नागार्जुन की काव्य चेतना संवेदना का मूल्यांकन नागार्जुन जी हिंदी साहित्य के एक महान कवि थे उनकी कविताओं में सामाजिक चेतना दार्शनिक चेतना भाषा की सरल
नागार्जुन की काव्य चेतना संवेदना का मूल्यांकन
नागार्जुन जी हिंदी साहित्य के एक महान कवि थे। उनकी कविताओं में सामाजिक चेतना, दार्शनिक चेतना, भाषा की सरलता और प्रभावशाली शैली का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों की आवाज उठाई, सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया और क्रांतिकारी भावना को जगाया। नागार्जुन जी की कविताएं आज भी प्रासंगिक हैं और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को प्रेरित करती हैं।
प्रगतिशील काव्य परम्परा में नागार्जुन का एक विशिष्ट व्यक्तित्व है। लोक-जीवन से अपने घनिष्ठ परिचय के कारण उनकी कविताओं में संवेदना, संपृक्ति, राग, विद्रोह, प्रकृति, ग्राम, शहर, जनता, वर्तमान और भविष्य के जीवन्त अनुभव समाविष्ट हैं। जीवन के अत्यन्त प्रमाणिक, अनुभव के आधार पर उनकी काव्य-सर्जना विकसित हुई है।
नागार्जुन की कविता में किसान आंदोलन
किसानों के आन्दोलनों तथा अन्य संघर्षों में अपनी सक्रिय हिस्सेदारी, अनेक बार जेल-यात्राएँ यदि उनके अनुभव संसार का एक पक्ष है, तो दूसरा पक्ष है उनकी निरन्तर यायावरी। वह निरन्तर यात्रा करते रहते हैं और इससे उन्हें जीवन और समाज का प्रत्यक्ष अनुभव मिला है। इसके अतिरिक्त उनका अध्ययन भी विशाल है। इन सभी तत्त्वों ने उन्हें एक ऐसा कवि बनाया है, जिसकी अपनी ही विशिष्टताएँ हैं। उनके काव्य की यथार्थ चेतना उतनी ही प्रखर है, जितनी उनकी राजनीतिक चेतना। इसके साथ ही वह अत्यन्त भावप्रवण कवि भी हैं। उनकी कविताओं में एक ओर शिशु जैसी सरलता और कोमलता है, तो दूसरी ओर परिवर्तन काम्यता और क्रान्तिधर्मा विश्वासों की वज्र जैसी कठोरता भी हैं।
नागार्जुन की कविता का संसार हमारा यह वर्तमान वस्तु-जगत् ही है। इस संसार की विषमता, विसंगति और विक्षोभ को उन्होंने अपना स्वर दिया है। वह इस संसार की सामन्ती पूँजीवादी संरचना को अच्छी तरह समझते हैं। वह जानते हैं कि इस ढाँचे को बदले बिना जन सुखी नहीं होंगे। मनुष्य के प्रति नागार्जुन की आसक्ति गहन है, उसके सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, प्रेम-विरह, आनन्द और संताप से उनका प्रत्यक्ष परिचय है।
यही कारण है कि उनकी कविताएँ यथार्थ को अत्यन्त स्पंदनशीन स्वरूप में प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। वह शोषित पीड़ित मानवता के पक्षधर कवि हैं और इसलिए वे अव्यवस्था, विषमता, शोषण, हिंसा, युद्ध अत्याचार और अन्याय का विरोध करते हुए, एक नयी न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का स्वप्न अपनी कविताओं के माध्यम से समान के सामने प्रस्तुत करते हैं।
लोक जीवन के द्वंद्व से परिचय
नागार्जुन की कविताओं में लोक का अनुभव बहुत मुखर है। जनपदीय जीवन, सीधे और सरल लोग तथा सहज प्रकृति और उसके सौन्दर्य को नागार्जुन ने अपनी कविताओं में अत्यधिक कुशलता और पूरी अधिकारिता के साथ चित्रित किया है। उनके काव्य में कोई कृत्रिमता नहीं है, न ही शब्दाडम्बर न ही उलझा हुआ बिम्ब-प्रतीक विधान है।
