हिन्दी उपन्यास के भेद | उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं

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हिन्दी उपन्यास के भेद उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं विषयवस्तु की दृष्टि से ऐतिहासिक पारिवारिक सामाजिक पौराणिक वर्णनशैली की दृष्टि से घटना प्रधान

हिन्दी उपन्यास के भेद | उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं


भी उपन्यासों में तत्त्व एक समान नहीं होते। किसी उपन्यास में कोई पात्र महत्त्वपूर्ण होता है तो किसी में घटना महत्त्वपूर्ण हो जाती है। किसी उपन्यास का प्रतिपाद्य केवल मनोरंजन करना होता है तो किसी का सामाजिक मूल्यों का निर्धारण । किसी उपन्यास में कथावस्तु लिखने का ढंग फंतासी होता है तो किसी में सीधे-सीधे वर्णन होते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक उपन्यास का अलग रूप, तरीका या ढंग और उद्देश्य होता है। इस प्रकार प्रत्येक उपन्यास दूसरे से भिन्न होता है। आइए, भिन्न प्रकार के उपन्यासों के बारे में जानें।
 

कथावस्तु के आधार पर

प्रत्येक उपन्यास का कथानक अलग-अलग हो सकता है, कोई उपन्यास तत्कालीन यथार्थ से संबंधित हो सकता है, किसी का संबंध पुराण से हो सकता है, किसी का संबंध अतीत से हो सकता है। इसी प्रकार समकालीन यथार्थ से संबंधित उपन्यासों में कोई कथावस्तु सामाजिक व कोई पारिवारिक हो सकती है। इस प्रकार उपन्यासों को कथावस्तु की दृष्टि से निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है।

विषयवस्तु की दृष्टि से
  • ऐतिहासिक
  • पारिवारिक 
  • सामाजिक 
  • पौराणिक

वर्णनशैली की दृष्टि से 
  • घटना प्रधान 
  • भाव प्रधान
 

ऐतिहासिक उपन्यास

ऐतिहासिक उपन्यासों का संबंध अतीत से होता है अर्थात् उनकी कथावस्तु अतीत से जुड़ी होती है। ऐसे उपन्यासों में यह आवश्यक नहीं कि वह इतिहास-सम्मत सच्ची घटना को ही कथावस्तु का आधार बनायें, बल्कि इसमें वह कल्पना द्वारा कथा की संरचना कर सकता है। लेकिन सबसे प्रमुख बात यह है कि ऐसे उपन्यासों में भी समकालीन जीवन के सत्य का उद्घाटन होता है अर्थात् समकालीन जीवन की समस्याओं को अतीत की घटना के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में बाणभट्ट के युग की कथा के माध्यम से आज के समाज की जातिप्रथा पर करारी चोट की गयी है 

पारिवारिक उपन्यास

जिस उपन्यास में परिवार की समस्या या घटना को कथावस्तु का मुख्य आधार बनाया जाय, उन्हें पारिवारिक उपन्यास कहते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि परिवार समाज की इकाई है अर्थात् परिवार समाज का ही एक अंग है। अतः परिवार से जुड़ी होने के कारण ऐसे उपन्यास को सामाजिक उपन्यास के अंतर्गत भी रख सकते हैं। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद के 'निर्मला' उपन्यास में अनमेल विवाह के कारण परिवार में उत्पन्न समस्या को दर्शाया गया है।

सामाजिक उपन्यास

सामाजिक समस्या या घटना को लेकर लिखे जाने वाले उपन्यास सामाजिक उपन्यास कहलाते हैं। उदाहरण के लिए 'सेवासदन' और 'निर्मला' सामाजिक उपन्यास हैं। 

पौराणिक उपन्यास

हिन्दी उपन्यास के भेद | उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं

जिस उपन्यास में कथा का आधार पौराणिक लोकगाथा हो वह पौराणिक उपन्यास कहलाता है। ऐतिहासिक उपन्यास के समान इसमें कथा का आधार तो पुराण से संबंधित होता है लेकिन उद्देश्य आधुनिक होता है। उदाहरण-हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'अनामदास का पोथा'।

घटना प्रधान उपन्यास 

जिस उपन्यास में घटना की प्रधानता हो वह घटना प्रधान उपन्यास कहलाता है। ऐसे उपन्यासों में कथा की रोचकता घटना के विकास से जुड़ी रहती है। तेजी से बदलती हुई घटनाएँ कथा को रोचक बनाती हैं। पाठक उपन्यास को इसलिए पढ़ता जाता है कि कथा में एक के बाद एक घटना के साथ यह संभावना बनी रहती है कि आगे क्या होगा ? जासूसी, ऐयारी, तिलिस्मी उपन्यास इसी वर्ग में आते हैं।
 

भाव प्रधान उपन्यास

जिन उपन्यासों में भावनात्मक संघर्ष को कथा का आधार बनाया जाता है उसे भाव-प्रधान उपन्यास कहते हैं। ऐसे उपन्यासों में पात्रों के मन में उठने वाले भावों का चित्रण किया जाता है। उदाहरण के लिए जैनेंद्र के उपन्यास 'सुनीता' को इसी वर्ग में रखा जा सकता है।
 

