वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ सारांश और प्रश्न उत्तर

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वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ सारांश और प्रश्न उत्तर vardan mangunga nahi kavita ka bhavarth कवि एक ऐसे व्यक्ति की भावनाओं को व्यक्त करते हैं

वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ सारांश और प्रश्न उत्तर


रदान मांगूंगा नहीं कविता, प्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह "सुमन" द्वारा रचित, एक प्रेरणादायक रचना है जो जीवन के संघर्षों का सामना करने और आत्मनिर्भरता का महत्व दर्शाती है।

इस कविता में, कवि एक ऐसे व्यक्ति की भावनाओं को व्यक्त करते हैं जो जीवन में किसी भी प्रकार का वरदान नहीं मांगना चाहता। वे दृढ़ निश्चयी हैं कि वे अपनी मेहनत और लगन से ही जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे।

वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ व्याख्या


यह हार एक विराम है 
जीवन महासंग्राम है 
तिल-तिल मिदूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं, 
वरदान माँगूँगा नहीं।

व्याख्या-  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि के विश्वास, श्रम और साहस की अभिव्यक्ति है। किसी भी विकट परिस्थिति से हार कर ईश्वर की शरण में जाना कवि को मंजूर नहीं है। वे कहते हैं कि, जीवन किसी महासंग्राम से कम नहीं है, जिसमें जीत के साथ पराजय भी लती है, लेकिन पराजय का अर्थ जी संघर्ष की समाप्ति नहीं, बल्कि एक विराम है। यह विराम ही शक्ति देगा पुनः अपनी उर्जा को एकत्रित कर जीवन संघर्ष में उतरने के लिए। अतः जीवन-संघर्ष में उन्हें कितनी भी तकलीफों को सहना ही क्यों न पड़े, तिल-तिल कर मरना ही क्यों न पड़े, लेकिन ईश्वर के पास जाकर जीत का वरदान माँगना उन्हें मंजूर नहीं है।
 
वरदान मांगूंगा नहीं कविता का भावार्थ सारांश और प्रश्न उत्तर
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए 
अपने खंडहरों के लिए 
यह जान लो मैं विश्व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं, 
वरदान माँगूँगा नहीं । 

व्याख्या -  कवि कहता है कि अपने दुखमय जीवन को सुखी और समृद्ध करने के लिए मैं ईश्वर से विश्व की धन-संपदा नहीं माँगूँगा । 

क्या हार में क्या जीत में 
किंचित नहीं भयभीत मैं 
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही, 
वरदान माँगूँगा नहीं । 

व्याख्या -  कवि कहता है कि जीवन जीत-हार, सुख-दुख और मान- अपमान का मेल है, अतः जीवन में हार-जीत में से कुछ भी मिले उन्हें सहज ही स्वीकारतें हैं। सुख से न तो उन्हें अतिशय मोह है और न दुख का भय । अतः जो भी प्राप्त हो, उसे वे स्वीकार करना चाहते हैं। ईश्वर से सुख, जीत, सम्मान पाने के लिए वरदान नहीं माँगूँगा ।

लघुता न अब मेरी छुओ 
तुम हो महान बने रहो 
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं, 
वरदान माँगूँगा नहीं।” 

व्याख्या - कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि तुम महान हो, तो महान बने रहो, मुझे अपनी लघुता से प्रेम है और तुम्हारी महानता कभी मैं तुमसे माँगूँगा नहीं। कवि का यह बिल्कुल ही स्वीकार नहीं है कि वह अपने जीवन के कष्टों को त्याग कर ईश्वर से सुख-समृद्धि की चाह रखें। उनके अनुसार सुख के समान ही दुख- वेदना भ. जीवन का हिस्सा है, जिन्हें व्यर्थ त्यागने जीवन का अपमान है। 

चाहे हृदय को ताप दो 
चाहे मुझे अभिशाप दो का ।
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं 
वरदान माँगूँगा नहीं।
 