लोक जीवन के द्वन्द्वों से कवि का निकट का परिचय है। भारतीय किसान की गरीबी वह जानता है। यह गरीबी मानवीय आत्मा का दलन करती है और सामाजिक विद्रूप के मानचित्र का यह सबसे अधिक भद्दा और बेहूदा रंग है। बिहार के अकाल पर नागार्जुन की विख्यात कविता 'अकाल और उसके बाद में' यह विद्रूप एक बोलते हुए शब्दचित्र के रूप में सामने आता है -
'कई दिनों तक चूल्हा रोया,
चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया,
सोई उसके पास कई दिनों तक लगी भीत पर,
छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक
चूहों की भी, हालत रही शिकस्त।”
कवि को इस विसंगति के कारणों का ठीक-ठीक अन्दाज है। समाज के सामन्तवादी पूँजीवादी ढाँचे और उसकी संपोषक आतंककारी सत्ता को वह भली प्रकार पहचानता है। इन सबसे युद्ध करना होगा, इन सबको बदलना होगा और एक नया समाज बनाना होगा - मानवीय नैतिकता के मूल्यों पर आधारित समाज ही कवि को इष्ट है। प्रखर सामाजिक बोध के कारण कवि स्वयं को व्यापक मानवीय संघर्ष के एक आवश्यक अंग के रूप में पाता है और उससे असंलग्न अथवा तटस्थ नहीं हो पाता। मजदूर-किसान आन्दोलनों और आपातकाल विरोधी संघर्ष में नागार्जुन की सक्रियता का कारण यही था कि वह कविता को एकांगी कर्म नहीं मानते हैं। वह इसे जीवन-कर्म से भी जोड़ते हैं। व्यवस्था के विरुद्ध नागार्जुन ने सैकड़ों कविताएँ लिखी हैं। इनका व्यंग्य बहुत प्रखर है। कभी-कभी वह बहुत कड़वा भी है। कभी कविता नितान्त अभिधात्मक और सपाट हो गयी है, लेकिन उसका आक्रोश बहुत उग्र है।
लेकिन व्यवस्था चाहे जितनी दमनकारी, निर्मम और आतंकवादी क्यों न हों, मनुष्य की जिजीविषा को पराभूत नहीं कर सकती। जीवन अजेय है, और उसके साथ ही मनुष्य की आस्था भी। मनुष्य की क्रान्तिधर्मिता को विश्वास का स्वर देते हुए कवि इस कविता का समापन इन शब्दों में करता है-
'जली ठूंठ पर बैठ गयी कोकिला कूक,
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक ।'
नागार्जुन की कविताओं के केन्द्र में लोक-जीवन, सामाजिक जीवन और संघर्षरत् जीवन की परिवर्तन-काम्यता के तत्त्व बहुत प्रखर है, लेकिन इन कविताओं में व्यक्त आक्रोश नपुंसक और नकारात्मक नहीं है। अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के कारण वह ऐतिहासिक शक्तियों की सकरात्मक महत्ता को समझते हैं और पहचानते हैं, अतः उनका यथार्थबोध तर्कसंगत, वस्तुपरक और वास्तविक है। वह रूढ़िवादी, मार्क्सवादी नहीं हैं, जो मतान्धता या हठ का शिकार हों। वह भारतीय जनजीवन के कवि हैं और अपने देश की मिट्टी से उनका रिश्त बहुत गहरा है । वह समस्याओं का समाधान किताबों में नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में तलाश करते हैं। यह जीवन बहुस्तरीय, बहुरंगी और विविध सम्भावनाओं वाला है। उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि उनके साथी मार्क्सवादी क्या कहेंगे, लेकिन तब जीवन के सौन्दर्यबोध का प्रश्न आता है तब वह उसे उसी संलग्नता के साथ अभिव्यक्त करते हैं जिस संलग्नता के साथ वह विद्रोही हैं।
प्रखर सामाजिकता और लोकमंगल की कामना नागार्जुन के काव्य का एक पक्ष है। उनके दूसरे पक्ष का प्रतिनिधित्व वे कविताएँ करती हैं जिनमें मानव मन की रागात्मक और सौन्दर्यमयी छवियाँ प्रस्तुत हुई हैं। इन कविताओं की संवदेना अति सूक्ष्य और कलात्मकता बेजोड़ है। जिस तरह नागार्जुन मनुष्य को जानते हैं, उसी तरह उसके परिवेश को भी । प्रकृति इस परिवेश का एक आवश्यक अंग है। नागार्जुन के प्रकृति चित्रों में लोक गीतों जैसी भावप्रवणता और रंगारंग संगीतमयता है, किन्तु यह प्रकृति मानवीय जीवन से बाहर अथवा निःसंग नहीं है। नागार्जुन का सौन्दर्य लोक भव्य और विराट है, इस लोक से चुनकर वह जिन चित्र छवियों को हिन्दी में लाए हैं, वह अछूती और पाठक पर अद्भुत प्रभाव छोड़ती है।
