भारत में वृद्धावस्था की बढ़ती समस्याएँ एवं समाधान भारत में, वृद्धावस्था एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक मुद्दा बनता जा रहा हैवृद्धजन के प्रति सामाजिक
भारत में वृद्धावस्था की बढ़ती समस्याएँ एवं समाधान
वृद्धावस्था जीवन का एक स्वाभाविक चरण है, जो शारीरिक, मानसिक और सामाजिक बदलावों के साथ आता है। इनमें से कुछ बदलाव चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, और वृद्ध लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
भारत में, वृद्धावस्था एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक मुद्दा बनता जा रहा है। 2021 में, 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या 120 मिलियन से अधिक थी, जो 2050 तक 200 मिलियन तक पहुंचने का अनुमान है। यह वृद्धि कई कारकों के कारण है, जिसमें जन्म दर में गिरावट और जीवन प्रत्याशा में वृद्धि शामिल है।
जीवन का उत्तरार्द्ध ही वृद्धावस्था है. वस्तुतः वर्तमान के भागदौड़, आपाधापी, अर्थ- प्रधानता व नवीन चिन्तन तथा मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है युवाओं द्वारा वृद्धों की उपेक्षा. वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं को लेकर आगमित होता है और अगर उस पर परिवार के सदस्य भी परिवार के बुजुर्गों/ वृद्धों को अपमानित करें, उनका ध्यान न रखें या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाएं, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है. इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा गया है कि - " जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल या ढीली पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए, क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष-प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है."
आश्रम व्यवस्था समाप्त हो जाने के फलस्वरूप शनैः-शनैः परिवार में वृद्धों के महत्व का ह्रास होने लगा. उन्होंने भी वानप्रस्थ/संन्यास सभी व्यवस्थाओं को त्यागकर अपने को महज सांसारिक जीवन तक समेट लिया. इसीलिए उनकी स्थिति व सम्मान में और गिरावट आई. वस्तुतः वैयक्तिक एवं सांसारिक दोनों दृष्टियों से वानप्रस्थ अवस्था का महत्व था. इसीलिए वर्तमान में वृद्धों की अवस्था में कुछ अधिक ही जटिलता का समावेश हुआ है और रही-सही कसर पूरी हो गई है, भौतिकवादी पाश्चात्यी तौर-तरीकों से आप्लावित इस वर्तमान की नवीन जीवन शैली से.
वृद्धावस्था का दुखमय जीवन
वस्तुतः वृद्धावस्था जीर्ण-शीर्ण काया का पर्याय है इसीलिए इसे रोगों, शारीरिक व्याधियों और कष्टों का केन्द्र माना जाता है. बुढ़ापा स्वयं एक बीमारी है. एक पोरीं, हजार बीमारी आदि कहावतें इसी ओर संकेत करती हैं. वैसे भी वृद्ध की शारीरिक क्षमता चुक गई होती है इसलिए उसे उचित सहारे व देखभाल की आवश्यकता होती है. उपचार भी अपरिहार्य हो जाता है, पर वर्तमान की पीढ़ी परिवार के वृद्धों को बोझ मानती है. इसलिए उनकी उचित देखभाल के अपने दायित्व से मुकर जाती है. इसलिए वृद्धों को कष्टसाध्य जीवन बिताने के लिए विवश होना पड़ रहा है. वैसे बहुत बार परिजनों का स्वार्थ, परिजनों की स्वयं की समस्याएं या अर्थाभाव भी वृद्धों की उचित देखभाल पर नकारात्मक प्रभाव अंकित करता है. कारण चाहे कुछ भी हो पर वृद्धों को तो दुःखमय जीवन बिताने के लिए विवश तो होना ही पड़ता है.
यथार्थ यह भी है कि पीढ़ी-अन्तराल (Generation-Gap) के कारण, पश्चिमी रंग- ढंग के कारण और नवीन सोच के कारण भी पुरानी और नई पीढ़ी में टकराव दृष्टिगोचर हो रहा है. वृद्धों के लिए यह मानसिक दुःख की अवस्था है कि उनके परिवार के युवा उनकी अवज्ञा करें, उन्हें महत्व न दें और उन्हें पुराने ख्यालातों का निरूपित करें.
