नीलू कुत्ता पाठ का सारांश प्रश्न उत्तर | महादेवी वर्मा

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नीलू कुत्ता पाठ का सारांश प्रश्न उत्तर महादेवी वर्मा जीव-जंतुओं से गहरा लगाव था लेखिका नीलू को बहुत ही प्रेम करती थी नीलू का स्वभाव अन्य कुत्तों से भि

नीलू कुत्ता महादेवी वर्मा


नीलू कुत्ता, महादेवी वर्मा की एक उत्कृष्ट रचना है। यह कहानी न केवल मनोरंजक है, बल्कि प्रेरणादायक भी है। यह हमें सिखाती है कि हमें हमेशा अपने प्रियजनों के प्रति वफादार और प्रेमपूर्ण रहना चाहिए।महादेवी वर्मा को जीव-जंतुओं से गहरा लगाव था। उन्होंने अपने कई संस्मरणों में अपनी करीबी और पालतू जीव-जंतुओं के क्रियाकलापों को चित्रित किया है।
 

नीलू कुत्ता पाठ का सारांश

प्रस्तुत संस्मरण 'नीलू' में भी महादेवी वर्मा जी ने नीलू नामक कुत्ते और उसकी माँ लूसी के क्रियाकलापों का बहुत ही सजीव, आकर्षक और भावनात्मक वर्णन किया है। नीलू के आकर्षक स्वभाव, स्वाभिमानी प्रवृत्ति, स्वामी के प्रति निष्ठा, प्रेमपूर्ण संबंध तथा परोपकारी वृत्ति का सहज और स्वाभाविक चित्रण महादेवी वर्मा की रचनात्मक शक्ति का प्रतीक है।
 
नीलू की माँ लूसी एक अल्सेशियन प्रजाति की कुतिया थी। उसका छरहरा शरीर सुंदरता से एक आकर्षण पैदा करता था। उत्तरायण के लोगों के साथ घुलमिलकर वह सबकी सहचर बन गई थी। उस क्षेत्र में खाद्य-पदार्थ की केवल एक ही दुकान थी, वह भी दो पहाड़ियों के बीच से जाने वाले पगडण्डी के आखिरी छोर पर। शीत काल में यह रास्ता बर्फ से जम जाता था। ऐसे समय में लोग दुकान से कुछ भी मँगाने के लिए लूसी के गले में एक कपड़े में सामान की पर्ची और रुपया बाँधकर छोड़ देते थे। लूसी बर्फ को चीरती हुई दुकान तक पहुँचती और दुकानदार पर्ची-रुपया लेकर मँगाये गए समान को फिर से लूसी के गले में बाँध देता। उसी दौरान लूसा का संपर्क भूटिया प्रजाति के एक कुत्ते से हुआ और लूसी ने दो बच्चों को जन्म दिया। इनमें से एक की मृत्यु ठंड के कारण हो गई। एक शाम दुकान से समान ले जाते वक्त लकड़बग्घे के हमले में लूसी को अपनी जान गँवानी पड़ी। उसके बच्चे का नाम नीलू रखा गया और लेखिका ने स्नेह से नीलू को पाला । 

नीलू कुत्ता पाठ का सारांश प्रश्न उत्तर | महादेवी वर्मा
अल्सेशियन माँ और भूटिया पिता से जन्में 'नीलू' का शारीरिक सौंदर्य, सौष्ठव, स्वभाव और चरित्र उसे एकदम अनूठा बना रहे थे। उसके भीतर कुत्तों के सामान्य गुणों के अपेक्षा स्वाभिमान और दर्प का भाव था। लेकिन अपने स्वामी के प्रति कर्तव्यनिष्ठा भी गहरी थी। वह लेखिका के सभी परिचितों से परिचित हो चुका था और लेखिका के प्रत्येक काम में उनकी मदद के लिए तत्पर रहता। उसके भीतर हिंसा और क्रोध के स्थान पर परोपकार का भाव था। इसी कारण रोशनदान में गौरैयों के द्वारा बनाये गये घोसले से जब उनके बच्चे उड़ने के प्रयास में गिर जाते, तब वह अन्य पशु-पक्षियों से उनकी रक्षा करता और उन्हें पुनः घोसलों तक पहुँचाने के लिए व्यग्र भी रहता। इस संदर्भ में एक और घटना का उल्लेख किया गया है। जब लेखिका द्वारा पाले गये खरगोश सुरंग बनाकर दूसरे कंपाउण्ड में जा निकले और उन पर जंगली बिल्ले ने हमला किया, तब उसकी आहट पाते ही नीलू ने उस कंपाउण्ड में पहुँचकर बिल्ले को भगाया। इसके साथ ही कोई और खरगोश बाहर न निकले, इस वजह से वह रातभर ठंड में वहीं खड़ा रहा, जिससे वह बीमार भी पड़ गया।
 
