कुटज निबंध की समीक्षा सारांश उद्देश्य और विशेषता हजारी प्रसाद द्विवेदी कुटज निबंध की भाषा शैली निबंध के तत्वों के आधार कुटज निबंध की समीक्षा संदेश
कुटज निबंध की समीक्षा सारांश उद्देश्य और विशेषता हजारी प्रसाद द्विवेदी
कुटज निबंध में, हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कुटज नामक फूल के माध्यम से जीवन के संघर्षों और चुनौतियों का चित्रण करते हैं। वे कुटज की कठोरता, दृढ़ता और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी खिलने की क्षमता को जीवन के सकारात्मक पहलुओं का प्रतीक मानते हैं।निबंध में, वे कुटज के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हैं, जैसे कि उसका स्वरूप, रंग, सुगंध और औषधीय गुण। वे कुटज की तुलना जीवन के संघर्षों से भी करते हैं और पाठकों को प्रेरित करते हैं कि वे भी कुटज की तरह ही चुनौतियों का सामना करें और खिलें।
कुटज निबंध का सारांश
हिन्दी निबन्धकारों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत निबन्ध 'कुटज' उनके द्वारा लिखा गया एक ललित निबन्ध है; इस निबंध में लेखक ने 'कुटज' के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला है। कुटज की अपराजेय जीवनी शक्ति एवं इसका स्वाभिमानी अवधूत जैसा स्वभाव मानव को उपदेश दता जान पड़ता है। इस पाठ का सारांश निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है -
- कुटज की उत्पत्ति-स्थान - हिमालय पर्वत के नीचे शिवालिक पर्वत श्रृंखला दूर तक फैली हुई है। यह पर्वत शृंखला एकदम नीरस, सूखी एवं पेड़-पौधों से रहित है। यह एक ऐसा प्रदेश है जहाँ स्थान- स्थान पर कुछ अज्ञात कुल-गोत्र वाले झाड़-झंखाड़ ही दिखाई पड़ जाते हैं; किन्तु यहीं पर कुटज के ये शानदार ठिगने से वृक्ष भी दिखाई पड़ते हैं, जो पूरी तरह हरे-भरे हैं और फूलों से लदे हुए रहते हैं। इनकी एक विशेषता यह है कि इनकी जड़ें पाषाण को भेदती हुई काफी गहराई तक जाकर अपने लिए जल खींच लाती हैं। ऐसे दुर्जय स्थान पर निरंतर हरा-भरा रहता उस संघर्ष का परिचायक है, जिससे मनुष्य को सीखने की आवश्यकता है।
- नाम की महत्ता - इन वृक्षों का नाम द्विवेदी जी के ध्यान से उतर गया है। नाम के लिए उनका मन छटपटा रहा है; क्योंकि बिना नाम के पहचान अधूरी है। रूप सामने है पर उनका नाम गुम हो गया है, इसलिए इन्हें पहचानने में कठिनाई हो रही है। यहीं पर उनके मन में प्रश्न उठता है कि नाम बड़ा है या रूप। लेखक सोचता है क्यों न, मैं इसे कोई नया नाम दे दूँ, पर मन नहीं मानता। मन तो उस नाम के लिए छटपटा रहा है, जो समाज ने इसे दिया है। 'नाम' को सामाजिक स्वीकृति मिली होती है, इसलिए वह व्यक्ति या वस्तु की पहचान बन जाता है। नाम समाज द्वारा प्रमाणित है, उस पर समाज की मुहर लगी है। रूप व्यक्ति सत्य है, पर नाम समाज सत्य है। लेखक का मन इस वृक्ष के उस नाम के लिए व्याकुल है, जो समाज ने इसे दिया है।