व्याख्या - कवि ईश्वर से कहता है कि वह चाहे कवि के हृदय में सुख की ऊर्जा भरे या उनके जीवन को कष्टों के अभिशाप से भर दें। चाहे कुछ भी हो जाए वह जीवन पथ से भागेंगे नहीं और न ही ईश्वर से कभी कुछ भले की याचना करेंगें। 

वरदान मांगूंगा नहीं कविता का सारांश

वरदान माँगूँगा नहीं मनुष्य के स्वयं पर आस्था, विश्वास और संघर्षशील जीवटता की कविता है। कवि को इस बात का अनुभव है कि संपूर्ण सृष्टि को रहने लायक बनाने में मनुष्य की जी-तोड़ मेहनत और विश्वास का हाथ रहा है, अतः वह ईश्वर के वरदान और भाग्यफल में विश्वास नहीं रखता है। वह भली-भाँति जानता है कि जीवन संघर्षों की कहानी है, जहाँ अपने दम पर ही प्रत्येक लड़ाई जीती जा सकती है। इतना अवश्य है कि इस लड़ाई में निराशा, कुण्ठा और वेदना भी मिल सकता है। लेकिन इन नकारात्मक परिणाम के भय से ईश्वर की शरण में चले जाना या सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ देना मूर्खता है। अतः शिवमंगल सिंह 'सुमन' जीवन की प्रत्येक लड़ाई को स्वयं लड़ना चाहते हैं। बिना भय के, बिना हार-जीत की परवाह किये और बगैर ईश्वर के वरदान-अभिशाप की लालसा लिए वे लड़ाई लड़ना चाहते हैं।

वरदान मांगूंगा नहीं कविता हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। यह न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करती है। यह कविता पाठकों को प्रेरित करती है कि वे भी जीवन में हार न मानकर संघर्ष करते रहें और अपनी सफलता का निर्माण खुद करें।
 

कवि शिवमंगल सिंह सुमन का जीवन परिचय

हिंदी के प्रखर प्रगतिशील कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' का जन्म 1915 ई० में उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिला में हुआ था। यहीं से ही इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा आरंभ हुई। इन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बी. ए. और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एम. ए. एवं डी. लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कीं। इसके बाद इन्होंने ग्वालियर, इंदौर, और उज्जैन में अध्यापन का कार्य किया । इन्होंने उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर भी कार्य किया। कुछ दिनों तक नेपाल स्थित भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक सचिव के पद पर भी कार्यरत रहे । सन 1999 में भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य हेतु पद्मभूषण पुरस्कार प्रदान किया गया। 

सुमन जी ने छात्र जीवन से ही काव्य रचना प्रारंभ कर दिया था। उनकी रचनाओं में साम्यवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इसी कारण वे अपनी रचनाओं के द्वारा वर्गहीन समाज की कल्पना करते हैं, इसके साथ ही पूँजीवादी शोषण के प्रति तीव्र आक्रोश, राष्ट्रीयता और देश-प्रेम का स्वर इनकी कविताओं की मूल विषय-वस्तु हैं। हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आँखें नहीं भरी, विंध्य हिमालय, मिट्टी की बारात आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। 'मिट्टी की बारात' के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। सन् 2002 में इस महान साहित्य विभूति का निधन हो गया। 

