हिंदी संस्मरण का उद्भव और विकास संस्मरण हिंदी साहित्य की एक गद्य विधा है जिसमें लेखक अपने जीवन के किसी विशिष्ट अनुभव या घटना को स्मृतियों के आधार पर
हिंदी संस्मरण का उद्भव और विकास
संस्मरण हिंदी साहित्य की एक गद्य विधा है जिसमें लेखक अपने जीवन के किसी विशिष्ट अनुभव या घटना को स्मृतियों के आधार पर लिखता है। यह विधा आत्मकथा से भिन्न होती है क्योंकि इसमें लेखक अपने पूरे जीवन का वर्णन नहीं करता है, बल्कि किसी विशेष प्रसंग पर केंद्रित रहता है।
संस्मरण का क्या अर्थ है
अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को व्यंजनामूलक सांकेतिक शैली में लेखक द्वारा कलात्मक अभिव्यक्ति देना संस्मरण कहलाता है। यह अँग्रेजी के Memoiors का पर्याय है, जिसमें किसी व्यक्ति से सम्बन्धित विशिष्ट प्रसंग का सम्यक् एवं समग्र स्मरण होता है।
रेखाचित्र और संस्मरण में अंतर
रेखाचित्र और संस्मरण में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इन दोनों विधाओं के लब्ध -प्रतिष्ठित लेखक पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने डॉ० कैलाशचन्द्र भाटिया को लिखे अपने एक पत्र में इनके पार्थक्य की ओर अंगुली-निर्देश करते हुए बताया था कि-“रेखाचित्र में किसी वस्तु या व्यक्ति के जीवन का चित्रण होता है- उसमें प्रकाश भाग तथा छाया भाग के साथ, गुण-दोषों का विधिवत् वर्णन करते हुए संस्मरण में मुख्यतया पुरानी बातें याद की जाती हैं चरित्र-चित्रण तो दोनों में ही हो जाता है। संस्मरण प्रायः बीती हुई बातों या दिवंगत व्यक्तियों के बारे में लिखे जाते हैं।"
दूसरी ओर डॉ० देवकीनन्दन श्रीवास्तव का कथन है कि - "रेखाचित्र और संस्मरण में अन्तर है। रेखाचित्र में वर्ण्य-विषय अथवा व्यक्ति के स्वरूप अथवा चरित्र की रूपरेखा उभारना प्रमुख लक्ष्य होता है, पर संस्मरण में वर्ण्य-व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यक्तित्व की झलक देने के साथ-ही-साथ स्वयं लेखक के दृष्टिकोण एवं अभिरुचि विशेष का पुट प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहता है। कहीं-कहीं तो संस्मरण में इनकी मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि वर्ण्य व्यक्ति गौण प्रतीत होने लगता है, वर्ण्य-व्यक्ति के प्रति लेखक की धारणा एवं प्रतिक्रिया का ही वर्णन प्रधान हो जाता है। वास्तविकता यह है कि संस्मरण उन्हीं के विषय में लिखे जाते हैं जिनके प्रति लेखक का कोई निजी रागात्मक सम्बन्ध अथवा क्षेत्र-विशेष के सन्दर्भ में कोई विशेष आत्मीयता का भाव प्रतिष्ठित रहता है। यही कारण है कि संस्मरण में लेखक तटस्थ नहीं रह पाता ।"
संस्मरण की विशेषताएं
संस्मरण सामान्यतः प्रसिद्ध व्यक्ति ही लिखता है। अपने कार्यक्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त करके अपने जीवन के कुछ खंड जिनमें अन्य जनों को सहज रुचि हो सकती है, संस्मरण के रूप में प्रस्तुत करता है।