- साहित्य में कुटज - अचानक द्विवेदी जी को ध्यान आया कि यह तो 'कुटज' है; जिसका उल्लेख कालिदास ने मेघदूत में किया है। मनोहर कुसुम स्तवकों से झबराया हुआ प्रसन्नता से झूमता हुआ कुटज । विरही यक्ष ने मेघ की अभ्यर्थना करते हुए कुटज के फूल ही उसे अर्पित किया। उस सूने गिरिकान्तार में जब कोई फूल उपलब्ध नहीं हुआ, तब कुटज के फूलों ने ही साथ दिया। बड़भागी है यह फूल, जो गाढ़े ह का साथी है। हिन्दी के कवि रहीमदास जी ने भी कुटज का उल्लेख अपने एक दोहे में किया है -वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गंभीर ।बागन बिच-बिच देखियत सेंहुड़, कुटज, करीर ।। वे वृक्ष अब कहाँ हैं; जो अपनी विस्तृत छाया लोगों को प्रदान करते थे। अब तो जहाँ-तहाँ सेंहुड़, कुटज और करील के अदने से वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। सच है दूसरों को छाया दे सकने वाले, आश्रय प्रदान करने वाले महान लोग अब कहाँ दिखाई देते हैं, अब तो बौने कद वाले स्वार्थी लोगों की ही भरमार है।
- शब्द-चिन्तन - ललित निबन्धकार शब्द-चिन्तन पर भी बल देते हैं। कुटज से जुड़े अनेक शब्दों पर वहाँ विचार किया गया है। यह गिरिकूट (पर्वत की चोटी) पर उत्पन्न होता है, इसलिए इसे कुटज कहा गया है। कुट के दो अर्थ हैं - घड़ा और घर। घड़े से उत्पन्न होने के कारण अगस्त्य मुनि को 'कुटज' है कहा जाता है। संस्कृत में कुटहारिका और कुटकारिका शब्द दासी के लिए प्रयुक्त होते हैं। ऐसा लगता है कि संभवतः अगस्त्य मुनि भी ऐसी ही किसी कुटकारिका (दासी) के पुत्र होंगे, इसीलिए उन्हें 'कुटज' कहा गया। 'कुट' का अर्थ घर भी है। कुटिया और कुटीर शब्दों में यह अभी तक सुरक्षित है। द्विवेदी जी का 3 यह भी मत है कि सम्भवतः 'कुटज' आग्नेय भाष्य परिवार का शब्द प्रतीत होता है, क्योंकि संस्कृत फूलों से सम्बन्धित तमाम शब्द इसी परिवार के हैं।
- अपराजेय जीवनी शक्ति - कुटज हमें अपराजेय जीवनी शक्ति का संदेश देता है। भीषण गर्मी में भी यह हरा-भरा एवं फूलों से लदा खड़ा है। विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अस्तित्व को जो बनाए रख सकता है, वही संघर्षशील एवं साहसी है। कुटज का यही उपदेश है। झंझा-तूफान को रगड़कर, पाषाण को भेदकर यह अपने लिए भोजन-पानी की व्यवस्था कर ही लेता है। कठिन परिस्थितियों में संघर्ष करते हुए अपना प्राप्य वसूल लो और निरन्तर उल्लसित रहो। कुटज की यह दुरंत जीवनी शक्ति हमें जिजीविषा बनाए रखने की शिक्षा देती है।प्राण ही प्राण को उल्लसित करता है, जीवनी शक्ति ही जीवनी शक्ति की प्रेरणा देती है। कुटज की जीवनी शक्ति निश्चय ही हम सभी के लिए प्रेरक है।
- स्वाभिमानी एवं अपराजित अवधूत - कुटज की दुरन्त जीवनी शक्ति तो हमें प्रेरित करती ही ह है साथ ही, वह हमें जीने की कला भी सिखाती है। जियो तो इस तरह जियो कि प्राण ढाल दो जिन्दग में - यही कुटज का उपदेश है। स्वाभिमान के साथ, उल्लास के साथ एवं गरिमा के साथ जिन्दगी जियो कुटज स्वार्थी नहीं है, वह परमार्थी है। उसने अपने मन को वश में कर लिया है, इसलिए लोभ-लालच से परे है। मनुष्य को भी उसी की भाँति इन दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए; क्योंकि लोभ-लालच हमें स्वार्थ बनाते है तथा हमारे स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है।जो सन्तुष्ट है, लोभ से दूर है, उसे न तो किसी की खुशामद करनी है और न अफसरों का जूते चाटना है। यह षड्यंत्रकारी भी नहीं होता, दूसरों को अपमानित करने के लिए तंत्र-मंत्र नहीं करता अंगूठियों की लड़ी धारण नहीं करता। वह शान से, स्वाभिमान से और गरिमा से जीता है।
