जयशंकर प्रसाद प्रेम और सौंदर्य के कवि जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख कवि थे। उन्हें प्रेम और सौंदर्य का कवि माना जाता है। उनकी
जयशंकर प्रसाद प्रेम और सौंदर्य के कवि
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख कवि थे। उन्हें प्रेम और सौंदर्य का कवि माना जाता है। उनकी रचनाओं में प्रेम और सौंदर्य के अनेक मनोरम चित्रण मिलते हैं।
छायावादी प्रेमभावना अतृप्तिपरक है। निराशामय विफल-प्रेम का चीत्कार सभी छायावादी कवियों में पाया जाता है। उनकी आरम्भिक कविताओं में तो यह वेदना अधिक मुखर है। ग्रन्थि, उच्छ्वास की बालिका, आँसू आदि पन्त जी की रचनाएँ, प्रसाद का प्रेमपथिक, आँसू आदि और महादेवी के गीत सबमें प्रेम की वेदना उपस्थित है। लेकिन यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि वेदना केवल कवि के जीवन की चिरसंगिनी या उसके दुःखवाले दग्धहृदय की अश्रुरागिनी नहीं है, वरन्, प्रकृति के सभी आयाम उससे तृषित हैं।
जहाँ तक प्रसाद की प्रेम-भावना का प्रश्न है, महाकवि प्रसाद प्रेम के आराधक हैं। प्रेम उनके जीवन और काव्य का प्राणतत्त्व हैं। “प्रसाद की प्रेम-सम्बन्धी धारणा और भावना अत्यन्त उच्च है। देवत्व और पशुत्व के दो कूलों के बीच बहनेवाली 'प्रसाद' की यह मानवीय प्रेमधारा परम गम्भीर, तरंगवती, स्निग्ध-निर्मल, शीतल प्राणदायिनी एवं सतत गतिमयी है। 'प्रसाद' ने मानव जीवन की विराट् पटी पर अंकित मानवीय क्रिया-कलापों की भव्य दृश्यावलियों के बीच, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रेम-सम्बन्धी जो तथ्य हमारे लिए छोड़े हैं, उनका संकलन एवं संयोजन करके 'प्रसाद' का एक भरा-पूरा व सुव्यवस्थित प्रेम-दर्शन सहज ही खड़ा किया जा सकता है ।"
प्रसाद जी की रचनाओं में प्रेम को विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया है। जिसका वर्णन निम्नलिखित है -
प्रेमदर्शन
आँसू में प्रसाद जी ने प्रेम के चरम रूप का स्पष्टीकरण करते हुए उसे 'स्वप्नमयी संसृति के सच्चे जीवन' कहा है। यह मंगल-किरणों से रंजित और कवि के जीवन का सुन्दरतम अंश है। उस प्रेम के समक्ष जीवन पुलकित होकर सिसकियाँ भरता है, मृत्यु नृत्य करती है और अमरता मुसकाती है-
'जिसके आगे पुलकित हो जीवन है सिसकी भरता,
हाँ मृत्यु नृत्य करती है, मुसकाती खड़ी अमरता।'
अर्थात् उस प्रेम को अमरता, मृत्यु और जीवन कोई भी अपनी परिधि में नहीं बाँध सकता। स्वयं विश्व नभ की खाली प्याली लेकर उससे कुछ मधु की बूँदें माँगता है, जिससे उसके जीवन में लाली या प्रसन्नता आ सके -
"फिर विश्व माँगता होवे ले नभ की खाली प्याली,
तुमसे कुछ मधु की बूँदें लौटा लेने को लाली ।"
प्रसाद जी ने प्रेम को विशुद्ध और व्यापक बनाया है। उनके प्रेम में असफलता का अनुभव उसकी अपूर्णता अथवा उसके वासना-मिश्रित भाव का द्योतक नहीं है। उनका प्रेम आत्मसमर्पणमय है, जिसमें उत्सर्ग-ही-उत्सर्ग छलकता है। उसका स्वभाव देना ही है, कुछ लेना नहीं। जो जितना देता है, वह उतना ही अधिक प्रेमी हैं -
'पागल रे! वह मिलता है कब,
उसको तो देते ही हैं सब
आँसू के कण-कण से गिनकर !'
