आप तो पत्रकार हैं। खोज खोजकर ऐसे व्यक्ति लाते हैं जिन्हें सरकार की मुफ्त वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाया । अब जरा उन व्यक्तियों की भी खोजबीन कीजिये
जरा ढूंढिये ऐसे भी सिरफिरे
आप पत्रकार लोग भी अजीब प्रश्न करते हैं। अभी प्रश्न कर रहे हैं कि मेरे जीवन का ”सर्वाधिक खुशी“ का पल कौन सा है। तो भाई सर्वाधिक खुशी के पल तो अलग अलग समय पर अलग अलग रहे हैं। अब जैसे, जब हम कॉलेज में थे तो सर्वाधिक खुशी का पल हुआ था, ”सन इकत्तर, सोलह दिसंबर की शाम पाँच बजे, जब हमारे छोटे से शहर में खबर आई कि भारत ने युद्ध जीत लिया है। तिरानबे हजार पाकिस्तानी सैेनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्म समर्पण कर दिया है। इंदिराजी ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी है।“ मारे खुशी के पागल हो गये थे हमं। दोस्त दुश्मन का फर्क मिट गया। सब एक दूसरे के गले मिल रहे थे। होली दिवाली एक साथ उतरी उस शाम। आसमान से बरसती खुशी में नहाते, झूमते सब परमानंद में। मगर इसके बाद आये घोर आघात,निराशा, अंततःगहरे अवसाद केे ऐसे ऐसे क्रूर पल कि वह परमानंद बरसानेवाला अविस्मरणीय पल अंतस् के किसी कोने में दुबक कर पड़ा ही रह गया। दुबका ही रहा बेचारा। खैर, युगों बाद इस दौर में भी आये हैं परमानंद बरसाने वाले वैसे ही अद्भुत क्षण, जब पूरा देश क्या, प्रधानमंत्री तक हर्षातिरेक में गदगद। वही होली दिवाली उतरने की अलौकिक घड़ी। चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर हमारे चंद्रयान का सफल पदार्पण। फिर आई चिर प्रतीक्षित राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की घड़ी। रस बरसे नाचे जन गण मन। हम व्यक्ति नहीं रहे,खुशी के महासागर में मिल विशाल मानवता हो गए। पूरा महासागर हिलौरे लेता, उमंगता, उछलता, चाँद के पार जाने को आतुर। सागर में शामिल हम बिंदु भी।
क्या कहा आपने, ”यह सब तो राष्ट्रीय महत्व की घड़ियाँ थीं, सो राष्ट्रीय खुशी की घड़ियाँ हुईं। हम आपके व्यक्तिगत खुशी के पल पूछ रहे थे। आपके अपने जीवन के सर्वाधिक खुशी के पल।“ तो बंधु, व्यक्तिगत जीवन में भी परम खुशी के पल आये भी और गए भी। मसलन पाँचवीं की बोर्ड परीक्षा में हम पूरे इलाके में प्रथम आये थे। पूछिये मत क्या खुशी। जाने कहाँ कहाँ से लोग देखने आ रहे हैं,कौन हेै वह लड़की। खुशी के नशे में चूर ही रहती वह लड़की कि मिडिल स्कूल में एक अनजान लड़के ने पटखनी दे दी। अपने राम प्रथम से तीसरे स्थान पर। कही मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। बाहर से ज्यादा घर में फजीहत। कॉलेज में तो वह पटखनियाँ खाये कि भूल ही गये कि कभी हम भी पूरे इलाके में अव्वल आये थे। नौकरी मिली तो मानो भगवान मिल गये, पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँट रहे हैं। सचमुच सर्वाधिक खुशी के पल। तीन चार दिन हुये होंगे,अकेले अँधेरे कमरे में जमीन पर लोटते झर झर आँसूं बहा रहे हैं। कारण कि पूरा सटाफ जैसे फजीहत करने के लिये ही हमारा इंतजार कर रहा था। रोज फजीहत के नये नये षड़यंत्र। शादी लगी, बड़े घर में। वाकई सर्वाधिक खुशी। उड़ रहे हैं हवा में। मगर यहाँ तो और भी खतरनाक गिरोह घात लगाये बैठा था। हमारे ही इंतजार में।