कुटज अपने मन पर सवारी करता है, इसलिए वह सुखी है; क्योंकि दुःखी वही है जिसका म परवश है। कुटज निश्चय ही धन्य है और साधुवाद का पात्र है। वह मानव को बहुत कुछ सिखा रहा है हमें उससे अदम्य जीवनी शक्ति एवं मन को वशीभूत करने का उपदेश लेना चाहिए, तभी हम कुटा की भाँति मस्त एवं उल्लसित रहकर जीवन-यापन कर सकेंगे।
कुटज निबंध का उद्देश्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित 'कुटज' निबन्ध सांस्कृतिक शब्दावली के साथ हिन्दी उर्दू शब्दावली का मिश्रण है। इसमें ज्ञान के साथ लालित्य का अद्भुत समन्वय है। हिमालय के पत्थर के बीच कुटज पुष्प-वृक्ष उस सूखी शिलाओं के मध्य बड़े ही गौरव से खड़ा है। कुटज के माध्यम से लेखकहमें यह संदेश देना चाहता है कि यह पुष्प वृक्ष वीर, परोपकारी और योगी के सदृश्य है। हिमालय के सौन्दर्य के बीच यह सौन्दर्यविहीन पुष्प जिसमें न तो फल है न तो विशेष सुन्दर पुष्प ही है; किन्तु उसके माध्यम से तीन संदेश लेखक देना चाहता है -
- अपराजेय जीवनी शक्ति है।
- वह अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे के लिए जीता है।
- दुःख-सुख से परे ।
आत्मविश्वासपूर्वक निर्लिप्त रहकर शान के साथ आँधी व लू के थपेड़ों के बीच दृढ़तापूर्वक खड़ा रहकर अपनी वीरता का परिचय देता है। उन सूखी शिलाओं से भी चट्टानों को भेदकर अपने लिए रसरूपी भोज्य पदार्थ ग्रहण करता है। दूसरों को छाया प्रदान करता है, यही उसका परोपकार-भाव है और सभी परिस्थितियों में समान रूप से संघर्ष करता हुआ जीवन-यापन करता है। यही उसके योगी का स्वरूप है। इस प्रकृति-चित्रण के माध्यम से लेखक मानव को शिक्षा ग्रहण करने का सन्देश देता है।
कुटज निबंध का वर्तमान समय में प्रासंगिकता
कुटज' निबन्ध आज के दौर में बहुत ही प्रासंगिक है। आज की स्थिति है - 'भीड़ है कयामत की और हम अकेले हैं'। अनेक प्रकार के विकास के साधन होने के बावजूद मनुष्य अकेला और कुंठित है। ऐसे में कुटज निबन्ध हमें सिखाता है - 'मन के हारे हार है मन के जीते जीत।' अर्थात् हमें विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी जिजीविषा नहीं छोड़नी चाहिए 'Think Possitive and be Optimistic' का संदेश देता कुटज निबन्ध आज के सन्दर्भ में भी अत्यन्त प्रासंगिक है।
कुटज निबंध की साहित्यिक समीक्षा
कुटज शीर्षक निबन्ध की साहित्यिक समीक्षा - निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है :-
एक व्यक्तिव्यंजक निबन्ध
