उज्ज्वला योजना को लेकर सरकार की जवाबदेही बनती है कि वैसी महिलाओं को चिन्हित करें जो विधवा, लाचार, बेबस व मजदूर है. जिन्हें दो वक्त की रोटी जुटाने के ल
महंगे सिलेंडर के कारण फिर से मिट्टी के चूल्हे जलाती महिलाएं
ऐसा लगता है कि गरीब मजदूर-किसानों के घरों को धुंआ मुक्त चूल्हा उपलब्ध कराने के उद्देश्य केंद्र सरकार ने जिस उज्ज्वला योजना की शुरुआत की थी वह महंगे गैस सिलेंडर की भेंट चढ़ती नजर आ रही है. इस योजना के तहत जरूरतमंद परिवारों को मुफ़्त एलपीजी गैस सिलेंडर उपलब्ध कराए गए थे. इससे गरीब परिवारों विशेषकर महिलाओं के चेहरे पर खुशी देखते ही बनती थी. परंतु हर महीने रिफिलिंग (सिलेंडर में दोबारा गैस भराना) में लगने वाले पैसों ने उनकी इस खुशी पर ग्रहण लगा दिया है. ऐसे में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर परिवार एक बार फिर से मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी, कोयले और अन्य जलावन से भोजन पकाने पर मजबूर हो गया है. जिस धुएं वाले चूल्हे से गरीब परिवार की महिलाओं को मुक्ति मिल गई थी, एक बार फिर से उन्हें उसी चूल्हे का रुख करना पड़ रहा है. उसी धुएं के बीच भोजन पकाना उनकी नियति बन गई है.
मिट्टी के चूल्हे पर जलावन से निकलते धुएं और चिंगारी के कारण झोपड़ीनुमा घरों में हर समय आग लगने की संभावना भी सबसे अधिक बनी रहती है. वहीं दूसरी ओर इससे निकलने वाला जानलेवा धुआं महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डालता है. दरअसल पितृसत्तात्मक समाज ने सदियों से रसोई घर की ज़िम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर डाल रखी है. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल खाना पकाना ही नहीं बल्कि जलावन के लिए लकड़ियों को इकठ्ठा करने की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं की होती है. जिसके लिए प्रतिदिन उन्हें कई किमी दूर तक भी भटकना पड़ता है. जिन ग्रामीण क्षेत्रों में जंगल नहीं होते हैं वहां यह गरीब महिलाएं बड़े स्तर के किसानों और जमींदारों के खेतों से बड़ी कठिनाइयों से लकड़ियां इकट्ठी करती हैं. जिसके लिए इकट्ठी लकड़ियों का आधा हिस्सा उन्हें शुल्क के रूप में चुकाना होता है.
ऐसी ही कठिनाइयों को झेल रही हैं बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित जोड़ाकान्ही गांव की महिलाएं. जिला मुख्यालय से करीब 60 किमी दूर साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर रति पंचायत स्थित इस गांव में अधिकतर अनुसूचित जाति (मल्लाह समुदाय) का परिवार आबाद है. जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है. गाँव के अधिकतर पुरुष मुजफ्फरपुर शहर जाकर घर निर्माण या अन्य कामों में दैनिक मजदूर के रूप में काम करते हैं. जिससे परिवार के लिए मुश्किल से भोजन की व्यवस्था हो पाती है. कुछ पुरुष भाड़े पर ऑटो रिक्शा चलाने का काम करते हैं. जबकि ज्यादातर महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त किसानों के खेतों और मनरेगा में काम कर घर की आमदनी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. ऐसे में प्रतिमाह गैस सिलेंडर भरवाना उनकी जेबों पर भारी पड़ने लगा है और वह फिर से मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाने को मजबूर हैं.
इस संबंध में गांव की 35 वर्षीय शोभा देवी, जो अपने छोटी से झोंपड़ी में मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाते हुए कहती हैं कि "हमें उज्ज्वला योजना के तहत फ्री सिलेंडर तो मिल गया परंतु हर महीने या दो महीने पर 1030 रुपए का उसमें गैस कहां से भरवाएंगे? इतना तो हम कमाते भी नहीं हैं. पति दैनिक मजदूर हैं. जो कमाते हैं वह घर के राशन में ही खर्च हो जाता है. जो बचता है उससे बच्चों की दवाइयाँ और बाकी जरूरतों को पूरा होता है. पहले तो सब्सिडी के कुछ पैसे भी आ जाते थे. लेकिन पिछले कुछ माह से वह भी बंद हो गए हैं. इसलिए फिर से मिट्टी का चूल्हा ही फूंकना हमारी मजबूरी है." वह कहती हैं कि "बारिश के दिनों में मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है. गीले जलावन के कारण एक कमरे की छोटी झोंपड़ी मे पूरा धुआं भर जाता है. बच्चे खाँसते रहते हैं लेकिन उसी हालत में खाना बनाना होता है. जब तक गैस सिलेंडर था ऐसी कठिनाइयाँ नहीं होती थी."