वरदान मांगूंगा नहीं कविता के प्रश्न उत्तर

प्र। कवि किन-किन परिस्थितियों में वरदान नहीं माँगने की बात करता है? 
उत्तर: कवि जीवन को महासंग्राम मानता है, लेकिन उसका अपनी शक्ति, सामर्थ्य, साहस और श्रमनिष्ठा पर पूर्ण आस्था व विश्वास है। अतः वह जीवन के इस संघर्ष में ईश्वर के किसी भी सहारे या वरदान की परवाह नहीं करता। वह इस जीवन- संघर्ष में मर-मिटने को तैयार है, लेकिन ईश्वरीय वरदान नहीं चाहता। वह अपने जीवन को सुखी-समृद्ध बनाने के लिए प्रतिबद्ध है, अपने जीवन के अभावों को समाप्त भी करना चाहता है, लेकिन इसके लिए ईश्वर से विश्व की संपत्ति का वरदान नहीं चाहता। इतना सत्य है कि जीवन-संघर्ष में जाने के साथ पराजय भी मिल सकती है, लेकिन इस पराजय को जीत में बदलने के लिए ईश्वर से वरदान नहीं चाहता। कवि ईश्वर के सम्मुख स्वयं को लघु जानते हुए भी वह न तो उससे उसकी महानता चाहता है और न ही संघर्ष पथ से भागना चाहता है। वह समस्त विकट परिस्थितियों के मध्य से स्वयं ही उबरकर बाहर आने की चाह रखता है। 

प्र। निर्देशानुसार उत्तर दीजिए- 
निम्नलिखित पद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए- 
1. “ संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही, वरदान माँगूँगा नहीं।” 
उत्तर : कवि प्रत्येक स्थिति के मध्य समभाव से जीने का अभ्यासी है। अर्थात् वह जीवन संघर्ष के प्रत्येक सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव को अपने साहस, श्रम, शक्ति और सामर्थ्य के बल पर स्वीकार करना चाहता है, लेकिन ईश्वर से वह किसी भी किसी प्रकार की सहायता का आकांक्षी नहीं। स्पष्ट है कि वह जीवन को उसकी संपूर्णता में पसंद करता है, जहाँ जीत के साथ हार भी है। अतः उसे जीवन में हार या जीत सभी स्वीकार है. लेकिन अपनी हार को वह जीत में बदलने के लिए ईश्वर से वरदान प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं रखता है।
 
2. “कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं, बरदान माँगूँगा हीं।” 
उत्तर : कवि ईश्वर से किसी भी प्रकार की सहायता या वरदान लेने का पक्षधर नहीं हैं। वह ईश्वर से कहता है कि उसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता है कि ईश्वर उसके साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है। यदि ईश्वर कवि के भीतर संघर्ष पथ पर आगे बढ़ने की ऊर्जा भरता है, तब भी वह अपने मूल उद्देश्य से नहीं भटकेगा और अगर कवि को अभिशाप देता है, तब भी वह कर्तव्य के मार्ग में डटा रहेगा। वह कभी भी जीवन के मूल उद्देश्य अर्थात् जीवन को उसकी संपूर्णता के साथ जीने की इच्छाशक्ति को भूलने वाला नहीं हैं। दरअसल कवि प्रत्येक स्थिति के मध्य समभाव से जीने का अभ्यासी हैं और इस अभ्यास ने उनके भीतर जीवन के प्रति एक दृढ़ विश्वास पैदा किया है 

प्र। क्या आप भी अपने जीवन को संघर्ष से ही सफल बनाना चाहते हैं? अगर हाँ तो वह किस प्रकार? विचार लिखिए। 
उत्तर : हाँ, मैं भी अपने जीवन को संघर्ष के द्वारा ही सफल बनाने में विश्वास रखता शब्द हूँ। किसी के द्वारा दान में दी गई सफलता का रस न तो उतना स्वादिष्ट होता है और न ही हम उसके महत्त्व को पहचान पाते हैं, जितना कि स्वयं अर्जित की गई सफलता का आनंद होता है। इस सफलता को प्राप्त करने के लिए मैं दिन-रात कठिन परिश्रम करूँगा। परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने के साथ ही छोटे-मोटे सामाजिक कार्यों में निरन्तर अपना योगदान दूँगा। मैं हरसंभव कोशिश करूँगा कि अपने व्यक्तिगत और शैक्षणिक कार्यों में अपने परिवार की मदद कम से कम लूँ। यथासंभव अपने समस्त कार्य स्वयं संपादित करने का प्रयास करूँगा । 

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