लेखिका के प्रति उसके हृदय में असीम प्रेम था। जब लेखिका एक मोटर दुर्घटना में घायल होकर अस्पताल में भर्ती हुई, तब नीलू की व्यग्रता बढ़ गई। लेखिका को घर पर न पाकर उसने भूख-हड़ताल शुरू कर दिया। विवश होकर उसे अस्पताल ले जाना पड़ा, लेखिका को देखकर ही वह संतुष्ट हो पाया। उसके बाद हर दूसरे दिन उसका अस्पताल जाकर लेखिका को देखना रूटीन बन गया। चौदह वर्ष की आयु पूरा करने के बाद वह बहुत ही शांत, दृढ़ और स्थिर भाव के साथ मरा। 

नीलू पाठ के प्रश्न उत्तर

प्र. लूसी की रूपाकृति का वर्णन करो । 
उत्तर : लूसी की रूपाकृति राजसी विशेषताओं से युक्त थी। वह हिरणी की समान छरहरी थी। उसका शरीर एकदम साँचे में ढला हुआ था, जिसमें रत्ती भर भी अतिरिक्त मांस न था। उसके रोम भूरे रंग के थे जो ऊपर से काले रंग का आभास देते थे। उसकी छोटी काली आँखें उसकी चतुराई का परिचय दे रहीं थी । उसके कान खड़े और सजग थे। उसकी पूँछ रोएँदार और उसकी पिछली टाँगों के टखने को स्पर्श कर रही थी। कुल मिलाकर उसकी आकृति सामान्य कुत्तों से भिन्न थी ।
 
प्र. लूसी का स्वभाव स्वच्छंद सहचरी के समान क्यों था? 
उत्तर : लूसी अल्सेशियन प्रजाति की कुतिया थी । उस प्रजाति का कुत्ता केवल एक ही स्वामी को स्वीकार करता है। लेकिन कभी-कभी परिवेश और परिस्थिति नहीं होती कि उसे एक ही व्यक्ति का स्वामित्व प्राप्त हो सके। ऐसे समय में वह सबके साथ स्वतंत्र, स्वच्छंद और सहचर हो जाता है। लूसी के साथ भी यही था। उसे कभी एक स्वामी न मिल सका। अतः वह उत्तरायण के सभी लोगों के साथ घुलमिल गई और स्वच्छंद होकर सबके अनुरोध को स्वीकार करने लगी ।
 
प्र.नीलू ने खरगोशों की प्राण-रक्षा किस प्रकार की ? 
उत्तर : एक बार लेखिका के द्वारा पाले गये खरगोश वहीं कम्पाउंड में एक सुरंग खोदकर दूसरे कम्पाउंड से बाहर निकलने लगे। यह दूसरा कम्पाउंड खुला था। जैसे ही सुरंग से खरगोश बाहर निकलते, वहाँ खड़ा एक जंगली बिल्ला उनपर हमलाकर उन्हें घायल कर देता। नीलू को इसकी भनक लग गई और वह दीवार लाँघ कर दूसरे कम्पाउंड में घुस गया एवं बिल्ले को भगाया। लेकिन सुरंग के अंदर के खरगोशों को बाहर के खतरे का एहसास नहीं था । अतः उन्हें सुरंग से बाहर निकलने से रोकने के लिए नीलू रातभर सर्दी में वहीं खड़ा रहा और खरगोशों के प्राणों की रक्षा हो पायी।
 
