राहुल सांकृत्यायन का साहित्यिक जीवन परिचय यात्रा वृत्तांत राहुल सांकृत्यायन हिंदी साहित्य के एक महान यात्री और साहित्यकार थे। उन्होंने अपने जीवन में
राहुल सांकृत्यायन का साहित्यिक जीवन परिचय यात्रा वृत्तांत
राहुल सांकृत्यायन हिंदी साहित्य के एक महान यात्री और साहित्यकार थे। उन्होंने अपने जीवन में विभिन्न देशों की यात्राएं कीं और अपने अनुभवों को यात्रा वृत्तांतों में लिखा। उनके यात्रा वृत्तांत हिंदी साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
राहुल सांकृत्यायन का जीवन परिचय
राहुल सांकृत्यायन एक महान् पंडित के साथ-साथ हिंदी यात्रा साहित्य के जनक भी थे। राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म 1 अप्रैल सन 1893 ई. को रविवार के दिन अपने ननिहाल पंडित रामशरण पाठक के यहाँ पंदहा नामक ग्राम में हुआ था, जो आजमगढ़ जिले के अंतर्गत आता है, इनका पैतृक गांव कनैला था। इनका बचपन का नाम केदारनाथ पांडेय था, इनके पिता का नाम गोवर्धन पाण्डेय था। राहुल जी के चार भाई व एक बहन थी जिसमें राहुल जी सबसे बड़े थे। राहुल जी की बौद्ध धर्म में आस्था थी, इसलिए इन्होंने अपना नाम केदारनाथ से बदल कर भगवान गौतम बुद्ध के पुत्र के नाम पर रख लिया। इनका 'सांकृत्या' गोत्र होने के कारण ही ये सांकृत्यायन कहलाये। इनके नाना पंडित रामशरण पाठक सेना में सिपाही थे, जिसके चलते इनके नाना दक्षिण भारत की बहुत यात्राएँ किये थे। जिनके नाना अपने बीते वर्षों की कहानी बालक केदारनाथ को सुनाते थे और इसी के चलते इनके मन में यात्रा के प्रति काफी उत्सुकता भर गयी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा रानी की सराय और फिर निजामाबाद में हुई थी। यहाँ से उन्होंने सन् 1907 ईस्वी में उर्दू में मिडिल पास किया। इसके बाद उन्होंने संस्कृत की उच्च शिक्षा वाराणसी से प्राप्त की। यहीं से इनके अन्दर पाली साहित्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। इनके पिता की इच्छा थी कि राहुल सांकृत्यायन जी आगे भी पढ़ें, पर इनका मन और कहीं था। इन्हें घर का बंधन अच्छा न लगा। घूमना चाहते थे। उनकी इस प्रवृत्ति के कई कारण थे। इनके नाना पंडित रामशरण पाठक यात्रा के बारे में कहानियाँ सुनाया करते थे, जिससे इनके मन में यात्रा प्रेम को अंकुरित कर दिया था। इसके बाद इन्होंने कक्षा 3 की उर्दू पाठ्य-पुस्तक पड़ी थी, जिसमें एक शेर निम्न प्रकार था-
सैर कर दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ?
जिन्दगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ ?