चरित्र चित्रण के आधार पर

जिस उपन्यास में किसी मुख्य चरित्र को केंद्र में रखकर कथा का विकास किया जाता है उसे चरित्र-प्रधान उपन्यास कहते हैं। उदाहरण के लिए आप इस खंड में जिस उपन्यास का अध्ययन करेंगे वह चरित्र प्रधान उपन्यास है। 'निर्मला' उपन्यास का प्रमुख नारी पात्र है। पूरी कथा उसके जीवन से संबंधित है। अन्य छोटी कथाएं उसके चरित्र को पुष्ट करने के लिए निर्मित हुई हैं। चरित्र-प्रधान उपन्यास दो प्रकार के होते हैं। एक को तो आप जान गये दूसरा चरित्र - प्रधान उपन्यास वह होता है जिसमें लेखक चरित्र-चित्रण के लिए मनोवैज्ञानिक पद्धति का सहारा लेता है। अर्थात् पात्रों के मनोभावों को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए, जैनेंद्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी ने ऐसे उपन्यासों की रचना की।

परिवेश के आधार पर

प्रत्येक उपन्यास का कोई न कोई परिवेश होता है, लेकिन जिस उपन्यास में अन्य तत्वों की अपेक्षा परिवेश की प्रधानता होती है उसे परिवेश-प्रधान उपन्यास के अंतर्गत रखा जा सकता है। लेखक जिस परिवेश को अपनाता है उसकी संपूर्ण विशेषता को प्रकट करता है। रचनाकार परिवेश द्वारा मानव मन पर पड़ने वाले प्रभाव को ब सूक्ष्म ढंग से प्रस्तुत करता है। हिंदी के सारे मनोवैज्ञानिक उपन्यास वातावरण-प्रधान उपन्यास हैं। इलाचंद्र जोशी के उपन्यास को पढ़ने पर आप स्पष्ट पहचान सकते हैं कि उपन्यास में परिवेश अर्थात् वातावरण की ही प्रमुखता है।

शैली के आधार पर

शैली का अर्थ है रूप अर्थात् उपन्यास किस रूप में प्रस्तुत किया गया है। पहले उपन्यास लिखने का एक ही तरीका था अर्थात् कथावस्तु का आरंभ करके उसका विकास करना तथा अंत तक पहुँचा देना लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज उपन्यास लिखने की कई शैलियाँ विकसित हो चुकी हैं। अगर उपन्यास की कथा किसी पात्र के मुख से कहलाई गई है तो उसे आत्मकथात्मक शैली का उपन्यास कह सकते हैं। उदाहरण के लिए, आप हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'बाणभट्ट की आत्मकथा' तथा जैनेन्द्र के 'त्यागपत्र' को देख सकते हैं। अगर उपन्यास की कथा पत्रों के माध्यम से प्रस्तुत की गई है तो उसे पत्र शैली का उपन्यास कहेंगे। उदाहरण के लिए पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र लिखित 'चंद हसीनों के खतूत' उपन्यास पत्र शैली में है। अगर उपन्यास डायरी के रूप में लिखा जाए तो वह डायरी शैली का उपन्यास कहलाएगा। उदाहरण के लिए, डॉ. देवराज का उपन्यास 'अजय की डायरी' डायरी शैली में है। जिस उपन्यास में प्रतीक के द्वारा कथा कही गई हो उसे प्रतीकात्मक शैली का उपन्यास कहेंगे। उदाहरण के लिए, लक्ष्मीकांत वर्मा का 'खाली कुर्सी की आत्मा' प्रतीकात्मक उपन्यास है। अगर उपन्यास अतार्किक रूप में स्वप्न चित्रों की तरह लिखा गया हो तो उसे फंतासी शैली का उपन्यास कहेंगे। जिस उपन्यास की कथा लोककथा पर आधारित हो उसे लोक कथात्मक शैली का उपन्यास कहेंगे। कई उपन्यासों में एक से अधिक शैली का मिश्रण भी हो सकता है।

प्रतिपाद्य के आधार पर 

इस वर्ग के उपन्यास को हम दो आधारों पर बाँट सकते हैं। एक रचनाकार के दृष्टिकोण के आधार पर और दूसरा रचना में निहित उद्देश्य के आधार पर। रचनाकार की दृष्टि या तो आदर्शवादी होती है या यथार्थवादी । जब रचनाकार किसी आदर्श को रखकर उपन्यास की रचना करता है तो उसे हम आदर्शवादी उपन्यास कहते हैं। प्रेमचंद के आरंभिक उपन्यास इसी वर्ग में रखे जा सकते हैं। जब उपन्यासकार अपने आदर्श को न रखकर जीवन के यथार्थ को उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत करता है तब उसे यथार्थवादी उपन्यास की संज्ञा दी जाती है। इसमें जीवन की वास्तविकता को प्रस्तुत करना ही रचनाकार का उद्देश्य हो जाता है। जीवन का यथार्थ चाहे जैसा हो उसे उसी रूप में प्रस्तुत करता है। मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक उपन्यासकार समाज को मार्क्सवादी दृष्टि से देखते हैं और उसी के अनुरूप उपन्यास की रचना करते हैं। ऐसे उपन्यास को समाजवादी उपन्यास कह सकते हैं। यशपाल और नागार्जुन के उपन्यास इसी कोटि में आते हैं। मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में विश्वास रखने वाले उपन्यासकार उपन्यास में पात्रों के माध्यम से मनोविश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। ऐसे उपन्यास मनोविश्लेषणवादी उपन्यास कहे जाते हैं।

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