आज की पीढ़ी न तो वृद्धों के अनुभवों से कुछ सीखने को तैयार है और न ही उनके नियंत्रण में रहने को वैसे दोनों पीढ़ियों की विचारधारा में टकराव का होना भी जटिलता की रचना कर रहा है वृद्ध चरित्र, रहन-सहन, वेशभूषा, आचार-विचार के मामले में सांस्कृतिक मान्यताओं का रूप देखना चाहते हैं और नई पीढ़ी से ऐसी ही अपेक्षा करते हैं, पर नई पीढ़ी इन सब बातों को दकियानूसी और पिछड़ेपन का प्रतीक मानकर इनको नजर अन्दाज कर जाती है. यह देखकर वृद्ध मानसिक संताप का अनुभव करते हैं. उन्हें नई पीढ़ी पतनशील दृष्टिगोचर होती है ।
यह तो सत्य है कि वृद्धों को शारीरिक कष्टों के दौर से तो गुजरना पड़ता ही है, क्योंकि "वृद्धावस्था का अर्थ ही है शक्तिहीन शरीर, रुग्ण काया और शिथिल मन " पर वृद्धों को आर्थिक तंगी की हालत से भी कष्टपूर्ण साक्षात्कार करना पड़ता है यहाँ तक कि कभी-कभी तो उन्हें दो जून की रोटी और सिर छिपाने के लिए छत भी नसीब नहीं होती है और उनके परिजन उन्हें मारे-मारे फिरने और वृद्धाश्रमों में शरण लेने को विवश कर देते हैं. कहीं-कहीं तो वृद्धों से नौकरों जैसा कार्य भी लिया जाता है और उन्हें रूखा- सूखा / बचा खुचा ही खाने को प्रदान किया जाता है. ऐसे वृद्धों की संख्या गिनी-चुनी ही होगी, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर या सम्पन्न होंगे. हकीकत तो यह भी है कि वृद्धों को मानसिक सहारे की आवश्यकता होती है. जीवन की इस संध्या में वे तन्हाई, उपेक्षा एवं निरर्थकता का अनुभव न करें. इस हेतु उन्हें यह अहसास कराने की आवश्यकता होती है कि वे अकेले, महत्वहीन और अनुपयोगी नहीं हैं, पर हकीकत तो यह है कि वर्तमान पीढ़ी अपने आप में इतनी मस्त-व्यस्त है कि उसे वृद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित करने की फुरसत ही नहीं है. आज परिवार के वृद्धों से कोई वार्तालाप करना, उनकी भावनाओं की कद्र करना, उनकी सुनना, कोई पसन्द ही नहीं करता है. जब वे उच्छृंखल, उन्मुक्त, स्वछंद, आधुनिक व प्रगतिशील युवाओं को दिशा-निर्देशित करते हैं, टोकते हैं तो प्रत्युत्तर में उन्हें अवमानना, लताड़ और कटु शब्द भी सुनने पड़ जाते हैं. वस्तुतः वृद्धावस्था मानसिक व्यथा का पर्याय है.
आज न तो कोई वृद्धों की कद्र करने वाला है और न ही उनके अनुभवों से सीखने का जज्बा रखने वाला अपने जीवन-साथी की मौत के उपरान्त तो एकाकी वृद्ध और अधिक सम्बल चाहता है. अधिकांश परिवारों में तो भाईयों के मध्य इस बात को लेकर विवाद होता रहता है कि वृद्ध माता-पिता का उत्तरदायित्व (बोझ) कौन निभाए. यह सब जानकर वृद्ध माता-पिता कैसा संताप अनुभव करते होंगे, यह कल्पनातीत है. जिन माता-पिता ने अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपनी संतान का लालन-पालन, संवर्द्धन व विकास किया हो और उनके वृद्ध हो जाने पर वही संतान उन्हें भार समझे तो ऐसी स्थिति में वृद्धों की पीड़ा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. यह कैसी विडम्बना है कि जो माता-पिता दस बच्चों को पाल सकता है, परन्तु 10 बच्चे उन्हीं माता-पिता का भरण-पोषण नहीं कर सकते हैं?
बहुतेरे मामलों में पुत्र-पुत्रियाँ तब तक तो अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करते रहते हैं जब तक कि वे अपने पास का धन, सम्पत्ति, जमीन-जायदाद उनके नाम नहीं कर देते, पर सम्पत्ति, धन का हस्तान्तरण होते ही या वसीयत सम्पन्न होते ही पुत्र-पुत्रियाँ माता-पिता के प्रति नजर बदल देते हैं और फिर आरम्भ हो जाता है वृद्धों की व्यथा, दुःखद अवस्था का समाप्त न होने वाला दौर. अधिकांश मामलों में तो वृद्धों पर अपने पक्ष में जमीन- जायदाद कर देने के लिए दबाव भी डाला जाता है और उन्हें प्रताड़ित भी किया जाता है. पराधीन होने के कारण वृद्ध अपने शौकों (धूम्रपान, संगीत, साहित्य अध्ययन, समाचार-पत्र वाचन) को भी पूरा कर पाने में असमर्थ होते हैं. अपने सामने अपने परिजनों को पतन की राह पर उन्मुख होते हुए देखने के लिए वे विवश होते हैं. उनके ज्ञान, सामर्थ्य, अनुभव व परिवक्वता का लाभ उठाने के लिए नई पीढ़ी तैयार ही नहीं है, क्योंकि उनके अनुसार पुरानी पीढ़ी कूपमंडूक, संकीर्ण व पिछड़ी रही है.
