आत्मसम्मान का अर्थ और महत्व हिंदी निबंध आत्मसम्मान एक ऐसा भाव है जो व्यक्ति को अपने मूल्य और महत्व का एहसास दिलाता है। यह आत्म-मूल्यांकन की एक भावना
आत्मसम्मान का अर्थ और महत्व हिंदी निबंध
आत्मसम्मान एक ऐसा भाव है जो व्यक्ति को अपने मूल्य और महत्व का एहसास दिलाता है। यह आत्म-मूल्यांकन की एक भावना है जो व्यक्ति को अपनी ताकत और कमजोरियों, सफलताओं और असफलताओं, और अपनी क्षमताओं और सीमाओं को स्वीकार करने में मदद करती है।
उच्च आत्मसम्मान वाले लोग आत्मविश्वास से भरे होते हैं, अपने निर्णयों पर भरोसा करते हैं, और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं। वे जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित रहते हैं।
निम्न आत्मसम्मान वाले लोग अक्सर आत्म-संदेह, चिंता, और अवसाद का अनुभव करते हैं। वे दूसरों की राय पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं और खुद को कम आंकते हैं।
मनुष्य में दैवी तथा आसुरी प्रवृत्तियों का अपूर्व मेल होता है । जिनमें दैवी प्रवृत्तियों का प्राधान्य होता है उन्हें समाज देवता की संज्ञा देता है और जिनमें आसुरी प्रवृत्तियों की प्रधानता होती है उन्हें लोग राक्षस बना देते हैं । इस आधार पर सम्भवत: रावण, कंस, शिशुपाल आदि वर्ग के लोग राक्षस कहे गये थे तथा उनका विरोध करने की उदात्त क्षमता रखने के कारण लोक-कल्याण का विकास करने के कारण राम, कृष्ण, परशुराम आदि भगवान के अवतार माने गये थे । इन दोनों वर्गों में रहनेवाले तथा दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों से प्रभावित और प्रेरित होकर काम करने वाले लोग नर या मनुष्य कहे गये । राम के अनुज लक्ष्मण इस आधार पर नरत्व की सीमा में विहत किये गये। अर्जुन आदि भी इसी आधार पर मानवता के अधिकारी बने मानव अपने उच्च गुण और प्रवृत्तियों के कारण समाज में सम्मानित होता है । इस प्रकार के कुछ गुण मनुष्य की आत्मा से सम्बन्धित रहते हैं । आत्म-सम्मान इन्हीं गुणों में से एक महत्वपूर्ण गुण है ।
आत्म-सम्मान क्या है ?
मनुष्य में आत्म-सम्मान कई-कई रूपों में दिखाई पड़ता है । आत्म-सम्मान का अर्थ होता है मनुष्य के 'स्व' का सम्मान । इसका वह स्वयं अनुभव करता है तथा ऐसे सम्मान का वह अपने को अधिकारी भी मानता है । आत्म-सम्मान की भावना प्राय: सभी लोगों में थोड़ी-बहुत अवश्य होती है । कुछ लोगों में यह भावना अधिक जागरूक रहती है तथा दूसरी भावनाओं को गौण बनाकर प्रधानता प्राप्त कर लेती है तथा शेष अधिकांश लोगों में इसका बल न्यून मात्रा में रहता है और वे इतर भावनाओं के वशीभूत होकर आत्म-सम्मान की रक्षा नहीं कर पाते ।
आत्म-सम्मान उचित और न्यायपूर्ण मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है । मनुष्य को न्याय के पथ पर चलने में जिन कष्टों को सहन करना पड़ता है वह उन्हें सहन करने की शक्ति प्रदान करता है । उदाहरण के लिए अकबर के शासनकाल में प्रायः सभी भारतीय नरेश उसकी अधीनता स्वीकार करके सुख सुविधा के साथ अपना राज्य चलाते थे । मानसिंह भी उन्हीं राजाओं में था जिसे अकबर की कृपा प्रभूत मात्रा में थी । वह जब शोलापुर विजय करके लौटते हुए चित्तौड़ में महाराणा प्रताप से मिला तो उसके मन में प्रताप के प्रति विरोध की भावना नहीं थी । दोनों नरेश परस्पर प्रेम और सद् भावना से मिले । किन्तु भोजन के अवसर पर राणा का न आना मानसिंह को खटका । उन्हें सन्देह हो गया कि राणा प्रताप मुझे म्लेच्छ समझकर मेरे साथ भोजन नहीं करना चाहते अतः वे स्वयं नहीं आये अपने सन्देह को दूर करने के लिए उसने राणाजी को बुलाने का आग्रह किया । राणा जी ने बहाना किया और उसके सन्देह ने विश्वास का रूप धारण कर लिया। फिर उसका आत्मसम्मान जाग उठा और उसे अपनी शक्ति का ज्ञान हो गया, उसने उसके प्रयोग का उपक्रम किया । राजा की ओर से तवर उत्तर दिया गया। इससे मानसिंह का सामाजिक और जातीय अपमान हुआ । उसके आत्म-सम्मान को ठोकर लगी । प्रतिशोध की भावना ने जड़ जमा ली।
