए ही इस जन्म में जातक को सही सीख देने हेतु ही बुध ने वक्रत्व प्राप्त किया हो। वक्री बुध होने पर जातक को सर्वप्रथम अपनी वाणी को संयमित करना सीखना चाहिए। बुध से संबंधित कारकत्वों को ध्यान में रखते हुए जातक को मध्यमार्ग पर चलना सीखना चाहिए। वक्री बुध होने पर जातक तीक्ष्ण बुद्धि वाला हो सकता है लेकिन जातक को अपनी बुद्धि का सही दिशा में उपयोग करना सीखना चाहिए।
पत्रिका में गुरु ज्ञान, धर्म, पिता, मोक्ष इत्यादि का कारक है। वक्री गुरु के कारण जातक को अपनी बुद्धि तथा ज्ञान का अत्यधिक अहंकार हो सकता है। ऐसे जातक यदा कदा दूसरों को सलाह देते नज़र आ सकते हैं। ऐसे जातक अत्यधिक स्वच्छंद प्रकृति के हो सकते हैं, उन्हें किसी की रोक-टोक पसंद नहीं होती, साथ ही उन्हें अपने ज्ञान का इतना अधिक घमंड हो सकता है कि उन्हें किसी की सलाह लेना या किसी से कुछ सीखना भी उचित न लगे। यहाँ तक कि ऐसे जातक कभी-कभी अपने गुरु अथवा पिता को भी अपने समक्ष तुच्छ समझकर उनकी आलोचना करने की भूल भी कर बैठते हैं। कभी-कभी ऐसे जातक अपनी बुद्धि का प्रयोग गलत दिशा में भी कर सकते हैं। हो सकता है कि पिछले जन्म में जातक ने अपने गुरुजनों का उचित सम्मान नहीं किया हो या अपने ज्ञान का श्रेय अपने गुरुओं को न दिया हो और वक्री गुरु ने इसी ओर इशारा किया हो और जातक को सही पथ पर चलाना चाहता हो। अतिवादी प्रवृत्ति के चलते कभी-कभी स्थिति इसके ठीक विपरीत भी हो सकती है, तब जातक अपने आत्मसम्मान को बिल्कुल ही भुला बैठता है। वक्री गुरु होने पर जातकों को सर्वप्रथम अपने अहंकार का त्याग कर अपने गुरुजनों का सदैव सम्मान करना सीखना चाहिए। गुरुजनों के अनुभव सदा लाभकारी होते हैं, इस सत्य को हृदयांगम करना चाहिए। दूसरों के विचारों को खुले मन से स्वागत करना तथा अपने ज्ञान और बुद्धि का सदैव उचित दिशा में उपयोग करना ही वक्री गुरु की सीख है।
शुक्र सुख-सुविधाएँ, व्यापार का साझेदार, प्रेम संबंध, शुक्राणु आदि का कारक है। काल पुरुष की कुंडली में शुक्र दूसरे और सातवें भाव का भावेश है, इसलिए ऐश्वर्य तथा विवाह के लिए मुख्यतः शुक्र को ही देखा जाता है। दूसरा और सातवाँ भाव मारक भाव भी कहलाते हैं, इसलिए वक्री शुक्र होने पर, अतिवादी प्रवृत्ति के चलते जातक अपने जीवन तथा अपने रखरखाव को लेकर बिना बात ही अत्यधिक चिंतित हो सकते हैं अथवा यह भी संभव है कि वे अपने जीवन को लेकर पूरी तरह से लापरवाह हों। जातक अच्छे वस्त्र तथा सुख सुविधाओं के सभी साधनों को प्राप्त करने की दिशा में अत्यधिक प्रयत्नशील हो सकता है अथवा इसके ठीक विपरीत, बिल्कुल ही उदासीन भी हो सकता है। ऐसे जातक धन को लेकर भी हद से ज्यादा चिंतित या कंजूस अथवा हद से ज्यादा फिजूलखर्च हो सकते हैं। चूँकि वक्री शुक्र धन से संबंधित अप्रत्याशित घटनाओं को साथ लाता है, अतः शुक्र की दशा या अंतर्दशा में जातक को अप्रत्याशित धन लाभ या अप्रत्याशित धन हानि की संभावना रहती है। अतः जातक को अपने धन का सही उपयोग करना सीखना चाहिए, जहाँ तक हो सके शेयर बाजार में पैसा नहीं लगना चाहिए, क्योंकि अचानक धन लाभ की संभावनाओं के साथ अचानक धन हानि की संभावनाएं भी जुड़ जाती हैं। वक्री शुक्र होने पर जातक को मध्य मार्ग अपनाना सीखना चाहिए तभी वह अपने धन तथा अपने जीवन का सही आनंद प्राप्त कर सकता है। प्रेम संबंधों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील अथवा अत्यधिक