इस शेर के सन्देश ने बालक केदार के मन पर गहरा प्रभाव डाल दिया। इसके द्वारा इनके घुमक्कड़ी जीवन का सूत्रपात हुआ और आगे चलकर इन्होंने बाकायदा घुमक्कड़ों के निर्देशन के लिए 'घुमक्कड़-शास्त्र' लिखने का प्रयास किया और उसे सफलतापूर्वक लिख डाला।
इन्होंने पाँच-पाँच बार तिब्बत, लंका और सोवियत भूमि की यात्रा की थी । सन् 1930 में राहुल जी के यात्रा विवरण अत्यन्त रोचक, रोमांचक, शिक्षाप्रद, उत्साहवर्धक और ज्ञान-प्रेरक हैं।
उन्होंने श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। तब से उनका नाम राहुल सांकृत्यायन हो गया। इनको अनेक भाषाओं का ज्ञान था इसलिए इनको महापंडित कहा जाता था । वह 6 मास यूरोप में रहे थे। एशिया को इन्होंने जैसे छान ही डाला था। कोरिया, मंचूरिया, ईरान, अफगानिस्तान, जापान, नेपाल, केदारनाथ- बदरीनाथ, कुमायूँ-गढ़वाल, केरल-कर्नाटक, कश्मीर-लद्दाख आदि के स्थानों पर जिन्होंने भ्रमण किया। कुल मिलाकर राहुल साकृत्यायन जी की पाठशाला और विश्वविद्यालय यही घुमक्कड़ी जीवन था। हमारे देश के महान पंडित. हिंदी यात्रा साहित्य के जनक 14 अप्रैल सन् 1963 ई. को इस संसार को छोड़ कर हमेशा के लिए चले गये।
राहुल सांकृत्यायन का यात्रा वृत्तांत
राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें हिंदी यात्रा साहित्य का पितामह माना जाता है, ने अपने जीवनकाल में अनेक देशों की यात्राएं कीं और अपनी अनुभूतियों को यात्रा वृत्तांतों के रूप में लिखा। उनकी यात्राएं न केवल भौगोलिक थीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक भी थीं।
प्रमुख यात्रा वृत्तांत
- मेरी लद्दाख यात्रा: यह राहुल सांकृत्यायन का पहला यात्रा वृत्तांत है, जो 1934 में प्रकाशित हुआ था। इस यात्रा वृत्तांत में उन्होंने लद्दाख की यात्रा का वर्णन किया है।
- मेरी तिब्बत यात्रा: यह यात्रा वृत्तांत 1937 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने तिब्बत की यात्रा का वर्णन किया है।
- तिब्बत में सवा वर्ष: यह यात्रा वृत्तांत 1940 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने तिब्बत में बिताए अपने डेढ़ साल का वर्णन किया है।
- चीन में क्या देखा: यह यात्रा वृत्तांत 1951 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने चीन की यात्रा का वर्णन किया है।
- वर्ल्ड टूर: यह यात्रा वृत्तांत 1954 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने विश्व भ्रमण का वर्णन किया है।
राहुल सांकृत्यायन के यात्रा वृतांत का सारांश
यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि हिंदी लेखकों में राहुल सांकृत्यायन ने जितनी यात्राएँ की हैं उतनी किसी अन्य ने नहीं। उन्होंने यात्रा-वृत्तांत भी काफी लिखे हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि राहल की यात्राएँ मनोरंजन के लिए नहीं होती थीं बल्कि उनके पीछे एक महत् दर्शन छिपा होता था। सन् 1926 में उन्होंने पहली लद्दाख यात्रा की थी। इस संबंध में उन्होंने लिखा है-"मेरी लद्दाख यात्रा नाम से सन् 1939 में प्रकाशित यह वृत्तांत पहल कदमी का आख्यान नहीं और न किसी प्रकृति-निहारक कवि का वायवी दास्तान, बल्कि मेरठ से मुल्तान, डेरा गाजी खान, पूणछ रियासत, कश्मीर जोजला दर्रा होते हुए लद्दाख मार्ग की एक विजुअल रिपोर्ट।" राहुल का यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी साहित्य में अपना अनूठा सम्मान रखता है और इसमें दृश्यों का सजीव चित्रण भाषा के माध्यम से अनुपम आनंद की सृष्टि करता है।
यायावरी राहुल के जीवन का एक मिशन था। इसके पीछे उनकी जिज्ञासा वृत्ति थी। उनके यात्रा-वृत्तांतों में उस देश या स्थान के इतिहास-भूगोल की सम्यक् जानकारी मिलती है। साथ ही लोकजीवन के आत्मीय चित्र भी उनके यहाँ आसानी से मिल जाते हैं। राहुल के यात्रा-वृत्तांतों में सामान्य जन, उनके रीति-रिवाज, धर्म आदि का बेबाक वर्णन मिलता है। उनमें सहज भाषा, मुहावरे और रेखाचित्र की मोहकता के साथ उस क्षेत्र के जीवन, परिवेश यानी आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को उजागर करने की अद्भुत क्षमता है।