विभिन्न ऋतुओं में हिमालय की छवियों को विचित्र करने वाली कविता 'बादल को घिरते देखा है' आपकी अद्भुत रचना है।नागार्जुन जीवन की विविधता और उसके वैभव के कवि हैं उनके अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं और उनकी कविताओं की संख्या सहस्रों में है। इन कविताओं में अनेकानेक विषय प्रस्तुत हुए हैं। अपनी जनवादी प्रतिबद्धता के बावजूद उन्होंने सौन्दर्यमूलक कविताओं से परहेज नहीं किया, इसीलिए समीक्षकों ने उन्हें बहुरंगी भाव छवियों का कवि कहा है। उनकी दृष्टि राष्ट्रीय होने के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय भी है, अफ्रीका, कोरिया, वियतनाम के जनसंघर्ष भी उनके काव्य के विषय बने हैं। दूसरी ओर प्रणय, दाम्पत्य भावना और जीवन की कोमलतम अनुभूतियाँ भी उनके काव्य में संग्रहीत हैं। मानव जीवन से गहन संपृक्ति उनकी कविता को समृद्ध करती है।मनुष्य के समस्त हर्ष, अवसाद सौन्दर्य, विद्रूप, संघर्ष, संताप, आह्लाद और भविष्य दृष्टि को वह सफलतापूर्वक अभिव्यक्त कर सके हैं ।
नागार्जुन की कविता का कलापक्ष
नागार्जुन की कविता का कलापक्ष बहुत अधिक अभिजात और परिष्कृत नहीं है, बल्कि सहज और अकृत्रिम है। उनकी कविता शिल्प के कठोर और संकीर्ण बंधनों की परवाह नहीं करती, बल्कि पहाड़ी झरने की तरह उद्दाम और वेगवान गति से बहती है। उन्होंने अनेक प्रकार के संस्कृत, हिन्दी और उर्दू छन्दों का प्रयोग किया है, लेकिन उनके प्रिय छन्द वे हैं जो लोक जीवन में गुंजरित होते हैं। इसी प्रकार भाषा भी उनकी अनुगामिनी है। वह सहज भाषा में काव्य-सृजन करते हैं, बिल्कुल बोलचाल की भाषा में, जिसमें कोई पांडित्य नहीं है। उनका शब्द-भण्डार लोकभाषा का ऋणी है। कथ्य के अनुरूप भाषा के चयन में उनका अन्य कोई सानी नहीं है। शिल्प की दृष्टि से नागार्जुन चमत्कारिक उक्तियों अथवा व्यंजनात्मक जादूगरी में विश्वास नहीं रखते। प्रायः उनकी कविता अभिधामूलक है। इसके साथ ही व्यंग्य उनकी प्रिय अभिव्यंजना है, जो कथ्य को कुटिल तीव्रता के साथ संप्रेषित करती है। उनकी कविता में विम्ब, प्रतीक और अलंकार सायास नहीं आये हैं। यदि वे हैं भी तो कविता के संरचनात्मक ढाँचे के अनिवार्य अंग के रूप में। यह किताबी कवि न होकर सच्चे अर्थों में जनता के कवि हैं, जनता ही उनके काव्य की प्राण-शक्ति है, वही कवि को आवेश और प्रेरणा देती है।
जनगति ही नागार्जुन की कविता का दिशा-निर्देश करती है। जनता का वास्तविक प्रत्यक्ष दुःख ही उनकी कविता की विषय-वस्तु और सक्रियता का केन्द्र है। नदी की तरह बहती, उफनती, कूल-किनारों को सरसब्ज करती नागार्जुन की कविताएँ एक तरह से कविता के मानदण्डों पर नये सिरे से विचार करने की प्रेरणा देती हैं। अल्हड़, मस्त, फक्कड़ और विद्रोही व्यक्तित्व वाले कवि नागार्जुन की कविताएँ भी वैसी ही हैं और इसीलिए आलोचकों ने उन्हें 'बीसवीं सदी का कबीर' कहा है, और यह कथन उनकै व्यक्तित्व और कृतित्व की सर्वाधिक संगत विवेचना प्रस्तुत करता है।
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