जायसी भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं मलिक मुहम्मद जायसी, जिन्हें जायसी के नाम से भी जाना जाता है, हिंदी साहित्य के भक्त
जायसी भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं
मलिक मुहम्मद जायसी, जिन्हें जायसी के नाम से भी जाना जाता है, हिंदी साहित्य के भक्ति काल के एक महान सूफी कवि और पीर थे।जायसी की रचनाओं में आध्यात्मिकता, प्रेम और सौंदर्य का अद्भुत मिश्रण है। उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को प्रेरित और मोहित करती हैं।
जायसी का जन्म एवं मृत्यु क्रमश: १४९५ एवं १५४२ ई० के आसपास मानी गई है । इनके संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, "कबीर ने भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था । प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी । वह जायसी द्वारा पूरी हुई ।" बेशक कबीर द्वारा प्रतिपादित हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रयत्न ज्ञान और साधना के क्षेत्र तक ही सीमित रहा । जीवन के दैनिक व्यवहार में मानव हृदय जिस साम्य और एकता का अनुभव करता है, उसकी व्यंजना उनके द्वारा नहीं हो सकी । जायसी ने प्रेम को अपनाते हुए हिंदू-मुस्लिम हृदयों की दूरी को मिटाने का प्रयास किया । अपने कथात्मक काव्य के जरिये उन्होंने प्रेम का शुद्ध एवं सहज मार्ग दिखाते हुए सामान्य जीवन की उन दशाओं को सामने रखा, जिनका मानव मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव पड़ता है ।
जायसी ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि प्रेम की तरंगें सभी जातिवालों के हृदय में समान रूप से उठती हैं। अपने शिशु के प्रति वात्सल्य की जो भावना हिंदू माता के हृदय में उमड़ती है, मुसलमान माता के हृदय में भी वैसी ही भावना उमड़ती है ।अत्याचारी के प्रति क्रोध की भावना, दुःखी और पीड़ित व्यक्ति के प्रति दया और सहानुभूति का भाव मानव मात्र के हृदय में होता है । अर्थात् मनुष्य का हृदय जाति-धर्म, संप्रदाय तथा आचार-विचार की सीमाओं को तोड़कर शुद्ध भावात्मक क्षेत्र में एक है। जायसी का यह स्पष्ट उद्घोष है, कि -
बिरिछ एक लागी दुई डारा । एकहि ते नाना प्रकारा ।
मातु के रक्त पिता के बिन्दू । उपजै दुवो तुरक औ हिन्दू ।।
किंतु यह अनुभव तब तक नहीं हो पाता जबतक हमारे हृदय में 'प्रेम की पीर' उत्पन्न नहीं हो जाती । 'पद्मावत' का उद्देश्य है इसी 'पीर' को जगाना -
मुहम्मद कवि यह जोरि सुनावा ।
सुना सो पीर प्रेम का पावा ।।
जायसी का यह प्रेम लौकिक और अलौकिक दोनों स्तरों पर वर्णित है । पद्मावती के संयोग वर्णन में लौकिक प्रेम पूर्णतया परिलक्षित है । यही लौकिक प्रेम साधना के उत्कर्ष पर अलौकिक हो गया है, मुट्ठी भर मिट्टी से निर्मित मनुष्य को बैकुंठी बना दिया गया है -
मानुष प्रेम भयऊ बैकुंठी । नाहि त काह छार एक मूंठी ।।
प्रेममार्गी कवियों के जीवन तथा काव्य का प्राणतत्व है प्रेम । उनके लिए मानव के प्रति प्रेम ही परमात्मा की पूजा है ।कबीर की भाँति जायसी ने भी प्रेम रहित पोथी-ज्ञान को जीवन के लिए व्यर्थ माना है; 'पढ़े बहुत पै नेह न जाना । सौ गुलाम सूना षरिहाना ।' इस प्रेम-वर्णन के क्रम में अन्य सूफी कवियों की तरह जायसी ने भी विरह-पक्ष को अधिक महत्व दिया है। सूफी दर्शन में विरहानुभूति ही वह पाथेय है जिसके सहारे कोई साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ता है सूफी कवि 'उस्मान' के अनुसार जो साधक अपने को विरहाग्नि में तपा लेता है, वह कुंदन की भाँति चमक जाता है -
