नाटक किसे कहते है परिभाषा विकास क्रम और तत्व भारत में नाटक साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसकी लम्बी परम्परा पाई जाती है साहित्य की सभी विधाओं में नाटक
नाटक किसे कहते है? परिभाषा, विकास क्रम और तत्व
नाटक किसे कहते है? परिभाषा, विकास क्रम और तत्व भारत में नाटक साहित्य की एक ऐसी विधा है, जिसकी लम्बी परम्परा पाई जाती है। भारत में ही नाट्यशास्त्र की रचना सबसे पहले हुई। यहाँ नाट्यशास्त्र के अनेक आचार्य हुए, जिन्होंने नाटक पर बड़े विस्तार और गम्भीरता से इस विधा पर विचार किया है। इनमें भरत, धनंजय, रामचन्द्र-गुणचंद्र, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ आदि के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं।
नाटक की परिभाषा
आचार्य धनंजय ने नाटक की परिभाषा इस प्रकार बताई है—अवस्था की अनुकृति नाटक है। यह परिभाषा सार्थक, व्यावहारिक और उपयोगी है। नाटक में अनुकरण तत्त्व की प्रधानता है। साहित्य की सभी विधाओं में नाटक ही वह विधा है, जिसमें अनुकरण पर सर्वाधिक बल दिया गया है। यह अनुकरण किसका होता है?
उत्तर है—कार्य, अर्थात् मानवीय जीवन के क्रियाशील कार्यों का। मनुष्य अनेक परिस्थितियों से हर क्षण गुजरता है। उसकी विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में रहने के कारण उसके जीवन-रंगमंच पर अनेक दृश्य (स्थितियाँ) आते-जाते रहते हैं। नाटककार नाटक की रचना करते समय इन्हीं स्थितियों का अनुकरण करता है।
नाटक का स्वरुप
नाटक में जीवन का यथार्थमूलक अनुकरण होते हुए भी नाटककार सर्जनात्मक कल्पना करता है। यही कल्पना नाटक को साहित्य की विधा प्रदान करती है। इसलिए नाटक एक ऐसी कला है, जिसमें अनुकरण और कल्पना दोनों का योग रहता है। इसका उद्देश्य पहले शिक्षण और मनोरंजन था। अब इसका लक्ष्य जीवन की विविध समस्याओं का उद्घाटन करना और मानवीय संवेदनाओं को प्रकाश में लाना है। यही कारण है कि प्राचीनकाल के नाटकों से आज के नाटक बिलकुल भिन्न हो गए।
नाटक के तत्त्व
भारतीय दृष्टि से नाटक के तीन तत्त्व माने गए हैं—वस्तु, नेता और रस । वस्तु नाटक की कथा को कहते हैं, जिसके दो प्रकार होते हैं—आधिकारिक कथा और प्रासंगिक कथा । आधिकारिक कथा वह है, जो नाटक में आरम्भ से अन्त तक पाई जाती है और प्रासंगिक कथाएँ लघु होती हैं, जो नाटकीय कथावस्तु की धारा में कुछ दूर चलकर समाप्त हो जाती हैं। प्राचीनकाल के नाटकों की कथा दुहरी होती थी— आधिकारिक और प्रासंगिक । दोनों प्रकार की कथावस्तुओं का उपयोग होता था। आज के नाटकों की कथावस्तु इकहरी होती है, अर्थात् केवल आधिकारिक कथा का प्रयोग होता है। आज नाटक आदर्शवादी से अधिक यथार्थवादी हो गए हैं, ऐतिहासिक पौराणिक से अधिक सामाजिक-राजनीतिक हो गए हैं।
नेता चरित्र को कहते हैं। यह नाटक की कथावस्तु का नेतृत्व करता है, इसे नायक कहते हैं। लेकिन, 'नेता' में नाटक के सभी प्रकार के चरित्रों का समावेश होता है— नायक, नायिका, विदूषक, प्रतिनायक, लघु चरित्र इत्यादि । नाट्यशास्त्र के अनुसार नायक को सर्वगुणसम्पन्न होना चाहिए। नायिका को भी उसी के अनुरूप होना चाहिए। प्राचीन नाटकों के अंत में नायक-नायिका की विजय और प्रतिनायक की पराजय दिखाई जाती थी। इस प्रकार के नाटक को सुखांत नाटक कहते हैं। किन्तु, आज दुखांत नाटक भी लिखे जा रहे हैं, जिसमें नायक-नायिका का दुःखद अंत या उनकी मृत्यु भी हो जाती है।
नाटक में रस
यह काव्य और नाटक दोनों की आत्मा है। प्राचीन दृष्टि से नाटक में शृंगार, करुण और वीर तीन रसों में से कोई एक प्रधान हो, ऐसी व्यवस्था है। नाटक के अंत में सत्य की जीत होती थी, इसलिए दर्शकों को आनंद की प्राप्ति होती थी। वास्तव में, रस नाटक के अंत में सारभूत प्रभाव होता था। आज इसकी आवश्यकता नहीं समझी जाती।
नाटक में रंगमंच
नाटक का रंगमंच से सीधा सम्बन्ध माना जाता है। इसीलिए, नाटक को दृश्यकाव्य कहते हैं, अर्थात् जो देखा जाए। नाटक की रचना तभी सफल होती है, जब वह रंगमंच पर सफलतापूर्वक अभिनीत किया जाता है। साहित्य की अन्य विधाओं से रंगमंच या अभिनय की अनिवार्यता आवश्यक नहीं मानी जाती। सभी प्रकार के अभिनयों में सात्त्विक अभिनय को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
नाटक की भाषा
नाटक की भाषा सामान्यतः सरल, सुबोध और व्यावहारिक होनी चाहिए। इसकी भाषा कविता की भाषा नहीं होनी चाहिए। यह पात्रानुकूल हो और देश-काल के अनुरूप हो ।
साहित्य की सभी विधाओं में नाटक सबसे अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि नाटक के दृश्यों को देखकर दर्शकों को जो आनन्द मिलता है, वह कविता या उपन्यास पढ़कर नहीं मिलता। समाज में रहने वाले लोगों के मन पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए, इसकी सर्वाधिक महत्ता है।
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