कुटज हजारी प्रसाद द्विवेजी का एक व्यक्तिव्यंजक निबन्ध है। इसमें भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन की छाप और चिन्तन की मौलिकता दिखाई देती है। व्यक्तिव्यंजक निबन्धों में निबन्धकार का क्षेत्र विषय तक ही सीमित नहीं होता बल्कि वह विषय के माध्यम से उद्दीप्त भावों, विचारों एवं घटनाओं के अनुभवों पर अधिक महत्त्व देता हुआ चलता है। इसलिए लेखक अपने निबन्ध का प्रारम्भ पर्वतों की सुषमा से करता है। इसी सन्दर्भ में हिमालय उसके समक्ष साकार हो जाता है और उसके चरण-प्रदेश में दूर-दूर तक फैली हुई शिवालिक श्रेणियाँ भी स्पष्ट हो जाती हैं। इन श्रेणियों को लेखक शिव के जटाजूट के निचले हिस्से का प्रतीक मानता है। इसी पर्वतीय प्रदेश में कुछ सूखे हुए झाड़-झंखाड़ खड़े हैं, किन्तु एक हरा नाटे कद का वृक्ष भी है। वह मस्तमौला की भाँति आनन्द से झूम रहा है। लेखक इस वृक्ष को पहचानता है, किन्तु उसे इसका नाम याद नहीं । उसके नाम के प्रसंग में लेखक नाम रूप तथा पद और पदार्थ का विश्लेषण भी उपस्थित करता है। किन्तु एकाएक उसे इसका नाम याद आ जाता है और वह इसे कुटज के नाम से सम्बोधित करने लगता है। कुटज के प्रसंग से उसे कालिदास और उनकी कृति मेघदूत का स्मरण हो आता है, जिसमें यक्ष को कुटज पुष्पों से मेघ की अर्चना करते हुए चित्रित किया गया है। लेकिन द्विवेदी जी के विचार से कालिदास ने रामगिरि पर स्वयं कुटज - पुष्प से मेघ की अर्चना की होगी और घटना को मेघ के पक्ष में चित्रित कर दिया है।
'शिवालिक पर्वत श्रेणियाँ तो शुष्क हैं, जहाँ की सभी वनस्पतियाँ सूख गई हैं, वहाँ पर यह हरा- भरा पौधा संभवतः उन श्रेणियों के संतप्त दृश्य को सांत्वना देने के लिए ही उपस्थित है।" शिवालिक श्रेणियों को सांत्वना देने के कारण ही द्विवेदी जी कुटज को गाढ़े के साथी के रूप में देखने लगते हैं । इसी प्रसंग में द्विवेदी जी को दुनिया की स्वार्थी प्रवृत्ति की स्मृति हो आती है और वे रहीम के उदाहरण उपस्थित कर देते हैं। रहीम दरियादिल आदमी थे, नेक थे लेकिन एक राजा ने अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण उन्हें निकाल दिया। यद्यपि इससे रहीम का मूल्य घटा नहीं फिर भी वे लिख गए -
वे रहीम अब बिरिछ कहँ, जिनकी छाँह गंभीर
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर ।
इस प्रकार रहीम की दृष्टि में कुटज अदना-सा वृक्ष है। किन्तु द्विवेदी जी इसे नहीं मानते। उनके विचार से भले ही कुटज की छाया सुखद न हो किन्तु उसके फूल ?
कुटज शब्द की उत्पत्ति
निबन्ध के मध्य भाग में द्विवेदी जी कुटज शब्द की व्याख्या उपस्थित करते हैं। कुट का अर्थ घर और घड़ा है। घड़े से उत्पन्न होने के कारण अगस्त्य मुनि को भी कुटज कहा जाता है। किन्तु द्विवेदी जी इसे स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टि में संस्कृत में कुटहारिका और कुटकारिका दो शब्द हैं जिसका अर्थ है - दासी। गलत ढंग की दासी को 'कुटनी' कहा जाता है। 'कुटिया' और 'कुटीर' भी कुटहारिका या कुटकारिका से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। इससे संभव है कि अगस्त्य का जन्म भी नारद की भाँति किसी दासी से हुआ हो। घड़े से जन्मने की बात न तो अगस्त्य के विषय में ठीक उतरती है और न कुटज के विषय में ही। कुट तो जगंलों में पाया जाता है, वहाँ गमला या घड़ा कहाँ ?
