हिंदी साहित्य में गद्य काव्य का उद्भव और विकास एक क्रमिक प्रक्रिया है गद्य काव्य किसे कहा जाता है गद्य काव्य के कितने भेद हैं ऐतिहासिक क्रम विकास
हिंदी साहित्य में गद्य काव्य का उद्भव और विकास
हिंदी साहित्य में गद्य काव्य का उद्भव और विकास एक क्रमिक प्रक्रिया है। गद्य काव्य ने हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध किया है। गद्य काव्य ने सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक चेतना को जागृत किया है। गद्य काव्य ने पाठकों को मनोरंजन और शिक्षा प्रदान की है।
गद्यकाव्य को प्राय: विद्वानों ने भावात्मक निबन्धों के अन्तर्गत विवेच्य समझा है। बाबू गुलाबराय ने इन दोनों का पार्थक्य निरूपित करते हुए लिखा है- "दोनों में भावना का प्राधान्य तो अवश्य है किन्तु भावात्मक निबन्धों की अपेक्षा गद्यकाव्य में कुछ वैयक्तिकता और एकतथ्यता अधिक होती है। उसमें एक ही केन्द्रीय भावना का प्राधान्य होने के कारण यह निबन्ध की अपेक्षा आकार में छोटा होता है और उसमें अन्विति भी कुछ अधिक होती है। निबन्धकार विचार-श्रृंखला के सहारे इधर-उधर भटक भी सकता है किन्तु गद्यकाव्य एक निश्चित ध्येय की ओर जाता है, उसमें इधर-उधर विचरण की गुञ्जाइश नहीं। " बाबू गुलाबराय ने गद्यकाव्य के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखा है—“गद्यकाव्य की भाषा गद्य की होतीं है, किन्तु भाव प्रगीत काव्यों के। गद्य शरीर में पद्य की आत्मा बोलती दिखाई देती है। भाषा का प्रभाव भी साधारण गद्य की अपेक्षा कुछ अधिक सरस और संगीतमय होता है। "
गद्य काव्य किसे कहा जाता है
गद्यकाव्य के सम्बन्ध में कुछ प्रसिद्ध गद्य-काव्यकार एवं समीक्षकों के मत इस प्रकार हैं -
- रायकृष्णदास - "हिन्दी में 'कविता' और 'काव्य' शब्द पद्यमय रचनाओं के लिए ही रूढ़ हो गए हैं, यद्यपि वस्तुतः कोई भी रचना रमणीय हो, काव्य या कविता है। इसी कारण गद्यमय रचना के लिए हमें गद्यकाव्य या गद्यगीत का प्रयोग करना पड़ता है।
- वियोगी हरि - "गद्यकाव्य की परिभाषा मेरी दृष्टि में वही है जो पद्यकाव्य की है। मैं दोनों में कोई अन्तर नहीं देखता। छन्द में रसात्मक भावों को बाँधा जाए या स्वतन्त्र रहने दिया जाए, कोई अन्तर नहीं पड़ता-हाँ, संगीत अपने स्वरूपों में दोनों ही प्रकारों में रहना चाहिए। " 'सद्गुरुशरण अवस्थी "मेरी समझ में कल्पनाप्रधान आलेख, जिसमें रागतत्व मिश्रित हो और बुद्धितत्व अप्रधान हो, उसे गद्यकाव्य कहेंगे ।
- डॉ. रामकुमार वर्मा - "गद्यगीत साहित्य की भावात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें कल्पना और अनुभूति काव्य-उपकरणों से स्वतन्त्र होकर मानव-जीवन के रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त और कोमल वाक्यों की धारा में प्रवाहित होती है।
- दिनेशनन्दिनी डालमिया - "गद्यकाव्य के लिये शब्दों का सुचारु चयन बहुत आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना वह बिल्कुल रसशून्य और सूखा प्रतीत होगा। रंगीन भाषा के अभाव में गद्यकाव्य की रचना असम्भव है।"
- डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी -" भावावेग के कारण एक प्रकार का लययुक्त झंकार होता है, जो सहृदय पाठक के चित्त को भावग्रह के अनुकूल बनाता है। ऐसा गद्य ही गद्यकाव्य का प्राण है।
गद्य काव्य के कितने भेद हैं?
