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संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का महत्व
संपर्क भाषा वह भाषा होती है जो विभिन्न भाषाभाषी लोगों के बीच संवाद का माध्यम बनती है। दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसी भाषा है जो विभिन्न क्षेत्रों, प्रदेशों या देशों के लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का काम करती है, भले ही वे एक-दूसरे की मूल भाषा न जानते हों।
हिन्दी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और इसे संपर्क भाषा के रूप में भी जाना जाता है। इसका मतलब है कि यह विभिन्न भाषा बोलने वाले लोगों के बीच संचार का एक महत्वपूर्ण साधन है।
मनुष्य निसर्गत: एक सामाजिक प्राणी है. समाज का निर्माण मनुष्यों के पारस्परिक सम्मिलन और सहयोग की आकांक्षा से होता है. यही आकांक्षा भाव-विचार रूप में अंकुरित होकर भाषा के रूप में पल्लवित होती है. अतएव हम कह सकते हैं कि सामाजिक संगठन के मूल में वैचारिक आदान-प्रदान प्रमुख कारक है. एताधृत भाषा की परिभाषा यह है कि- "भाषा विचार-विनिमय एवं आत्म-प्रकाशन का महत्वपूर्ण साधन है. इतना ही नहीं यह सामाजिक संगठन का मूलाधार भी है." अतः स्पष्ट है कि भाषा आत्म-प्रकाशन, भाव- प्रकाशन तथा सम्पर्क-स्थापन के मूल में है.
भाषा ऐक्य राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इस सम्बन्ध में 'बाइबिल' में एक कथा उल्लिखित है कि-" आदम के बेटों ने आसमान तक पहुँचने के लिए बहुत ऊँची मीनार बनानी चाही, उन सबकी भाषा एक थी और वे सब मिलकर काम करते, ऊपर चढ़ते चले जा रहे थे. ईश्वर ने सोचा कि ये लोग तो स्वर्ग तक पहुँचकर मेरी बराबरी करने लगेंगे. तब ईश्वर ने उन्हें भिन्न-भिन्न भाषाएं देकर छिन्न-भिन्न कर दिया. फलतः वे एक-दूसरे की भाषाएं न समझने के कारण आपस में लड़ने-झगड़ने लगे और मीनार टूट गई." कहना न होगा कि अंग्रेज विद्वानों ने हमारे देश पर उक्त प्रयोग किया और सफल रहे.
उपर्युक्त 'बाइबिल' के उदाहरण से स्पष्ट है कि एक सशक्त, सर्वसमर्थ राष्ट्र के निर्माण के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र में एक ही भाषा की व्याप्ति होनी चाहिए. अर्थात् एक ही भाषा की व्याप्ति होनी चाहिए. अर्थात् एक ही भाषा-सूत्र में सम्पूर्ण राष्ट्र को आबद्ध होना चाहिए. इससे भावैकता, विचारैकता के साथ ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक एकता को भी बल मिलता है, पोषण मिलता है. यह स्वतंत्र एवं समृद्ध राष्ट्र के लिए अपरिहार्य है. इसीलिए प्रत्येक समुन्नत एवं स्वाभिमानी देश की अपनी एक प्रमुख भाषा अवश्य होती है जिसे राष्ट्र भाषा का पद-गौरव प्राप्त होता है. उदाहरणस्वरूप रूस, अमरीका, चीन, जापान, फ्रांस, इंगलैण्ड आदि को लिया जा सकता है.
भारतीय संविधान और हिन्दी
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी होगी. अनुच्छेद 343 (2) में संविधान के क्रियाशील होने से 15 वर्ष तक के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया था. अनुच्छेद 343 (3) में संसद को उक्त अवधि के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने हेतु विधि-निर्माण का अधिकार दिया गया है. फलतः राजभाषा अधिनियम 1964 द्वारा यह उपबन्ध किया गया कि सभी राजकीय कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग 26 जनवरी, 1971 तक होता रहेगा. पुनः राजभाषा अधिनियम 1967 द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग को अनिश्चित समय तक जारी रखने का उपलब्ध किया गया है. संविधान में यह जोड़ दिया गया कि जब तक एक भी राज्य चाहेगा तब तक अंग्रेजी केन्द्रीय सरकार की सम्पर्क भाषा बनी रहेगी. इसका अर्थ है कि सरकारी तौर पर हिन्दी कभी भी सम्पर्क भाषा नहीं होगी, क्योंकि मिजोरम सरकार ने अपने राज्य की भाषा अंग्रेजी घोषित कर दी है.
वस्तुस्थिति यह है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू यह तो चाहते थे कि भारत से अंग्रेजी राज्य चला जाए. परन्तु अंग्रेजियत न जाए, परन्तु इसका अर्थ ग्रहणीय नहीं है कि हिन्दी का प्रयोग राजभाषा के रूप में नहीं होगा. वास्तव में 26 जनवरी, 1965 से ही हिन्दी राजभाषा बन गई है, किन्तु क्रियान्वयन की बात अलग है. अनुच्छेद 344 में राष्ट्रपति को संघ के प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु सुझाव देने के लिए संविधान लागू होने के पाँच वर्ष बाद एवं फिर दस वर्ष बाद एक आयोग गठित करने के लिए कहा गया है.
