कामायनी महाकाव्य की प्रतीक योजना और रूपक तत्व जयशंकर प्रसाद श्रद्धा और इड़ा की महत्ता की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए और उनका रूपकत्व स्पष्ट सम्पूर्ण मनुष
कामायनी महाकाव्य की प्रतीक योजना और रूपक तत्व | जयशंकर प्रसाद
जयंशकर प्रसाद ने 'कामायनी' के आमुख में लिखा है- “यदि मनु, श्रद्धा और इड़ा अपना-अपना ऐतिहासिक व्यक्तित्व रखते हुए भी सांकेतिक अर्थ की अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।” इस कथन से यह संकेत मिलता है कि 'कामायनी' केवल सृष्टि के इतिहास का अंकन ही नहीं कुछ और भी है।" 'कामायनी' में मनु को मन, श्रद्धा को हृदय और इड़ा को बुद्धि के रूप में मानकर इसे मानवीय भावनाओं के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसी रूपकत्व की प्रतिष्ठा करते हुए लिखा है- “यदि हम विशद् काव्य की अन्तयोजना पर ध्यान न दें, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव न ढूँढ़ें, श्रद्धा, काम और लज्जा, इड़ा आदि को अलग-अलग लें तो हमारी बड़ी ही रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यन्त मनोरम पद्धति आती है। इन वृत्तियों की आभ्यान्तर प्रेरणाओं और बाह्य प्रवृत्तियों को बड़ी मार्मिकता से परखकर इनके स्वरूपों की निराकार उद्भावना की गयी है।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उपर्युक्त मत से यह स्पष्ट होता है कि कामायनी में रूपकत्व का सफल निर्वाह हुआ है। इसके मूल में प्रसाद जी का मुख्य उद्देश्य मानव मन का विश्लेषण करना था। मानव मन की जितनी सुन्दर और विशद् व्यंजना हमें 'कामायनी' में दीख पड़ती है, उसका श्रेय प्रसाद जी की सारग्राहिणी मनोवैज्ञानिक प्रतिभा को ही दिया जा सकता है। इससे कथानक के पौराणिक या ऐतिहासिक स्वरूप पर आघात आने की अपेक्षा उसके सौन्दर्य में अभिवृद्धि ही हुई है। प्रसाद जी ने कथानक का चुनाव ही ऐसा किया है जिससे मानसिक वृत्तियों का विश्लेषण पूर्णरूपेण हो सकता था। 'कामायनी' में एक साथ तीन अंगों का विकास देखा जा सकता है। प्रथम, देवसृष्टि के अवसान खण्ड के पश्चात्, मनु, श्रद्धा तथा इड़ा का ऐतिहासिक आख्यान। द्वितीय, मन, हृदय तथा बुद्धि के प्रतीक के रूप में क्रमशः मनु, श्रद्धा तथा इड़ा का चित्रण, तृतीय, मानसिक वृत्तियों के घात-प्रतिघात के साथ आनन्दोपलब्धि और परमशिव की प्राप्ति। इन तीनों को जिस साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रसाद जी ने निभाया है, वह वास्तव में प्रसाद जैसे महाकवि का ही कौशल है।
रूपकत्व का निर्वाह करने के लिए प्रसाद जी ने सर्वप्रथम रचना का नामकरण तथा मानसिक वृत्तियों के आधार पर सर्गों का विभाजन किया है। यह विभाजन इतना क्रमबद्ध है कि मन की प्रत्येक प्रवृत्ति पात्र, परिस्थिति आदि के अनुकूल उसकी झलक प्राप्त हो सकती है। ‘कामायनी' में मानव-जीवन की आन्तरिक और बाह्य प्रवृत्तियों का पूर्ण चित्र उपस्थित किया गया है। ‘कामायनी’ में वर्णित प्रवृत्तियों में से कुछ का मनु से, कुछ का श्रद्धा से तथा कुछ का इड़ा से सम्बन्ध दिखाया गया है, किन्तु बाह्य रूप से अलग होकर भी इनसे मानवता के विकास की कथा स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी ने सर्गों का नामकरण तथा क्रमिक प्रतिपादन करते हुए मनोविज्ञान दर्शन और साहित्य की सभी मान्यताओं को साकार कर दिया। इसका स्पष्टीकरण सर्गों का क्रमिक अध्ययन करने से स्वयमेव हो जाता है -
चिन्ता- कामायनी का प्रथम सर्ग है। इसमें जीवन एकाकी मनु बीते कल की स्मृति करता हुआ चिन्ता में मग्न है । चिन्ता की पहली रेखा, विश्व वने की व्याली, अभाव की चपल बालिके, ‘ललाट को खलरेखा' आदि विशेषणों से भूषित यह चिन्ता 'दुख की जननी' तथा 'सुन्दर पाप' मानी गयी है। यह ठीक है कि चिन्ता पाप है और कभी-कभी उद्दण्डता का कारण भी बनता है, किन्तु प्रसाद जी ने चिन्ता को पाप कहकर भी उसे आशा का मुख्य केन्द्र ही माना है।