राहुल सांकृत्यायन जन्मजात घुमक्कड़ थे और वे आजीवन घुमक्कड़ बने रहे। लगभग 40 वर्षों तक उन्होंने निरंतर यात्राएँ कीं। तिब्बत, रूस और हिमालय उनकी यात्राओं के आकर्षण केंद्र थे। यात्राओं ने ही उन्हें एक लेखक के रूप में पहचान दी। उनका कहना है कि, "कलम के दरवाजे को खोलने का काम मेरे लिए यात्राओं ने ही किया, इसलिए मैं इनका बहुत कृतज्ञ हूँ।” उन्होंने अपनी यात्राओं के विविध, विचित्र व रोचक अनुभव यात्रावृत्तांतों में पिरोए हैं। उनके प्रमुख यात्रा-वृत्तांत हैं- तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी यूरोप यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा, किन्नर देश में, रूस में पच्चीस मास, एशिया के दुर्गम भूखंडों में, लंका, चीन में क्या देखा, हिमालय-परिचय, जापान, दार्जिलिंग-परिचय आदि। डॉ. रघुवंश के अनुसार- राहुल जी ने यात्रा-साहित्य के लिए विभिन्न माध्यम अपनाए हैं, शायद उनसे अधिक इस विषय पर इतने विविध रूपों पर किसी ने नहीं लिखा है।" दूसरे स्थान पर उन्होंने लिखा है कि, "यात्रा का बहुत बड़ा आकर्षण प्रकृति की पुकार में है। यायावर वही है जो चलता चला जाए, कहीं रुके नहीं, कोई बंधन उसे कसे नहीं और वह जो दर्शनीय है, ग्रहणीय है, रमणीय है अथवा संवेदनीय है, उसका संग्रह करता चले।”
कहने का तात्पर्य यह है कि यात्रा-वृत्तांत में रचनात्मकता का विशेष महत्व है। राहुल के यात्रा-वृत्तांत पढ़ते हुए इसका भरपूर अनुभव होता है। राहुल सांकृत्यायन का यात्रा- साहित्य गुण एवं परिमाण (संख्या) दोनों दृष्टियों से प्रचुर एवं उच्चकोटि का है। देवीशरण रस्तोगी ने लिखा है कि, "यात्रा-वर्णन लिखने वाले साहित्यिकों में राहुल का नाम सबसे आगे आता है। देश-विदेश के अनुभवों का जब वह वर्णन करते हैं तो उनकी शैली और अधिक रसात्मक हो जाती है। वास्तव में इस रसात्मकता का आधार उनका अनुभव रहता है।" इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन का यात्रा - साहित्य एक बड़े उद्देश्य को लेकर लिखा गया है जिसमें वर्णित भूभाग का इतिहास-भूगोल, संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य, ज्ञान विज्ञान सभी का विविधआयामी चित्रण मिलता है।
यात्रा-वृत्तांत वर्णन प्रधान एवं प्रकृतिपरक गद्य-विधा है। प्रकृति वर्णन तो आमतौर से सभी विधाओं में पाया जाता है लेकिन यात्रा-वृत्तांत का मूल ढाँचा ही इस पर खड़ा होता है। इसमें कथातत्व लगभग न के बराबर होता है। यात्रा ज्ञान और शिक्षा का प्रमुख साधन है। इससे मनुष्य की बुद्धि का विस्तार होता है। उसका अनुभव संसार समृद्ध होता है। घुमक्कड़ी के बादशाह माने-जाने वाले राहुल सांकृत्यायन के अनुसार-"मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ी से बढ़कर व्यक्ति और समाज के लिए कोई हितकारी नहीं हो सकता, क्योंकि लेखक यात्रा-वृत्तांत में वर्णित अपने अनुभवों से लोगों को ज्ञान-विज्ञान की एक दृष्टि प्रदान करता है और इस तरह साहित्य और समाज के लिए उसका लेखन महत्वपूर्ण योगदान साबित होता है।"
साहित्य में उन्हीं को यात्रा-वृत्तांत का दर्जा दिया जा सकता है जिनमें लेखक की अपनी प्रकृति भी प्रतिबिंबित होती हो। यात्रा-वृत्तांत में लेखक की फक्कड़ता, घुमक्कड़ी वृत्ति, उल्लास, सौंदर्यबोध और ज्ञानार्जन की उत्कट-अभिलाषा परिलक्षित होनी चाहिए। लेखक के मन पर बाह्य जगत् की जो भी प्रतिक्रिया होती है, जो भावनाएँ मन में उठती हैं, उसे वह गहराई के साथ व्यक्त करता है। इसीलिए यात्रा-वृत्तांत में संवेदना और अभिव्यक्ति का एक कलात्मक संतुलन देखा जा सकता है। इसमें सौंदर्य भावना के साथ-साथ किसी वस्तु के अंदर तक प्रवेश करने की जो बेचैनी होती है, वही लेखक को सफल यात्रा-वृत्तांतकार बनाती है अर्थात् जिज्ञासा और शोधवृत्ति का यात्रा-वृत्तांत में विशेष महत्व होता है।
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