सौन्दर्यदर्शन
प्रसाद जी ने अपनी प्रिया के जिस सौन्दर्य का चित्रण किया है वह नारी की निसर्ग सुन्दरता का चरम स्वरूप है। उसमें शिशु की उर्मिलता अर्थात् निष्कलुषता, पवित्रता और निर्मलता के तत्त्व भी समाहित हैं। यह सौन्दर्य कवि के नेत्रों के लिए अपार पारावार की भाँति है, जिसकी रूप-राशि की अन्तिम परिधि देखी नहीं जा सकती। नीलाकाश ही उसका अवगुण्ठन है जो निरावृत होते हुए भी एक रहस्य का आवरण बना रहता है। कवि की आकांक्षा है कि प्रिय का ऐसा मुख देखते ही उसका हृदय स्वयमेव सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर उल्लासमग्न हो जाय, अर्थात् सौन्दर्य का यह रूप कवि के हृदय को बन्धनमुक्त करता हुआ उल्लास की दिशा में अग्रसरित करता है।
नारी-सौन्दर्य के साथ ही प्रसाद जी ने कम ही सही पुरुष-सौन्दर्य का भी वर्णन किया है। कामायनी में मनु के शरीर-सौष्ठव के वर्णन में 'अवयव की दृढ़ मांसपेशियाँ ऊर्जस्वित था वीर्य अपार' आदि के द्वारा तथा श्रद्धा मनु के मिलन पर उन्हें 'सागर-लहरियों द्वारा फेंकी गयी प्रभा-भास्वर मणि' से उपमित करके प्रसाद ने पुरुष-सौन्दर्य-वर्णन की अद्भुत मिसाल पेश की है।
प्रसाद का सौन्दर्य-वर्णन देखने से ऐसा लगता है कि वे सौन्दर्यशास्त्र के सम्यक् ज्ञाता हैं। रूप, वर्ण, प्रभा, रागादि उनके सारे मानकों का उन्होंने इसमें उपयोग किया है। उनकी सौन्दर्यचेतना कालिदास से तो उपकृत है ही, उस पर किंचित् सूफी प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है :
'और देखा वह सुन्दर दृश्य, नयन का इन्द्रजाल अभिराम ।
कुसुम-वैभव में लता समान, चन्द्रिका से लिपटा घनस्याम ।'
प्राकृतिक सौन्दर्य
प्रसाद जी की समस्त कवितायात्रा में प्रकृति ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। 'लहर' में संकलित कविताओं में प्राकृतिक सौन्दर्य की भावमयी व्यञ्जना मिलती है। एक भावुक चितेरे की भाँति प्रसाद प्राकृतिक रंग में तन्मय होकर उसका सहज-स्वाभाविक चित्रण करने में सिद्धहस्त हैं। इस रूपचित्रण में केवल बाह्य सौन्दर्य ही नहीं, अपितु उनके अन्तःकरण का भावयोग भी स्पष्ट दिखाई देता है। इस संग्रह की प्रायः प्रत्येक कविता में प्रकृति उपस्थित है। एक गीत का उदाहरण द्रष्टव्य है :
“मधुर माधवी सन्ध्या में जब रागारुण रवि होता,
अस्त, विरल मृदुल दलवाली डालों से उलझा समीर
जब व्यस्त प्यारभरे श्यामल अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर,
नृत्य-शिथिल बिछली पड़ती है, वहन कर रहा उसे समीर।'
कलात्मक सौन्दर्य
प्रेम तथा सौन्दर्य की अभिव्यक्तियाँ कलात्मक होती हैं।प्रेम-भावना की तीव्रता व गम्भीरता प्रेमी की वाणी में सहज वैदग्ध्य, लावण्य एवं वक्रता ला देती है। बिम्बात्मकता, लयात्मकता, माधुर्यादि गुणों एवं विविध अलंकारों के माध्यम से एतत्सम्बन्धी अनुभूतियाँ अभिव्यक्ति पाती हैं। उनकी रचना का कोई अंश कहीं से उठाया जाय, कलात्मक सौन्दर्य से पूर्ण होगा।जैसे -
'पगली, हाँ सँभाल ले, कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल,
देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल ।'
इस प्रकार प्रसाद का प्रेम और सौन्दर्य मन और आत्मा के स्तरों पर क्रमशः विकसित होता है। इस दृष्टि से हिन्दी-साहित्य में प्रसाद का असामान्य स्थान है। रीतिकालीन अश्लीलता और द्विवेदीयुगीन पवित्रता के बीच ऐसी रचना करना प्रसाद का ध्येय था, जो प्रेम और सौन्दर्य का आदर्श रूप प्रस्तुत कर सके।
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के एक महान कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रेम और सौंदर्य का अद्भुत चित्रण किया है। उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को प्रेरित करती हैं।
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