इस संदर्भ में लेखक को विभिन्न भाषा शास्त्रियों का स्मरण हो जाता है। वह सिलवोलेवी के कथन f पर विचार करने लगता है, जिसमें कहा गया है कि 'संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेती, बागवानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा परिवार के हैं।' इसी संदर्भ में लेखक यह भी स्पष्ट कर देता है कि पहले आस्ट्रेलिया और एशिया के महाद्वीप एक दूसरे से मिले थे, किन्तु भयंकर प्राकृतिक विस्फोट के कारण वे अलग-अलग हो गए। इसलिए अधिक संभव है कि उन्हीं की भाषा का शब्द हो क्योंकि आस्ट्रेलिया के सुदूर जंगलों की बस्तियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से सम्बद्ध है। पण्डितों के अनुसार भी उस भाषा के अनेक शब्द संस्कृत में आज भी विद्यमान हैं। कम्बल, कम्बु आदि उन्हीं में से हैं।
कुटज का जीवन मानव के लिए अनुकरणीय
कुटज के माध्यम से लेखक मनुष्यों को सावधान करता है कि जीवित रहने के लिए कुटज जैसी धीरता और वीरता चाहिए। कुटज वीरान स्थान में रहकर हजारों वर्ष से जीता चला आ रहा है। वह कठोर पाषाणों को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग संग्रह करता है। वायुमण्डल को चूसकर, झंझा तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करता है तथा आकाश को चूसकर एवं झूमकर सोल्लास जीवन यापन करता है। मानव को इससे सबक लेना चाहिए। 'कुटज की जीवनी शक्ति महान है। वह जीता है, किन्तु स्वार्थ के लिए नहीं। वह सुख दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी को समान रूप एवं अपराजित भाव से ग्रहण करता है। यद्यपि विश्व में आज स्वार्थ की भावना ही सर्वोपरि है।
पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियम भी इसी विचारधारा के हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी अपनी पत्नी से विश्व की इसी स्वार्थी प्रवृत्ति की चर्चा की थी, किन्तु द्विवेदी जी इससे सहमत नहीं हैं उनके विचार से स्वार्थ से मोह और तृष्णा बढ़ती है, जिससे मानव दयनीय और कृपण बन जाता है। कृपणता से मानव- दृष्टि मलिन पड़ जाती है। इसलिए मानव को परमार्थ का भी ध्यान रखना चाहिए। व्यक्ति की आत्मा केवल व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है। वह व्यापक है। इसलिए मानव को अपने में सबको और सबमें अपने आप को देखना चाहिए। आगे उन्होंने कुटज की प्रशंसा करते हुए कहा है कि कुटज बड़ी शान के साथ जीवित हैं। वह न तो किसी से भागता है और न किसी से भयभीत है। नीति और धर्म का उपदेश देना भी वह नहीं जानता, आत्मोन्नति के लिए वह किसी की खुशामद भी नहीं करता और न आर्थिक लाभ के लिए नीलम आदि ही धारण करता है। लेखक की मान्यता है, जो व्यक्ति निर्विकार भाव से कुटज की तरह जीवन-यापन करते हैं वे ही महान और सुख के भोगी हैं ।
लेखक के अनुसार सुख और दुःख मात्र मन के विकल्प हैं। विश्व में जिसने अपने मन को वश में कर लिया है वही सुखी है, लेकिन जिसका मन पर-वश है या जो मन के वशीभूत है, वही दुःखी है क्योंकि परवश का अर्थ है खुशामद, जी हजूरी । कुटज इन मिथ्याचारों से पूर्णरूपेण मुक्त है। इनकी धारणा है कि लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिए।
