दूरदर्शन और साहित्य में संबंध दूरदर्शन और साहित्य, दो विधाएँ जो पहली नज़र में भिन्न लग सकती हैं, उनका एक गहरा और जटिल संबंध रहा है। साहित्य ने दूरदर्
दूरदर्शन और साहित्य में संबंध
दूरदर्शन और साहित्य, दो विधाएँ जो पहली नज़र में भिन्न लग सकती हैं, उनका एक गहरा और जटिल संबंध रहा है। साहित्य ने दूरदर्शन को कहानियों, पात्रों और विचारों का खजाना प्रदान किया है, जबकि दूरदर्शन ने साहित्य को दर्शकों तक पहुंचाने और उसे नए रूपों में प्रस्तुत करने का एक शक्तिशाली माध्यम दिया है।
भारत का सांस्कृतिक दर्शन
दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों एवं धारावाहिकों द्वारा हिन्दी का सम्मान तो बढ़ा ही है, उसका प्रसार भी हुआ; साथ ही हिन्दी भाषा के साहित्य का ज्ञान भी, विशेष कर उन क्षेत्रों में जहाँ हिन्दी भाषा बोलचाल की भाषा नहीं है। भारत का सांस्कृतिक दर्शन इन धारावाहिकों द्वारा सहजता से हो गया। हमारे समकालीन समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय सभ्यता, संस्कृति और मूल्यों की दृष्टि से मध्ययुगीन ही है। इसी बहुसंख्यक वर्ग के कारण ही पारिवारिक धारावाहिक लोकप्रियता के शिखर पर हैं। 'रामायण' एवं ‘महाभारत' धारावाहिकों ने भारत में ही नहीं विदेशों में भी बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। दूरदर्शन ने भारत की रामायणी संस्कृति का बखूबी प्रसार किया। कथाकार कमलेश्वर के दूरदर्शन में आ जाने के बाद सोप-ऑपेरा का प्रारम्भ हुआ। 'हम लोग' धारावाहिक ने दूरदर्शन में क्रान्ति ला दी। ' और भी गम हैं जमाने में', 'बीबी नातियों वाली' के पात्र घर-परिवार जैसे हो गये।
भारत में सोप-ऑपेरा के जनक मनोहर श्याम जोशी दूरदर्शन को एक घटिया माध्यम मानते हुए भी प्रचलित माध्यम मानते हैं। किन्तु इसमें भी कोई शक नहीं है कि घटिया होने के बावजूद यह आज के मीडिया-जगत् का सर्वाधिक शक्तिशाली अंग है। कभी साहित्य समाज का दर्पण होता था, किन्तु आज दूरदर्शन समाज का दर्पण हो गया है। इसने साहित्य, कला और संस्कृति को पूर्णतः प्रदूषण-युक्त कर दिया है। आज समाज जैसा है उसका हू-ब-हू चित्र दूरदर्शन प्रस्तुत कर रहा हो, ऐसा नहीं। आज किसी भी वस्तु की महत्ता, उपयोगिता, उसकी गुणवत्ता उसके गुणों से नहीं; अपितु मीडिया द्वारा प्रचारित छवि और प्रतिष्ठा से तय होती है।
बाजारवाद और हिंदी साहित्य
आज मीडिया ने कला, साहित्य और संस्कृति को बिकाऊ चीजें बना दिया है और मनुष्य बन गया है महज़ उपभोक्ता। उसे जो कुछ परोसा जा रहा है, वह बिना ना-नुकुर किये उसे हज़म कर रहा है। टी० वी० का लेखक फ़िल्म-लेखक से अधिक स्वतन्त्र होता है। फ़िल्म में लम्बाई, चौड़ाई ध्यान रखते हुए स्क्रिप्ट में काट-छाँट की जाती है, किन्तु छोटे पर्दे के लेखन में ऐसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता। अतः साहित्यिक रचनाओं और साहित्यकारों के अपने विचारों, अपनी सोच, अपने भावों एवं संकल्पनाओं के साथ अपेक्षाकृत न्याय सम्भव हो पाता है, यद्यपि शत-प्रतिशत नहीं । वैसे तो दूरदर्शन में धारावाहिकों की एक वृहत् सूची है, परन्तु कुछ साहित्यिक धारावाहिकों का प्रसारण हुआ, जिनसे अहिन्दी-भाषी प्रदेशों के लोगों में इन धारावाहिकों के माध्यम से हिन्दी जानने की जिज्ञासा हुई। इन साहित्यिक धारावाहिकों में- प्रेमचन्द कृत कर्मभूमि, टेलीफ़िल्म- गोदान, निर्मला, भीष्म साहनी कृत तमस, वृन्दावनलाल वर्मा कृत मृगनयनी, विमल मित्र की कालीगंज की बहू, साहब, बीबी और गुलाम, मोहन राकेश की कहानियों पर आध रित मिट्टी के रंग, श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, चाणक्य, चन्द्रकान्ता, तीसरी कसम, श्रीकान्त, वैशाली की नगर-वधू, गली आगे मुड़ती है, भारत एक खोज आदि रचनाओं का दृश्यात्मक रूपान्तरण यह सिद्ध करता है कि संचार माध्यमों ने साहित्य को घर-घर पहुँचाने का बहुत ही पवित्र कार्य सम्पन्न किया है।
दूरदर्शन और साहित्य का अंतर्संबंध
दृश्य-श्रव्य रूप में ढलकर सृजनात्मक लेखन बहुलांश जन तक पहुँच जाता है। आज की स्थिति में पाठकों की संख्या का ह्रास और दर्शकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जो इस बात का संसूचक है कि व्यक्ति स्थिर रहकर बुद्धि पर ज़ोर डालकर साहित्यिक कृति का आस्वाद न लेकर सरल, सहज शब्दावली में प्रस्तुत कुछ चटपटे, मसाले से युक्त, चाक्षुष माध्यम द्वारा निर्मित, रसायन का पान कर विना पढ़े ही तृप्त होने में विश्वास रखता है। आज जनमानस को आँख की भाषा भाती है। वह मसि, कागज को विना छुए आँखन देखी में प्रतीति करता है और उसी दृष्टि से साहित्यिक कृतियों को जाँचता, परखता है।
दूरदर्शन और साहित्य का संबंध जटिल और बहुआयामी है। दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और समाज को शिक्षित करने और मनोरंजन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दूरदर्शन के माध्यम से साहित्य को अधिक लोगों तक पहुंचाया जा सकता है, और साहित्य दूरदर्शन को अधिक समृद्ध और सार्थक बना सकता है।यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि दूरदर्शन और साहित्य दोनों ही स्वतंत्र कलाएँ हैं और उनकी अपनी विशेषताएं और योगदान हैं।
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