सरकारी तन्त्र और हिन्दी
हिन्दी का दुर्भाग्य है कि राष्ट्रभाषा-पद पाकर भी प्रान्तभाषा एवं अंग्रेजी की अनुगामिनी बनकर रह गई है. इसका कारण राजनीतिक दलदल, सरकार की तुष्टिकरण नीति एवं उच्च पदासीन अंग्रेजीदाँ लोग हैं जो अंग्रेजी को अपने अस्तित्व के साथ जोड़कर देखते हैं. इसके अतिरिक्त अन्य कोई कारण दृष्टिगत नहीं होता कि आज आजादी के पचास वर्ष पूरे होने को हैं, फिर भी वह सम्मानपूर्ण स्थान नहीं मिल सका, जो उसे मिलना चाहिए था. वास्तव में यह एक स्वतंत्रचेता एवं स्वाभिमानी राष्ट्र के गौरव के प्रतिकूल है. डॉ. पी. उपाध्याय के शब्दों में-"यह कितनी बेशर्मी और मूढ़ता की बात है कि भारत की सबसे बड़ी भाषा में काम-काज करने की बात होने पर कुछ महानुभाव हिन्दी थोपे जाने की आशंका व्यक्त करते हैं और अंग्रेजी से यूँ चिपके रहना चाहते हैं जैसे वह उनके बाप-दादों की चीज हो." इन लोगों को यह भी ध्यान नहीं रहता है कि विदेशों में अंग्रेजी का प्रयोग करने पर हमारे कई नेताओं को अपमानित होना पड़ा है. तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में एक रूसी विद्वान् ने स्पष्ट कहा था कि "एक विदेशी भाषा का प्रयोग करने वाले भारतीय अपने को स्वतंत्र नागरिक कहने का साहस क्यों करते हैं?"
वस्तुतः हिन्दी को यथोचित स्थान न मिलं सकने के पीछे राजनेताओं का पूर्व-पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में विभाजित दृष्टिकोण है. वे सम्पूर्ण राष्ट्र को एकीभाव से देखने में असमर्थ हैं अन्यथा हिन्दी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रतिस्थापित कर देने पर कोई 'भू-चाल आने' या 'पहाड़ टूटने' जैसी स्थिति उपस्थित नहीं होगी. आवश्यकता है तो बस, सरकार की राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय संचेतना एवं दृढ़ इच्छा शक्ति की, क्योंकि विश्व पटल पर यह बात स्वयंसिद्ध हो चुकी है-इजरायल के प्रथम शासनाध्यक्ष डॉ. विजमन ने एक रात में अपने देश की राष्ट्रभाषा 'हिब्रू' की घोषणा की थी. हिब्रू एक विस्तृत भाषा थी, किन्तु अब सारा कामकाज उसकी अपनी भाषा में हो रहा है. इसी प्रकार तुर्की के 'कमालपाशा' ने 'तुर्की भाषा' को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिस्थापित किया.
हिन्दी की व्यापकता
किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में सर्वाधिक व्यापक होती है. इस दृष्टि से हमारे देश की राष्ट्रभाषा तथा सम्पर्क भाषा निःसन्देह हिन्दी ही हो सकती है. वैसे तो हिन्दी सदियों से उत्तर-दक्षिण के भेद से परे चतुर्दिक व्यवहृत होती चली आ रही है. यथा दक्षिण के प्रमुख सन्तों-वल्लभाचार्य, विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि, महाराष्ट्र के नामदेव तथा ज्ञानेश्वर गुजरात के नरसी मेहता, राजस्थान के दादू, रज्जब, मीरा, पंजाब के सिख गुरुनानक, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु तथा अन्याय सूफी सन्तों व महात्माओं ने अपने धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार का एकमात्र सशक्त माध्यम हिन्दी को माना. इसके अतिरिक्त हिन्दी ही एक ऐसी सम्पर्क भाषा रही है जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख संवाहिका रही. राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाले नेता चाहे किसी भी प्रान्त के रहे हों, उन सभी ने हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य समझा और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लिया था. राष्ट्रनायक महात्मा गांधी के लिए तो हिन्दी प्रतिष्ठा की बात थी. डॉ. हरदेव बाहरी के अनुसार-"गांधी अगर तानाशाह होते तो अंग्रेजी समाप्त हो जाती, उन्हें क्या पता था कि आगे चलकर कोई सचमुच का तानाशाह उन पर अट्टाहस करता हुआ यह कहकर दिखाएगा कि लो तुम्हारी हिन्दी अब नहीं चलेगी." उन लोगों की आँखें यह देखकर खुल जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री श्री देवगौड़ा ने यह समझ लिया कि भारत की जनता से सम्पर्क हिन्दी के द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है और उन्होंने तीन महीने से कम की अवधि में हिन्दी सीखकर 15 अगस्त को लालकिले से भारत की जनता के नाम सन्देश हिन्दी में प्रसारित किया.
अनेक देशों में विश्वविद्यालीय स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है तथा अनेक विदेशी विद्वान् भारत में रहकर हिन्दी में शोध कार्य कर रहे हैं. अंग्रेजी में उच्चारणों की अनियमितता एवं अनिश्चितता से सभी परिचित हैं. हिन्दी की देवनागरी लिपि तो विश्व की सभी लिपियों से अधिक पूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्ध हो चुकी है.
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि वह दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजी के स्थान पर सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी प्रतिष्ठित होगी. हम भाषायी मानसिक दासता से मुक्त होंगे और तब गर्वपूर्वक कहेंगे कि हमारे राष्ट्र की अपनी एक राष्ट्रभाषा है, जिसका नाम है-'हिन्दी' भारत राष्ट्र गूँगा नहीं है.
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