गांव की कुछ अन्य महिलाएं कहती हैं कि "गैस रिफिलिंग सस्ती होती तो हमें 3-4 कोस चलकर इतनी ठंडी या गर्मी में चलना नहीं पड़ता. जलावन के लिए दर दर भटकना नहीं पड़ता. हम अगर दियारा क्षेत्र (नदी के आसपास का किनारा) नही जाएंगे तो हमारे परिवार और बच्चों का क्या होगा? इतनी महंगाई में एलपीजी गैस को रिफिल कराना संभव नहीं है. एक महिला ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि "हम दिन भर की कड़ी धूप में इतनी मेहनत से जलावन इकट्ठा करती हैं और वहां कुछ लोग हमारे काटे हुए जलावन में आधा हिस्सा जबरदस्ती ले लेते हैं. अगर 100 बोझे काटे तो उसमें से 50 बोझे यह बोलकर ले लेते हैं कि यह हमारी जमीन है या इकट्ठी की गई जलावन का आधा हिस्सा छोड़ो या फिर इसका शुल्क अदा करो. अगर पैसे ही होते तो हम जलावन की जगह सिलेंडर ही भरवा लेते."
वहीं 30 वर्षीय अरविंद सहनी बताते हैं कि "जलावन काटने महिलाओं के साथ छोटे-छोटे बच्चे अपना स्कूल छोड़कर जाते हैं. जिन बच्चों को स्कूल में रहना चाहिए वह खेतों में जलावन काट रहे होते हैं. इसमें सबसे अधिक किशोरियों की शिक्षा प्रभावित होती हैं. जिन्हें स्कूल छोड़कर मां के साथ लकड़ियां इकट्ठी करने खेतों और अन्य जगहों पर जाना पड़ता है. गरीबी इस कदर है कि घर के बूढे बुजुर्ग भी जलावन इकट्ठा करने निकलते हैं. तब जाकर उनके घर का चूल्हा-चौका चलता है. 42 वर्षीय शिवझरी देवी कहती हैं कि "कई बार जलावन के लिए लकड़ियां काटते समय हाथ-पैर भी जखमी हो जाते हैं. कितने लोगों की आंखों में गहरी चोट लग जाती है. उन्हें इकट्ठा कर इतनी दूर से घर लाने में बहुत थकावट हो जाती है. कई बार बुखार भी लग जाता है परंतु दवाइयां खाकर भी जलावन काटने जाना पड़ता है.
48 वर्षीय बलिंदर कहते हैं कि "वह मजदूरी पर जाने से पहले अपने परिवार सहित जलावन काटने जाते हैं ताकि पूरे साल जलावन खरीदना ना पड़े." वह बताते हैं कि जहां गैस सिलेंडर की कीमत 900 से हजार रुपए है, वहीं जलावन वाली लकड़ी भी करीब 1000 रुपया क्विंटल आता है. एक क्विंटल लकड़ी से एक छोटे परिवार का कम से कम पांच महीने आसानी से चूल्हा जल जाता है. ऐसे में रोज कमाने खाने वाला गरीब इतनी महंगी गैस क्यों खरीदेगा? कई बार पतझड़ के मौसम में तो जलावन मुफ्त में भी उपलब्ध हो जाता है जबकि गैस सिलेंडर के लिए हर हाल में नकद राशि की आवश्यकता पड़ती है."
याद रहे कि गरीब परिवार की महिलाओं के चेहरे पर खुशियां लाने के लिए प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की शुरुआत 1 मई 2016 को की गई थी. इसके तहत बीपीएल गरीब परिवार की महिलाओं को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन मिलना आरंभ हुआ था. इस योजना का मुख्य उद्देश्य जीवाश्म ईंधन की जगह एलपीजी गैस को बढ़ावा देना, महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देना और उनके स्वास्थ्य की सुरक्षा करना आदि है. स्वच्छ ईंधन बेहतर जीवन के संदेश के साथ पूरे देश के लगभग 9 करोड़ 60 लाख परिवार को कनेक्शन दिए गए. केंद्र सरकार ने 2022 में उज्ज्वला योजना के तहत 200 रुपए प्रति सिलेंडर अनुदान देने की घोषणा की थी. 2023 में 200 की जगह 300 सब्सिडी दी जा रही है. 1 जनवरी 2024 से महिलाओं को 450 रुपए में गैस सिलेंडर देने की घोषणा की गई.
प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना 2.0 के तहत 2026 तक 75 लाख 18 वर्ष से ऊपर आयु वर्ग की महिलाओं को देने का लक्ष्य रखा गया है. इसके बावजूद जानकारी के अभाव में लोकल वेंडर मनमाने ढंग से गैस की दर ले रहे हैं. जिसकी वजह से गरीब परिवार सिलेंडर भरवाने से खुद को असहाय महसूस करता है. अब यह सिलेंडर गरीब परिवारों में मिट्टी के चूल्हे के पास रसोई की चीजों को रखने का स्थान मात्र बन कर रह गया है.
बहरहाल, उज्ज्वला योजना को लेकर सरकार की जवाबदेही बनती है कि वैसी महिलाओं को चिन्हित करें जो विधवा, लाचार, बेबस व मजदूर है. जिन्हें दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए दिन-रात एक करना पड़ता है. वैसी महिलाओं को पंचायत स्तर पर राशन के साथ-साथ जनवितरण प्रणाली की दुकान से ही सिलेंडर की उपलब्धता सुनिश्चित करानी चाहिए ताकि घर की महिलाओं के साथ साथ किशोरियों को भी स्कूल छोड़कर लकड़ी की व्यवस्था के लिए भटकना न पड़े. (चरखा फीचर)
- सिमरन सहनी
मुजफ्फरपुर, बिहार
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