प्र. नीलू के स्वभावगत विशेषताओं को लिखिए । 
उत्तर : नीलू स्वभाव से स्वाभिमानी, स्वामी के प्रति कर्तव्यनिष्ठ, शांत, परोपकारी लेखिका के स्नेह से युक्त था। लेखिका के अनुसार उसमें इतना दर्प था कि वह अपना प्रिय से प्रिय खाद्य भी अवज्ञा के साथ देने पर इन्कार कर देता था। अपने स्वामी के प्रति उसे इतना लगाव था कि लेखिका के अस्पताल में भरती होने पर उसने भी खाना- पीना छोड़ दिया। इसके अलावा लेखिका के प्रत्येक कार्य में उनकी सहायता करने की तत्परता उसकी कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाती है। वह कभी गौरैया के बच्चों की रक्षा करता है तो कभी खरगोशों की। अतः यह उसकी परोपकारी प्रवृत्ति का प्रतीक है। 

प्र. लेखिका का नीलू-प्रेम अपने शब्दों में लिखिए। 
उत्तर : लेखिका नीलू को बहुत ही प्रेम करती थी। उनके भीतर उसके प्रति गहरी आत्मीयता थी। नीलू के माँ की मृत्यु के बाद वह उसे अपने साथ प्रयाग ले आई और उसका पालन-पोषण किया। इसके बाद उसे जीवन भर अपने साथ रखा। वह उसकी हर गतिविधि को आसानी से समझ लेतीं थी। लेखिका को नीलू के दर्प और स्वाभिमान के प्रति सम्मान की भावना थी। वह कभी भी ऐसा नहीं करती, जिससे नीलू के दर्प को ठेस पहुँचे। रुष्ट होने पर वह उसे मनाने का उपक्रम करती थी। हर वक्त अपने साथ पाकर उन्हें नीलू के रूप में एक सहयोगी की अनुभूति होती और वह उसकी किसी भी जिद्द को टालती नहीं थी ।
 
प्र. लूसी के अभाव में नीलू का पालन-पोषण कैसे हुआ? 
उत्तर : जब नीलू की उम्र मात्र चार या पाँच दिन की रही होगी, उसी समय उसकी माँ लूसी की मृत्यु हो गई। इसके बाद लेखिका ने चूर्ण दूध (पाउडर दूध) को घोलकर नीलू को पिलाना शुरू किया। उसे रजाई में रखा गया। लेकिन जब उसे अपने माँ की पेट की गर्मी न मिली, फिर उसे कोमल ऊन और अधबने स्वेटर की डलिया में रखा गया, जहाँ उसे पर्याप्त गर्मी मिल सके। इसके बाद लेखिका उसे अपने साथ प्रयाग वाले घर में ले आयी। वहीं उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ उसका पालन-पोषण किया। 

प्र. “जीवन के समान ही उसकी मृत्यु भी दैन्य से रहित थी” – आशय स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर : नीलू का स्वभाव अन्य कुत्तों से भिन्न था। उसमें एक दर्प और स्वाभिमान था। वह स्वामिभक्त और कर्तव्यनिष्ठ था, पर कभी भी उसने स्वामी की चाटुकारिता नहीं की। अपमान और डाँट पर वह नाराज होना भी जानता था। अर्थात् नीलू ने कभी भी स्वयं को दूसरे पर आश्रित मानकर दीनता प्रकट नहीं की। उसका पूरा जीवन दर्प, स्वाभिमान और कर्तव्य के साथ पूरा हुआ। इसके साथ ही उसकी मृत्यु में भी दर्प और स्थिरता थी। उसे अंत में किसी तरह का रोग नहीं हुआ और न ही जीवन के आखिरी पल में तड़पना, सिंसकना या दैन्य भाव दर्शाना पड़ा। वह ऐसे मरा जैसे जीवन के प्रति उसका कोई मोह ही न हो। 

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