डॉ. कमलेश ने गद्यकाव्यात्मक कृतियों का प्रवृत्तिगत विभाजन करते हुए उनके पाँच वर्ग माने हैं—
- प्रेमात्मक गद्यकाव्य, इसके दो उपविभाग हैं—आध्यात्मिक और लौकिक । आध्यात्मिक गद्यकाव्य भी रहस्योन्मुख या भक्तिपरक होता है।
- राष्ट्रीय भावना से समन्वित गद्यकाव्य ।
- ऐतिहासिक गद्यकाव्य ।
- प्रकृति सौन्दर्यमूलक गद्यकाव्य ।
- स्फुट गद्यकाव्य मनोवृत्ति प्रधान, व्यक्तिं प्रधान, तथ्य प्रधान तथा सूक्ति प्रधान ।
गद्य काव्य का ऐतिहासिक क्रम
गद्यकाव्य हिन्दी साहित्य की एक स्वतन्त्र विधा है, जिसका प्रारम्भिक रूप हमें ब्रजभाषा में रचित 'गोविन्द हुलास' नाटक में मिलता है। लगभग ढाई सौ वर्ष से अधिक पुराना यह ब्रजभाषा का सर्वांगपूर्ण नाटक है। इसकी रचना 17वीं शती के उत्तरार्द्ध या 18वीं शती के प्रारम्भ में हुई। गोविन्द हुलास 'रूप- गोस्वामी के संस्कृत भाषा में रचित 'विदग्ध माधव' नाटक का किसी चैतन्यसम्प्रदाय द्वारा किया हुआ अनुवाद है। गोविन्द हुलास नाटक में कथोपकथनों में बड़ा ललित पद्य प्रयुक्त हुआ है। हितहरि वंश सम्प्रदाय के अनन्यअलिजी की ब्रजभाषा की गद्य रचनाओं में भी ललित गद्य प्रयुक्त है।
गद्य काव्य का विकास
खड़ी बोली में गद्यकाव्य का विकास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। डॉ. कमलेश ने लिखा है—“हिन्दी गद्य में भारतेन्दु द्वारा जिस भावुकता का समावेश किया गया था और जिसने उनकी कृतियों में चाहे वे उनके नाटक हों या समर्पण, चाहे निबन्ध हों या उनके द्वारा सम्पादित पत्रों की टिप्पणियाँ, कवित्व का समावेश किया उसी ने गद्यकाव्य को जन्म दिया और उन्हीं के मण्डल द्वारा सुसज्जित होकर उस रूप में आया जिसे सर्वश्री वियोगीहरि और चतुरसेन शास्त्री ने प्रस्तुत किया।" भारतेन्दु युग में भावुकतापूर्ण गद्य-लेखन की शैली का अनुकरण करने वालों में गोविन्दनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन, ठाकुर जगमोहन सिंह आदि प्रमुख हैं।
भारतेन्दु-युग में गद्यकाव्य शैली के रूप में प्रकट हुआ तो बाबू ब्रजनन्दनसहाय की 'सौंदर्योपासक' रचना में वह अपने स्वतन्त्र रूप को प्राप्त कर सका। जयशंकर प्रसाद ने अपनी 'इन्दु' पत्रिका में गद्यकाव्य को विशेष प्रश्रय दिया। बंगला के चन्द्रशेखर मुखर्जी ने 'उद्भ्रान्त प्रेम' नामक रचना में गद्यकाव्य को रूप दिया जिसका हिन्दी में अनुवाद हुआ। इसे रचना की हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में विशेष चर्चा रही। इससे प्रेरित होकर राजा राधिकारमण प्रसादसिंह ने 'नवजीवन' या 'प्रेमलहरी' का निर्माण किया। पं. माखनलाल चतुर्वेदी और जयशंकर प्रसाद ने भी अपने गद्यकाव्य में गद्य में काव्य का पुट देकर गद्यकाव्य का पोषण किया ।
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