विरह अगिनि जरि कुंदन होई । निर्मल तन पावै पै सोई ।।
अत: जायसी ने 'पद्मावत' में विरह की विशद् व्यंजना की है । उन्हें इसमें अद्भुत सफलता मिली है। खासकर नागमती का वियोग-वर्णन तो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है । विरह की काव्य शास्त्रीय पद्धतियों का पालन करते हुए भी जायसी ने अपने उपमानों को जिस प्रकार अभिजात तत्वों से बचाकर लोकसामान्य भावुकता के रूप में प्रतिष्ठित किया है, उससे भारतीय ग्राम्य- जीवन का सजीव परिवेश महक उठा है । उदाहरण स्वरूप बारहमासे प्रसंग में जायसी के इस वर्णन पर गौर करें -
चढ़ा आसाढ़ गगन घन गाजा । साजा विरह दुंद दल बाजा ।।
बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोरे दुइ नयन चुवै जस ओरी ।।
पिउ वियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा नित बोले पिउ पिऊ ।।
तन जस पियर पात भा मोरा । तेइ पर विरह देइ झकझोरा ।।
इन पंक्तियों में ऐसे उपमान हैं,जिनमें ग्राम्य-जीवन की सोंधी सुगंध है। फलत: सामान्य पाठकों में भी साधारणीकरण संभव हो जाता है।
जायसी के विरह-वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता है मर्मस्पर्शी उदात्तता । इसके तहत मान, गर्व, एवं सुख-भोग की लालसा आदि से रहित विशुद्ध प्रेम की झलक पायी जाती है । पक्षी के द्वारा भेजे गये संदेश में नागमती कहती है कि मैं भोग नहीं चाहती । मैं केवल अपने पति के दर्शन मात्र करते रहना चाहती हूँ -
मोहिं भोग सौ काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहारी ।।
इस कथन में नागमती की उदात्त भावना प्रकट हुई है। प्रेम की यह उदात्तता ही पद्यमावत का मूल संदेश है। इसके माध्यम से जायसी ने परस्पर प्रेम- सद्भाव की राह दिखाई है। शिवकुमार मिश्र के शब्दों में, “लंबे साहचर्य के बाद समाज के निचले स्तर पर साधारण हिंदू-मुसलमान जनता में एक दूसरे के निकट आने तथा एक दूसरे को समझने का जो भाव पैदा हुआ था, जायसी जैसे सहृदय मुसलमानों ने उस प्रक्रिया को तेज करने में मदद की और अपनी धार्मिक आस्थाओं को कायम रखते हुए, वे इसलिए ऐसा कर सके कि वे हृदय से उदार थे तथा यह मानते थे कि उसे महज प्रेम द्वारा ही पाया जा सकता है ।"
अंतर्कलह की अग्नि में झुलसते तत्कालीन भारतीय समाज को जब ज्ञान और भक्ति के माध्यम से शीतल करना असंभव सा लगा, तो जायसी सरीखे सूफियों ने इसी स्नेह की वर्षा से बुझाने का प्रयास किया । इस संदर्भ में जायसी आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं । इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए डॉ.रघुवंश ने लिखा है; "जायसी ने अपने समय की सांस्कृतिक टकराहट में मानवीयता को जिस रूप में रचनात्मक स्तर पर पूरे रचना विधान के भीतर से अभिव्यक्त किया है, वह आज के भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है ।"
निष्कर्षत: जायसी आम जनता के कवि हैं । उन्होंने अपनी काव्य रचना जन-भाषा अवधी में की है । इनकी भाषा में अवधी के कोमल घरेलू रूप का लावण्य है । बीच-बीच में अन्य भाषाओं के शब्द भी आये हैं, पर उनसे मूल भाषा का स्वरूप बिगड़ा नहीं है।जायसी ने इन विचारों को अपनी रचनाओं में अत्यंत सुंदर और स्पर्शी शैली में व्यक्त किया है। उनकी भाषा सरल और मुहावरेदार है जिससे उनकी रचनाएं आम जनता के लिए भी सुगम हो जाती हैं।
निष्कर्ष: जायसी की रचनाओं ने हिंदी साहित्य और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है। वे निश्चित रूप से भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं।
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