यह बात उस संस्मरण की हुई जब व्यक्ति अपने सम्बन्ध में लिखता है। सामान्यता संस्मरण दूसरों के सम्बन्ध में लिखे जाते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रतिष्ठित, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक व साहित्यिक होते हैं। उनका समाज में विशेष सम्मान और प्रभाव होता है। उनके व्यक्तित्व और चरित्र में कुछ ऐसी विशेषताएँ व गुण होते हैं जो दूसरों को प्रेरित और प्रभावित करते हैं। लेखक उसी प्रेरणा और प्रभाव-परिधि में आकर सम्बन्धित व्यक्ति का संस्मरण लिखता है।
संस्मरण वही अच्छे होते हैं जो रोचक, सुस्पष्ट और सुसंगठित होते हैं। जिनके भावों और विचारों में तारतम्य तथा अनुभूति-प्रकाशन में क्रमबद्धता होती है।
जब संस्मरण अपने सम्बन्ध में लिखे जाते हैं तो वे आत्मकथा के निकट होते हैं और जब अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में लिखे जाते हैं तो जीवन के निकट होते हैं। संस्मरण संदर्भित व्यक्ति के उद्घाटक भी होते हैं। अतः संस्मरणकार का मनोवैज्ञानिक ज्ञान प्रौढ़ होना चाहिए। संस्मरण अतीतानुभूतियों का विवरण-मात्र नहीं होता अपितु व्यक्ति के व्यक्तित्व के उन मर्मस्थलों का प्रकाशक भी होता है, जिनसे प्रेरित होकर लेखक संस्मरण की रचना में प्रवृत्त होता है। संस्मरण द्वारा संस्मरण्य व्यक्ति के देशकाल का भी प्रकाशन होता है। जिस क्षेत्र का वर्ण्य व्यक्ति होता है, उसके व्यक्तित्व के विधायक विवरण और निर्मात्री परिस्थितियों का चित्रण किया जाता है। उदाहरणार्थ यदि व्यक्ति साहित्यिक है तो उसके संस्मरणों में जहाँ लेखक उसके साहित्यिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करेगा, वहीं उसके महत्व व स्थान को बताने के लिए उसकी तत्कालीन साहित्यिक परिस्थितियों का भी वर्णन करना पड़ेगा। इसी प्रकार राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र के व्यक्तियों के भी संस्मरण लिखे जायेंगे ।
संस्मरण रचना भी सोद्देश्य होती है। परन्तु इसका उद्देश्य अन्य विधाओं से पृथक् है । इसमें लेखक अपने समय के इतिहास को लिखना चाहता है, परन्तु इतिहासकरार के वस्तुपरक रूप से वह बिल्कुल अलग है। संस्मरण लेखक जो स्वयं देखता है, जिसका वह स्वयं अनुभव करता है, उसी का वर्णन करता है, उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ भी रहती हैं। इस दृष्टि से वह निबन्धकार के समीप है। वह वास्तव में अपने चतुर्दिक के जीवन का वर्णन करता है। सम्पूर्ण भावना और जीवन के साथ इतिहासकार के समान वह विवरण प्रस्तुत करनेवाला नहीं है।
संस्मरण लेखन की शैली
संस्मरण लिखने की अनेक शैलियाँ हैं। कोई लेखक आत्मकथा शैली अपनाता है, कोई निबन्ध-शैली और कोई पत्रात्मक व डायरी-शैली। संस्मरण चाहे जिस शैली में लिखे जायँ उन्हें रोचक होना चाहिए और उनकी भाषा सहज, बोधगम्य, मर्मोद्घाटिनी, प्रवाहमयी और प्रभावशाली होनी चाहिए, अन्यथा संस्मरण में सजीवता नहीं आ सकेगी।
हिंदी में संस्मरण लेखन का इतिहास