लापरवाह होना भी वक्री शुक्र होने के लक्षण होते हैं। ऐसे जातक कभी-कभी अपने प्रेम संबंध अथवा वैवाहिक साथी के प्रति हद से ज्यादा चिंतित रहते हैं अथवा इसके बिलकुल विपरीत कभी-कभी अत्यधिक लापरवाही बरतते हैं। यही स्थिति व्यापारिक साझेदार के प्रति भी हो सकती है। ऐसे में जातक को चाहिए कि वह अपने प्रेम संबंध अथवा वैवाहिक संबंध में हद से ज्यादा अपेक्षाएँ न रखते हुए, मध्यमार्ग को अपनाते हुए रिश्तों का सही आनंद लें क्योंकि अत्याधिक भावनात्मकता से भी रिश्तों में दरार पड़ सकती है। संभव है कि, पिछले जन्म में जातक ने शुक्र के कार्यकत्वों के संबंध में कोई अनुचित कार्य किया हो साथ ही वह उचित बातों को सीखने से वंचित रह गया हो और जातक को सही सीख देने के लिए ही इस जन्म में शुक्र ने वक्रत्व धारण किया हो।
काल पुरुष की कुंडली में शनि दसवें और ग्यारहवें भाव के भावेश हैं। दसवाँ भाव कर्म का भाव होता है। वक्री शनि होने पर जातक को अपने कर्म और मेहनत को लेकर अहंकार हो सकता है। ऐसे लोगों में बहुधा कार्य के प्रति दीवानगी दृष्टिगोचर होती है। उनहें सदैव यह भय हो सकता है कि कार्यक्षेत्र में कोई उनसे आगे न निकल जाए और इसी कारण वे जीवन भर कार्य के पीछे ही भागते रहते हैं। अतिवादी प्रवृत्ति के चलते यदि स्थिति ठीक इसके विपरीत हो जाए तो जातक अत्यधिक आलसी और कार्य के प्रति बिल्कुल ही उदासीन हो जाता है। दोनों ही स्थितियाँ जातक के लिए घातक हैं। ग्यारहवाँ भाव लाभ भाव है। वक्री शनि होने पर जातक अपनी कमाई, वेतन तथा लाभ को लेकर अत्यधिक संवेदनशील और चिंतित हो सकता है। वेतन या लाभ इत्यादि के संबंध में जातक अपने सहकर्मियों के साथ द्वेष भाव भी रख सकता है अथवा उनसे अपनी तुलना करके अपनी मानसिक शांति को भंग कर सकता है। ऐसे जातक अक्सर अपने वेतन अथवा पदोन्नति को लेकर असंतुष्ट हो सकते हैं। संभव है कि पिछले जन्मों में जातक अपने सहकर्मियों या मातहत कर्मचारियों को परेशान करता रहा हो, इसी के फलस्वरूप इस जन्म में जातक के सहकर्मी या मातहत कर्मचारीगण कार्यक्षेत्र में उससे आगे निकल रहे हों और इसी कारण जातक अत्यधिक परेशान होकर जी जोड़ मेहनत कर रहा हो और अपना पूरा जीवन कार्य करने में ही स्वाहा कर रहा हो। वक्री शनि होने की स्थिति में जातक को मध्यमार्ग का सहारा लेकर स्वार्थहीनता का परिचय देते हुए, संस्था के हित को दृष्टिगत रखते हुए, अपने सहकर्मी और मातहत कर्मचारियों का सहयोग करते हुए, ईमानदारी से बिना किसी द्वेष भाव के जीवन का आनंद लेते हुए कार्य करना सीखना चाहिए। अत्यधिक धन लाभ अथवा पदोन्नति की अपेक्षा करना मानसिक अशांति को जन्म देता है। अपने कार्यकत्वों से संबंधित वे सभी बातें वक्री शनि जातक को सिखाना चाहता है, जो वह पिछले जन्म में नहीं सीख पाया था।
अपनी पत्रिका में वक्री ग्रह को पहचानकर कोई भी व्यक्ति उस वक्री ग्रह द्वारा परोक्ष रूप से दी जाने वाली सीख को आत्मसात करके अपने जीवन को सरल बना सकता है। सरलता में परमेश्वर का वास होता है और जहाँ स्वयं ईश्वर विराजमान हों वहाँ शुभता ठहर जाती है। यही तो आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है।
- डॉ. सुकृति घोष (Dr. Sukriti Ghosh)
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र
शा. के. आर. जी. कॉलेज
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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