वृद्धावस्था की समस्या का समाधान
वस्तुस्थिति तो यह है कि पुरानी पीढ़ी नए विचारों, तौर-तरीकों, मान्यताओं और आधुनिकता को एकदम पचा नहीं पा रही है. इसलिए वह उद्वेलित, आक्रोशित व कुंठित (क्योंकि वह विवश है) होती रहती है. विचारों में असमानता व टकराव होने के कारण तनावपूर्ण स्थिति से सर्वाधिक दुष्प्रभावित वृद्ध ही होते हैं. न तो वृद्धों के मनोरंजन की सही व्यवस्था उपलब्ध है और न ही उनके समय को व्यतीत कराने वाला कोई माध्यम. परिजनों, नई पीढ़ी और समाज ने उन्हें निरर्थक, अनुपयोगी और नाकारा सिद्ध करके रख दिया है. जीवन की उत्तरावस्था में वृद्ध निःसन्देह अनेक कष्टों व समस्याओं से गुजर रहे होते हैं.
वृद्धों को चाहिए कि वे वृद्ध होने के पूर्व ही वृद्धावस्था हेतु निश्चित धनराशि बैंक में जमा करा लें या पेंशन बीमा योजना के सदस्य बन जाएं. सेवानिवृत्ति पर प्राप्त धनराशि को भी वे यदि स्वयं के लिए बैंक में जमा करके सुरक्षित रखें, तो उन्हें अर्थाभाव का सामना नहीं करना पड़ेगा. वृद्धों को चाहिए कि वे अपनी वसीयत करते समय उसे अपनी मृत्यु के उपरान्त लागू होने का प्रावधान कर दें, जिससे सम्पत्ति के प्रलोभन में ही सही, पर उनकी सन्तानें उनकी देखभाल तो करती रहेंगी.
वृद्धों को चाहिए कि वे नई पीढ़ी को टोकने-डाँटने के स्थान पर अपने को रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखने का प्रयास करें. अध्ययन, संगीत-श्रवण, सुबह-शाम की सैर को तो वह अपनाएं ही, एक वृद्ध-सभा बनाकर भी अपना दिल बहलाव करें. वृद्धों को चाहिए कि वे अपनी सार्थकता को सिद्ध करने के लिए यथासम्भव पारिवारिक कार्यों में मदद करें, बच्चों को कम्पनी दें, उन्हें पार्क-भ्रमण हेतु ले जाएं, कहानियाँ सुनाएं आदि. इस प्रकार उनकी उपयोगिता के कारण उनके पारिवारिक महत्व में वृद्धि होगी. वृद्धों को अपने पुराने विचारों को वर्तमान युग के अनुसार परिवर्तित करके ही नई पीढ़ी से व्यवहार करना होगा. यह समय की माँग भी है और विवेक का तकाजा भी. आज दूरदर्शनी संस्कृति, पॉप- म्यूजिक व स्वछंदता का युग है, ऐसे में वृद्धों को अपनी मान्यताओं को शिथिल करना ही होगा, तभी नई पीढ़ी से उनका अप्रिय टकराव टल सकेगा.
सरकार को भी चाहिए कि वह वृद्धावस्था पेंशन व अन्य प्रकार की सहायता का प्रावधान करे. वृद्धों की चिकित्सा हेतु भी विशेष अस्पतालों की व्यवस्था की जाए. वृद्धाश्रमों की भी पर्याप्त रूप में व समुचित व्यवस्था अपरिहार्य है. वैसे वृद्धों को कानूनी संरक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिए, जिससे उन्हें उनके पुत्र-पुत्रियों से पर्याप्त गुजारा भत्ता दिलाया जा सके. वास्तव में वृद्धावस्था समस्याओं का घर है इसलिए स्वयं वृद्ध, संतान, सरकार और समाज सभी के सामंजस्यपूर्ण सहयोगात्मक रुख से ही वृद्धों की समस्याओं पर नियंत्रण पाने का सकारात्मक प्रयास किया जा सकता है.
वृद्धजन के प्रति सामाजिक दायित्व
वस्तुतः यह नई पीढ़ी, परिजनों और समाज का नैतिक दायित्व है कि वह वृद्धों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक भाव व दृष्टिकोण रखे और उन्हें वेदना, कष्ट व संताप से सुरक्षित रखने हेतु सार्थक पहल करे. वास्तव में भारतीय संस्कृति तो बुजुर्गों को सदैव सिर-आँखों पर बिठाने और सम्मानित करने की सीख देती आई है. अगर परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण- पोषण को तरस रहे हैं, तो यह हमारे लिए लज्जा का विषय है. वृद्धों को ठुकराना, तरसाना, सताना, भर्त्सनीय भी है और अक्षम्य अपराध भी. सामाजिक मर्यादा, मानवीय उद्घोष व नैतिक चेतना सभी हमें वृद्धों के प्रति आदर, संवेदना व सहानुभूति प्रदाय की शिक्षा देते हैं. यथार्थ तो यह है कि वृद्ध समाज, परिवार और राष्ट्र का गौरव है. वृद्धावस्था बड़ी मुश्किल से आती है, पचास प्रतिशत व्यक्ति पचास वर्ष की अवस्था तक परलोकवासी बन जाते हैं. जो पचास वर्ष की आयु-सीमा पार करना चाहते हैं. उनको विशेष रूप से वृद्धजन के प्रति अपने दायित्व को समझना चाहिए.
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