संस्मरण लिखने की प्रथा भी विशेष रूप से चौथे दशक में प्रारम्भ हुई।' प्रेमचन्द के संपादकत्व में ‘हंस' का संस्मरण अंक प्रकाशित हुआ। यद्यपि उससे पहले उसकी योजना 'आत्मकथा' विशेषांक के रूप में ही बनी थी। संस्मरण-साहित्य के विकास में पं० बनारसीदास चतुर्वेदी (संस्मरण) तथा कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ने (दीपक जले शंख बजे) विशेष योग . दिया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह तथा बेनीपुरी ने भावात्मक शैली में बहुत रोचक संस्मरण लिखे। शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'पथ-चिह्न' में कुछ संस्मरण संकलित किये हैं। सियारामशरण गुप्त की कृति 'झूठ सच' में संस्मरण-विधा की कुछ उल्लेखनीय सामग्री है। सुप्रसिद्ध रेखाचित्रकार पं० श्रीराम शर्मा ने 'सन् बयालिस के संस्मरण' (1948) भी लिखे। महादेवी की कृतियों में दोनों विधाओं का धूप-छाँही मिश्रण है। महाराज रघुवीर सिंह की कृति 'शेष स्मृतियाँ', (1939) तथा भगवतशरण उपाध्याय की पुस्तक 'मैंने देखा' (1950) इसी विधा की रचनाएँ है । जैनेन्द्र के अनेक अविस्मरणीय संस्मरण 'ये तथा वे' और 'गाँधी कुछ स्मृतियाँ' में संकलित हैं। प्रेमचन्द विषयक संस्मरण में उनके व्यक्तित्व का बड़ी गहराई और निकटता से चित्रण है।
रामनाथ 'सुमन' की अनेक संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं । यथा 'हमारे नेता' 'छायावादयुगीन-स्मृति', 'स्मृति के पंख', 'मैंने समृति के दीप जलाये' आदि । प्रेमचन्द की धर्मपत्नी शिवरानी देवी ने 'प्रेमचन्द घर में' के नाम से उत्कृष्ट संस्मरण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार ब्रजमोहन व्यास ने 'बालकृष्ण भट्ट-संस्मरणों में जीवन' लिखा।
इसके साथ ही अनेक साहित्यकारों ने संस्मरणपरक कृतियों का वर्णन किया है। अज्ञेय (आत्मनेपद, लिखि कागद कोरे, अरे यायावर रहेगा याद) सेठ गोविन्ददास (स्मृति-कण), पी0 डी0 टंडन 'कुछ देखा कुछ सुना', क्षेमचन्द सुमन (जैसा हमने देखा), रायकृष्ण दास (भारतेन्दु संस्मरण), परिपूर्णानन्द वर्मा (बीती यादें), सुमित्रा कुलकर्णी (जिन्हें देखा जिन्हें जाना), विष्णुकांत शास्त्री (संस्मरण को पथिक बनने दो), अक्षयकुमार जैन (याद रही मुलाकातें), पं0 सत्यदेव (स्वामी श्रद्धानन्द), गोपीनाथ दीक्षित (पं0 जवाहरलाल नेहरू), देवदत्त शास्त्री (चन्द्रशेखर आजाद), शंकर सुलतानपुरी (संस्मरणों के बीच निराला), अमरेश (काव्य के इतिहास प्रसंग) आदि दर्जनों लेखक हैं, जिन्होंने इस प्रकार की रचनाओं से संस्मरण-विधा को समृद्ध बनाया है। अनेक व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिनन्दन-ग्रंथों में भी संस्मरण विषयक विपुल सामग्री प्रकाश में आयी है। इस तरह यह विधा निरन्तर विकास की ओर अग्रसर है।
हिंदी का प्रथम संस्मरण कौन सा है ?
हिंदी का प्रथम संस्मरण निश्चित रूप से कहना मुश्किल है, क्योंकि 'संस्मरण' विधा का विकास धीरे-धीरे हुआ और विभिन्न रचनाओं ने इसमें योगदान दिया।
लेकिन, बालमुकुंद गुप्त द्वारा प्रतापनारायण मिश्र पर लिखे गए संस्मरण और शिवराम पारसनाथ की "चित्रांश" रचना को इस विधा के शुरुआती उदाहरणों में गिना जाता है।
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