नौकरी तो आसानी से छोड़ दिये, शादी थोड़ी आसानी से छूटल जाये। सबसे बड़ी बाधा, अपना ही मायका.. ”चार दिन सह लो गाली, तोहमत, सब, फिर देखना, तुम्हारा ही राज।“ चार दिन थे कि खत्म ही न हों। आखिर मैं भी बिलबिला उठी और वह भयंकर घड़ी आ ही गई, जब न सिर पर छत थी, न खाने को रोटी। पगली सी सड़क में खड़ी। इस समय कुछेक मित्र बेचारे सामने आए। किसी तरह संभाला। समझाया कि दावा ठोंको अपने हक का। इतने बरसों इतनी सेवायें दी। इतनी यातनायें सहीं। ंमैें अकबक..”.किस किस पर ठोंकू दावा,।“ मित्र सिर पर सवार थे । अपनी बुद्धि ठिकाने नहीं। वे जैसा कहें, करूं। कचहरी के दो चार चक्कर लगाते ही मेरे प्राण सूख गए। ऐसे ऐसे दारूण दृश्य कि मैं अधमरी और मर गई। मित्रों को दया आई... छोड़ो जी, मुकदमा करना तुम्हारे बस का नहीं। तुम तो लिखती रही हो। मुसीबत में पड़े निर्धन लेखकों को सरकार ”वजीफा“ देती है। यानी गुजारा राशि। हर महीने गुजारा करने लायक राशि मिल जायेगी तो हम लोग भी बेफिकर हो जायेंगे। हम पर दया करो देवी, इस आवेदन पत्र पर दस्तखत कर दो।
मुझ मरी हरी को तो जैसे काठ ही मार गया। गुजारा करने के लिये सरकार से पैसा लूं। मैंने जितना शास्त्र पढ़ा, जाना और समझा था, उसके अनुसार मनुष्य योनि बहुत मुश्किल से मिलती है। मनुष्य योनि पाने की स्थिति में जीवात्मा अपने माता पिता, परिवार, स्थान खुद ही चुनता है। कई बार शरीर धारण करने की बेचैन व्याकुलता में वह किसी भी जगह, किसी भी माता पिता से पैदा हो जाता है। खैर जो हो, यह तो स्पष्ट है कि इस दुनिया में मैं अपनी मर्जी से आई हूँ। जब अपनी मर्जी से आई हूँ तो गिड़गिड़ाऊं दूसरे से कि मुझे जीवन चलाने के लिये पैसा दो। राम राम, यह तो मुझसे न होगा। मगर मैं तो अपने बस में थी नहीं। मैं तो थी उन मित्रों के बस में। आवेदन पत्र देखा, पढ़ा न जाये। इतनी दीनता, ऐसी कातर याचना कि मैं ग्लानि से गड़ गड़ जाऊं। यही मनुष्य ”ब्रह्म का अंश“ होने का मुगालता पाले है। पशु पक्षी,कीड़े मकोड़े अपना जीवन चला लेते हैं। सहजता से। एक मैं मनुष्य, इस तरह गिड़गिड़ा रही हूंँ। भीतर हाहाकार करती ग्लानि, हाथ दस्तखत कर रहे थे। गैलिलयो झलके....”आई विल डू, ऐस यू विश।“
मित्र इंतजार करते रहे। खबर आई कि मेरा आवेदन अस्वीकृत।मित्र गुस्से से पागल...”बताओ इतनी अच्छी लेखिका। इतने राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार जीत चुकी है। राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छप चुकी है, इसे नहीं दिया, दिया होगा किसी अपने टट्टू को। आज हमारी भी सिफारिश होती, पहुँच होती, मुट्ठी गरम किये होते, तो हो जाता इनका भी। मगर दोष तो इनका भी है। आज की दुनिया मिलने जुलने की है। अपना ढोल खुद बजाने की है। ये तो किसी से मिलती जुलती ही नहीं। बात तक नहीं करती। जाने किस बात की अकड़ है इन्हें तो।“