कुटज वैरागी भी है। वह राजा जनक की भाँति संसार में रहकर और सम्पूर्ण सुखों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। वह राजा जनक की भाँति स्पष्ट घोषणा करता है कि मन को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि अपने स्वार्थ के लिए अपने मन को दूसरे के मन में न फँसाया जाय।
इसी का पालन करके कुटज अपने मन को जीतने में सफल हो सका है। मनुष्यों को भी अपने मन को कुटज की भाँति अपने वश में करना चाहिए।
हास्य-व्यंग्य
निबंध यद्यपि संचयित भाषा में लिखा गया है तथापि यत्र-तत्र हास्य व्यंग्य की अवतारणा करके एक ओर यदि इसे आकर्षक बनाया है तो, दूसरी ओर प्रभावपूर्ण भी।
व्यक्तिव्यंजक निबंध के गुणों से मण्डित
इस प्रकार स्पष्ट है कि द्विवेदी जी के इस निबंध में व्यक्तिव्यंजक निबंध के सभी गुण उपलब्ध हैं, क्योंकि इसमें निबंधकार का क्षेत्र विषय तक ही सीमित नहीं है । विषय के माध्यम से उद्दीप्त भावों, विचारों एवं घटनाओं के अनुभवों पर भी लेखक ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसमें आदि से अन्त तक लेखक का सीधा सम्बन्ध पाठकों से बना रहा है। वह एक क्षण के लिए भी पाठकों से ओझल नहीं होता है। लेखक अपने मूल विषय के प्रतिपादन में पूर्ण सफल रहा है। जिससे लेखक के चिन्तन की मौलिकता स्वयं स्पष्ट हो जाती है।
भाषा-शैली
इस निबंध का दृष्टिकोण भारतीय है। इसमें यत्र-तत्र व्यंग्य और विनोद के दर्शन भी होते हैं। लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरों का प्रयोग भी दर्शनीय है। भाषा गम्भीर होते हुए भी सुबोध है। तत्सम शब्दों के साथ उर्दू, अंग्रेजी का प्रयोग हुआ है। व्यावहारिकता और स्वाभाविकता उनकी भाषा की विशेषता है। निबंध की शैली स्वाभाविक, व्यवहारिक, प्रवाहमयी और भावव्यंजक है। इसमें विचारों की प्रधानता है । कोमलकान्त पदावली का प्रयोग दर्शनीय है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुटज द्विवेदी जी का उत्कृष्ट निबंध है, जो व्यक्तिव्यंजक निबंधों के गुणों से विभूषित है। इसमें द्विवेदी जी ने नैसर्गिक एवं चारित्रिक वैशिष्ट्य को स्पष्ट करते हुए पर्वत-प्रदेश की रमणीयता का भरपूर चित्रण किया है। पूरा का पूरा निबंध इतिहास पुराण के सन्दर्भ से ओत-प्रोत होकर अतिशय गम्भीर हो गया है।
कुटज निबंध के माध्यम से लेखक क्या संदेश देना चाहता है ?
कुटज आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रसिद्ध ललित निबंध है इसमें लेखक ने कुटज जैसे एक पहाड़ी पौधे के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त किया है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुटज के भीतर से हजारी प्रसाद द्विवेदी की वाणी का झरना प्रवाहित हो रहा है। उनकी अपनी दृष्टि 'कुटज' में रम जाती है और उनका वैयक्तिक विचार कभी भाव, कभी उपदेश और कभी जीवनादर्श के रूप में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है - "जीवन जीना चाहते हो तो कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।” कुटज का यही उपदेश है । 'कुटज' हमें बताता है कि जड़ समाज में जड़ हो गई मान्यताओं के बीच कुल, गोत्र और नाम के महत्त्व को स्वीकारा जाता है। दुनिया के मतलबीपन को कुटज ठुकराता है।
कुटज का मूल संदेश है, अपराजित रहो। 'कुटज' के माध्यम से लेखक यह संदेश देता है “चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाय उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो ।"
Tulsidas
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