आशा - चिन्ता के पश्चात् आशा का प्रभाव स्वाभाविक है। चिन्ता के पश्चात् आशा न मिले तो व्यक्ति में अनास्था तथा निष्क्रियता आ जाती है। 'मधुर जागरण सी छविमान', आशा मानव को सान्त्वना प्रदान करके सुन्दर कर्मजाल की ओर आकृष्ट करती है। “जो मृत्यु की गोद में जाना चाहता था, वही विश्वभर में सात्विक प्रेम का संदेशवाहक बन गया।”
श्रद्धा- 'कामायनी' का श्रद्धा सर्ग महत्त्वपूर्ण है। यह हृदय का प्रतीक है। श्रद्धा का चरित्र सबसे महत्त्वपूर्ण, व्यापक तथा लक्ष्य प्राप्ति में सहायक है। वस्तुतः श्रद्धा के बिना समर्पण, सेवा तथा त्याग आदि भावनाओं का उदय नहीं हो पाता। प्रसाद जी ने श्रद्धा को नायिका के पूर्ण महत्त्व और सौन्दर्ययुक्त रूप में प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की हैं। श्रद्धा का मनु के प्रति समर्पण हृदय का मन के प्रति समर्पण था, किन्तु मन कुछ और चाहता था, परिणामस्वरूप मन बाह्य सौन्दर्य तक ही सीमित रहकर वासना की ओर उन्मुख होता है। इसके फलस्वरूप जीवन में अशान्ति, अस्थिरता तथा अव्यवस्था फैल जाती है।
काम और वासना- प्रसाद जी ने 'काम' को भावना के साथ-साथ एक व्यक्तित्व भी प्रदान किया है। अमूर्त होकर भी मूर्तिमान - सा दिखाई देता हुआ 'काम' भारतीय शास्त्रों में वर्णित शास्त्र सम्मत काम के समान हमारी प्रवृत्तियों को चालित करता है। 'काम' का उदय होने के पश्चात् सम्पूर्ण सृष्टि में विचित्र अनुभूतियाँ दिखाई पड़ती हैं। काम और उसकी पत्नी रति का समन्वित प्रयत्न मन में वासना भाव को उत्पन्न करता है।
कवि के शब्दों में-
“मैं तृष्णा था विकसित करता, वह तृप्ति दिखाती थी उनको।
आनन्द समन्वय होता था, हम ले चलते पथ पर उनको।।
काम मनु से श्रद्धा को ग्रहण कर नवीन संस्कृति की रचना का अनुरोध करता है। वासना उत्पन्न होने पर मनु श्रद्धा की ओर आकृष्ट होते हैं, श्रद्धा अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर देती है। इस समर्पण में ग्रहण का भाव निहित था, और एक दिन-
“धमनियों में वेदना सा रक्त का संचार
हृदय में हैं कांपती धड़कन, लिए लघु भार।”
पुरुष अपनी प्रकृति से बहुत कुछ स्पष्ट होता है, किन्तु नारी स्वभाव से ही लज्जा की मूर्ति है। संकोचजन्य दुविधा में खड़ी लज्जा का चित्रण निम्न पंक्तियों में दर्शनीय है-
'किन्तु बोली क्या समर्पण आज का यह देव,
बनेगा चिरबन्ध नारी हृदय हेतु सदैव ।
आह मैं दुर्बल, कहो क्या ले सकूँगी दान,
वह, जिसे उपभोग करने में विकल हो प्रान ।।”
लज्जा - लज्जा सर्ग में नारी का समर्पण है। 'काम' की भाँति लज्जा का भी एक व्यक्तित्व है। 'लज्जा' वृत्ति का वर्णन, उससे उत्पन्न होते ही हृदय की उथल-पुथल, बाह्य एवं आभ्यन्तर क्रियाएँ आदि जिस प्रकार प्रसाद जी ने चित्रित की हैं, उन्हें मनोविज्ञान की दृष्टि से अभूतपूर्व कह सकते हैं। लज्जा नारी का आभूषण है, शालीनता की द्योतक है और साथ ही मर्यादित रखने वाली शक्ति भी है, इसका प्रतिपादन निम्नलिखित पंक्तियों में दर्शनीय है-
'मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ, मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुन्दरता पग में नुपूर सी लिपट मनाती हूँ।
कर्म - वासना में उत्तेजित मनु तृप्ति के लिए 'कर्म' जगत् में प्रवेश करता है। वासना से प्रेरित होने के कारण वह कर्म के सुन्दर स्वरूप को न अपनाकर, उसके विकृत स्वरूप को ही अपनाता है। उसका देव सदृश हृदय आसुरी भाव में आकर पशुबलि जैसे हिंसक कार्य करता है । भोगवादी संस्कृति की सभी कुवृत्तियाँ जाग उठती हैं, जिसमें स्वार्थ, अहम् तथा इन्द्रिय लोलुपता प्रमुख हो जाती हैं। ईर्ष्या सर्ग में मनु की अतृप्त वासना का परिणाम चित्रित हुआ है। श्रद्धा के मातृत्व भाव की उपेक्षा करता हुआ मनु शारीरिक वासना की तृप्ति चाहता है, उसका मन इतना संकुचित हो जाता है कि अपनी भावी सन्तान के प्रति ईर्ष्या करता हुआ मनु श्रद्धा का त्याग कर चल देता है।