यह आत्म-सम्मान का एक रूप है जो समयानुसार मनुष्य में इतना प्रबल हो जाता है कि संसार में किसी भी वस्तु को, मनुष्य की किसी भावना को उसके लिए कुछ नहीं गिनता । आत्म-सम्मान में अदम्य शक्ति, अलौकिक सहिष्णुता तथा असीम उत्साह होता है । इससे प्रेरित हो मनुष्य असम्भव को सम्भव, कठिन को सरल तथा सुखमय जीवन को भी कष्टमय बना डालता है ।
आत्म-सम्मान की विशेषताएँ
आत्म-सम्मान आत्मा की वह वृत्ति है जिससे न्याय पर मिटने की अभिलाभा और दृढ़ होती है । यह साहस की गिनी भावना है । इसका सम्बन्ध मूल आत्मा से रहता है । अतः शुद्ध स्वाभिमान में परपीड़न तथा मिथ्याभिमान और अहंकार का अभाव रहता है । इस भावना में अपने से सबल का सामना करने की प्रेरणा रहती है और भय का स्थान इसमें नहीं होता । अभिमान अपने से निर्बल पर मानसिक अधिकार प्राप्त करना चाहता है या उसे प्रभावित करने का अभिलाषी है । इस प्रकार अभिमान अपनी शक्ति को अपने सम्मान का साधन बनाता है तथा साधारण लोगों से मिथ्या सम्मान पाकर सन्तुष्ट हो जाता है । परन्तु आत्म-सम्मान अन्याय और मिथ्याभिमान पर विश्वास नहीं करता । अपने से निर्बल को वह प्रभावित करने की कोशिश भी नहीं करता है । अत: आत्म-सम्मान की भावना का समाज में आदर होता है ।
लोक व्यवहार में महत्त्व
आत्म-सम्मान एक ऐसा गुण है जिसका सम्बन्ध लोक-व्यवहार में विशेष रूप से होता है । आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए मनुष्य सदैव तैयार रहता है। आत्म-सम्मान की सबसे बड़ी प्रतिद्वन्द्वी लोक- निन्दा है । आत्म-सम्मान इसको सहन नहीं कर पाता । निन्दित होने से पहले वह मर जाना अच्छा मानता है। इससे लाभ यह होता है कि आत्म-सम्मानी व्यक्ति निन्दनीय कार्यों से यथासम्भव बचने का प्रयास करता है और बचता है। इससे संसार की तमाम बुराइयों से वह दूर रहता है। चूंकि आत्म-सम्मानी व्यक्ति लोक-सम्मान से प्रसन्न होता है अत: परोपकार, दया, करुणा, निर्बल-रक्षा आदि कार्यों को बराबर करता रहता है, जिसमें आत्म-सम्मान की भावना है । उसमें स्वार्थ, लालसा आदि-भावनायें किंचित मात्र भी नहीं आतीं । वह समाज को उन्नत बनाने का सदा प्रयत्न करता रहता है। आत्म-सम्मान रखने वाले व्यक्ति में अपार शक्ति होती है, जिससे वह बड़ी-बड़ी आपदाओं को भी नगण्य मानता है।
व्यावहारिक दृष्टि से इससे हानियाँ भी होती हैं। मनुष्य जीवन के सदैव दो पक्ष होते हैं, प्रथम लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक या अलौकिक । अलौकिक का अर्थ भौतिक वस्तुओं से है, जो हमारे शरीर के सांसारिक सुखों और सुविधाओं में सहायक होती है अतः इसका सम्बन्ध शरीर से ही विशेष रूप से है । आध्यात्मिक पक्ष का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है और इसका सुख-दुख सात्विक भावों से सम्बन्ध होता है । आत्म-सम्मानी सांसारिक सुख- सम्पत्ति की परवाह नहीं करता और वह लोक-सम्मान के पीछे इनका त्याग कर देता है। इससे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं । राणा के व्यवहार से मानसिंह तिलमिला उठा और उसने मुगल सेना की सहायता से राणा का नाश करने के लिए या उसको झुकाने के लिए चढ़ाई की। फलतः भयंकर युद्ध हुआ । मानसिंह के नायकत्व में अपार मुगल शक्ति को दबाने में राणा की सीमित पर अदम्य शक्ति सफल न हो सकी। उन्हें प्रभूत हानि उठाकर भागना पड़ा। राजकुमार तथा राजकुमारी को रोटियों के लिए रोते देखना पड़ा। फिर भी आत्म-सम्मान छोड़कर अकबर की अधीनता नहीं स्वीकार की तथा मानसिंह से बंधुत्व भी नहीं जोड़ते बना ।
उपसंहार
आत्म-सम्मान को प्रभाव मनुष्य तथा समाज दोनों पर पड़ता है । ऐसे मनुष्य को समाज सदा आदर के साथ स्मरण करता है । उनके अनुयायियों की कमी हो सकती है पर उनमें दृढ़ता की एक मान्य परम्परा रहती है। इससे आत्मसंतोष की भावना बढ़ती है तथा इससे आत्म-शान्ति मिलती है ।मानवता के मूल गुणों में आत्म-सम्मान का महत्वपूर्ण स्थान है । अतः हर उन्नतिशील मनुष्य का यह लक्ष्य होना चाहिए कि वह यथासम्भव आत्म-सम्मान को
विकसित करे और उसकी रक्षा करे ।
आत्मसम्मान एक महत्वपूर्ण भावना है जो हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है। उच्च आत्मसम्मान हमें मानसिक रूप से स्वस्थ, सफल, और खुशहाल जीवन जीने में मदद करता है।
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