वे गुस्से में बिलबिलाते रहे और मैं, मेरे तो दिल में खुशी के वलवले फूट रहे थे। जैसे सारी ग्लानि, सारी दीनता से मुझे एकबारगी मुक्ति मिल गई। रग रग में खुशी हिलौरे ले रही थी। कूदूं, नाचूं कि खुशी के मारे धरती में लोट पोट होऊं। विलक्षण खुशी। अब तक के जीवन का ”सर्वाधिक खुशी का क्षण।“ मेरा चेहरा खुशी में दमकता देख वे गुस्से से बिफरने लगे...लाईये तो अपनी सभी प्रकाशित रचनायें, पुरस्कार, सम्मानपत्र, पदक, स्मृति चिन्ह और चलिये हमारे साथ, मिलते है सांस्कृतिक सचिव से, मंत्री से, नही जी, सीधे मुख्य मंत्री से ही। राष्ट्रीय स्तर की नामी लेखिका के साथ इतना बड़ा अन्याय।
मगर मैं वह सब लाने के बजाय घुस गई पास के दर्जी मन्नूभाई की दुकान में। माँग लाई ढेर सारे कपड़े।काज बटन के, तुरपाई के, सीवन खोलने के। मित्र भड़ककर जो भागे कि फिर दिखे नहीं। बोले, जाये मरे सिरफिरी।
कुछ दिन तक किराये की छोटी सी कुठरिया में बैठी यही सब करती रही। काज बटन तुरपाई। साड़ियों में फाल लगाना। पीको। वे जो पैसा देते , चुपचाप ले लेती। रोटी पेट में जाने लगी। अपनी कमाई रोटी। अपनी छत। दबाव किसी का नहीं। मन शांत हुआ। बुद्धि क्रियाशील। मैं अपने ”स्वत्व“ में आ गई। आत्मबोध जाग उठा। मैंने अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुकूल काम शुरू कर दिया, यानी पढ़ाना। पढ़ाया। बच्चों को,,बड़ों को। आगे का हाल आप लोग खुद जानते हैं। नामी टीचर कहलाने लगी।। पैसे को प्रमुखता देने की प्रवृति थी नहीं। जीवन की गुणवत्ता प्रमुख रही। ठीकठाक आमदनी, सीमित आवश्यकतायें, ”मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये।“ इसी बीच सरकार की ढेरों मुफ्त बाँटने वाली योजनायें आईं। लोग टूट पड़े लूटने के लिये। क्या गरीब क्या अमीर। लोग मुझे समझायें... ”सरकार तो माईबाप होती है। दे रही है तो क्यों न लो। लो और ठाट से रहो।“
अब मैं क्या बताऊ। मुझे तो माँबाप से भी पैसा लेने में ग्लानि होती थी। कॉलेज पहुँचते पहुँचते मैं ट्यूशन करके अपना खर्च निकालने लगी थी। अब, जब मैने घोर दारूण हालात में गुजारा राशि नहीं ली तो मैं क्या ये मुफ्त बँटनेवाली रेवड़ियों की कतार में खड़ी होऊंगी। मैं तो ध्यान भी नहीं देती कि सरकार क्या क्या मुफ्त बाँट रही है। वह ”सर्वाधिक खुशी“ जो उस क्षण उभरी थी मेरे अंतर मे,समाई ही रही मेरे भीतर। और खुशी के पल आये और गए, पर यह खुशी अक्षुण्ण हो गई।अखंड दीप जलता है उस खुशी का मेरे भीतर। मानवीय गरिमा का अद्भुत प्रकाश, अनूठी ऊर्जा फेंकता। लोग कहते हैं...ये मैडम एकदम सिरफिरी हैं।
आप तो पत्रकार हैं। खोज खोजकर ऐसे व्यक्ति लाते हैं जिन्हें सरकार की मुफ्त वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाया । अब जरा उन व्यक्तियों की भी खोजबीन कीजिये जो अपनी मामूली कमाई में सहज सरलता से जीते हैं। मुफ्त बंटने वालीे सरकारी योजनाओं पर ध्यान ही नहीं देते। वे सब रेवड़ियाँ उनके ठेंगे से। पता कीजिये न क्या ऐसे सिरफिरे और भी हैं। मुझे तसल्ली होगी। मन तो कहता है, माँ भारती को भी तसल्ली होगी।
- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड, डोंगरगढ़
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