इड़ा - इड़ा सर्ग में कथानक का दूसरा स्वरूप प्रारम्भ होता है । इड़ा बुद्धि का प्रतीक है। उसमें नारी के स्वतन्त्र व्यक्तित्व और महान् गुणों का समन्वय दिखाया गया है। श्रद्धाविहीन होकर मनु इड़ा अथवा बुद्धि के पाश से बँध जाता है। बुद्धि के बाह्य आकर्षण से प्रभावित होकर वह सारस्वत नगर में शासन-व्यवस्था चलाने लगता है। समयान्तर मन बुद्धि पर भी निरंकुश शासन करना चाहता है, किन्तु इड़ा का मनु की अधनीता का विरोध करती है। बुद्धि और मन का संघर्ष होता है मनु अपने ही बनाये नियमों का उल्लंघन करता है तो समस्त प्रजा उसकी विद्रोही हो जाती है। संघर्ष के परिणामस्वरूप मनु को पराजित होना पड़ता है। श्रद्धाविहीन बुद्धिवाद का असन्तोष और असफलता के अतिरिक्त और परिणाम भी हो सकता था।
स्वप्न - स्वप्न सर्ग द्वारा कथा-विस्तार को समेटने के अतिरिक्त, श्रद्धा की महानता, प्रेम और विशाल हृदय अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मन का साथ पूर्णरूपेण नहीं छोड़ पाता । प्रसंगवश प्रसाद जी ने ममतामयी माँ और समर्पणशील पत्नी के व्यक्तित्व को भी स्वप्न में ही साकार किया है। संघर्ष संसर्ग में मनु की पराजय दिखाकर, कवि ने मन पर छाए अहंकार और स्वार्थ के आवरण को हटाया है। इसी संघर्ष के परिणामस्वरूप निर्वेद का सूत्रपात हुआ है। मोह, तृष्णा आदि अवगुणों से पूर्ण मन बुद्धि की छाया में भी सुख न पाकर, ग्लानि और निराशा का अनुभव करता है। ऐसे समय में हृदय ही साथ दे सकता है। आहत मनु के पास श्रद्धा पहुँचती है, हृदय के सहयोग से मन को धीरज मिलता है। अपने कृत्यों पर पश्चाताप करते हुए मनु श्रद्धा से क्षमा माँगता है। श्रद्धा का आधार पाकर मनु को सान्त्वना मिलती है। श्रद्धा का महत्त्व समझने के पश्चात् मन को उसमें पावन मातृत्व की विभूति के दर्शन होते हैं।मनु के शब्दों में-
'हे सर्व गले! तुम महती, सबका दुःख अपने पर सहतीं,
कल्याणमयी वाणी कहती, तुम क्षमा निलय से हो रहती।'
दर्शन - श्रद्धायुक्त मन की व्याकुलता समाप्त होती है, 'नर्तित नटेश' का दर्शन करते ही 'देख मनु ने नर्तित नटेश, हतचेत पुकार उठे विशेष- यह क्या? श्रद्धे ! बस तू ले चल, उन चरणों तक दे निज सम्बल।' मन की इस प्रवृत्ति के समक्ष जीवन तथा आनन्द का रहस्य स्पष्ट हो जाता है। रहस्य सर्ग में जीवन के दुःखों का मूल क्या है? सरलता का अभाव ? इच्छा, ज्ञान और क्रिया के समन्वय आदि प्रश्नों का रहस्य इसी दर्शन सर्ग में वर्णित है। श्रद्धा की स्मृति से त्रिपुर का नाश होता है, मस्तिष्क के विकास समाप्त होते हैं और आनन्द की अद्वितीय सुन्दरता दिखाई देने लगती है।
स्पष्ट है कि 'कामायनी' में सर्गों के नामकरण और क्रम के मूल में कवि का उद्देश्य मानव-जीवन की प्रवृत्तियों का निरूपण करना ही है। इस क्रम में प्रसाद जी सफलता को नन्द दुलारे वाजपेयी के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है- “मानव का ऐसा वास्तविक विश्लेषण और काव्यमय निरूपण हिन्दी में शायद शताब्दियों बाद हुआ है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक का समन्वय कह सकते हैं। 'कामायनी' में मनोवैज्ञानिक तत्त्वों में कविता की कोमलता, मादकता और कल्पना के स्वप्निल क्षणों की मुस्कान का समन्वय होने के कारण इसे दर्शन, इतिहास तथा भावनाओं का समवेत् प्रतिपादन करने वाला महाकाव्य कह सकते हैं।"
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