कवि त्रिलोचन शास्त्री की प्रगतिशील काव्यधारा त्रिलोचन शास्त्री हिंदी साहित्य के प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं काव्य
कवि त्रिलोचन शास्त्री की प्रगतिशील काव्यधारा
त्रिलोचन शास्त्री हिंदी साहित्य के प्रगतिशील काव्यधारा के प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के साथ, उन्होंने आधुनिक हिंदी कविता को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनकी रचनाओं में सामाजिक यथार्थवाद, मानवतावाद और प्रगतिशील विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
कवि त्रिलोचन ने हिन्दी कविता की प्रगतिशील धारा को अपने कृतित्व से समृद्ध तो किया ही है, स्वयं को 'जनकवियों' के बीच अलग पहचान भी दी है।प्रगतिशील कविता की 'वृहत्त्रयी' में तीसरा और अन्तिम नाम त्रिलोचन का ही है- नागार्जुन, केदारनाथ और त्रिलोचन। वैसे भी 'प्रगतिशील हल्कों में सामान्य स्वीकृति के बावजूद त्रिलोचन को प्रमुख प्रगतिवादी आलोचकों द्वारा मुक्तकंठ सराहना नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की तुलना में तनिक देर से ही प्राप्त हो सकी है।
'निराला', मुक्तिबोध, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के बाद त्रिलोचन ही ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ‘आम-आदमी' की जिन्दगी से कविता का साक्षात्कार कराया। जिस तरह 'धूमिल' की कविता जन-सामान्य के बगल खड़ी होकर उसकी वकालत करती है, 'आदमी' की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ करनेवाली शोषक शक्तियों से संघर्ष करने हेतु धारदार हथियार बनती है, उसी तरह त्रिलोचन की कविता भी आम आदमी के बगलगीर होकर उसकी सुरक्षा का प्रयत्न करती है।
स्वप्निल श्रीवास्तव के शब्दों में- “व्यक्ति रूप में ही नहीं, त्रिलोचन कवि-रूप में भी विचलित करते हैं। उनकी कविता लोक-जीवन के निकट की कविता है। अवधी लोक-जीवन के अनेक शब्दों को प्रयोग त्रिलोचन ने पहली बार किया है। शब्द-ज्ञान के मामले में वे भाषा-वैज्ञानिकों से लोहा ले सकते हैं... कविता में आडंबर और अलंकारबाजी के वे विरुद्ध रहे हैं।..... त्रिलोचन अकेले कवि हैं जिनकी कविता में अपने जनपद का दुःख-सुख विसंगतियाँ प्रामाणिकता से अभिव्यक्त हुई हैं। उनकी कविता शहराती कविता के विरुद्ध ताकत के साथ खड़ी होती है।..त्रिलोचन की कविता के पात्रों में भोरई केवट, चम्पा, सनेही, पाँच, नगई महरा-जैसे लोग हैं। अभिजात वर्ग के आलोचकों, पाठकों को इन नामों में 'भदेस' की गन्ध आ सकती है। लेकिन जो त्रिलोचन की कविता से दो-चार हुए हैं, उन्हें पता होगा कि त्रिलोचन के पात्र चेतना के कई स्तरों को झकझोरते हैं, क्योंकि वे सीधे जिन्दगी से उठाये गये पात्र हैं।"
त्रिलोचन के कवि का मर्म टटोलते हुए डॉ० सत्यप्रकाश मिश्र कहते हैं— 'त्रिलोचन अपने समय को परिभाषित करते समय अपने देश और काल की सच्चाई से मनुष्य के इतिहास को भी परिभाषित करते हैं। अपने समय के मनुष्य की पीड़ा और बेबसी को सहने और समझने के बाद वे उसके देश और काल को उस अनुभव के प्रकाश में फैलाने लगते हैं। घाघ और भड्डरी की तरह उनकी कविता कहावतों और मुहावरों में बदलने लगती है। मैं नहीं जानता कि हिन्दी में कोई कवि ऐसा है जो 'भाषा' की इकाई-वाक्य को मुहावरों या कहावतों में बदलने की शक्ति रखता है।'
सुप्रसिद्ध कवि शमशेर की दृष्टि में, 'त्रिलोचन के कवि की उपलब्धियाँ सहज चौंकाने वाली नहीं हैं, इसलिए कि वे अनुभूतियाँ हमारे सामान्य और व्यापक जीवन की अनेक तहों को छूकर, बार-बार, और एक अजीब निर्विकार रूप से, उन तहों की मिट्टी लाकर हमारी मिट्टी में रखती हैं। लंगोट कसे हुए साँस बाँधकर गोता लगानेवाला एक शान्त व्यक्ति चुपचाप आकर हमारी हथेली पर जो कुछ रख देता है, वह बड़ा सामान्य लगता है- मगर वह 'सामान्य' कुछ ऐसा सामान्य नहीं, जैसा कि लगता है।' त्रिलोचन की यह असामान्य सामान्यता उनके कवि-व्यक्तित्व का सहज हिस्सा बन गयी है।
त्रिलोचन की कविता पर सार्थक टिप्पणी करते हुए ज्ञानेन्द्रपति का अभिमत है: “त्रिलोचन की कविता समकालीन हिन्दीकविता के भूगोल का एक ध्रुव है, जिस तरह कि शमशेर की कविता दूसरा ध्रुव । इन दो ध्रुवान्तों के बीच ही समकालीन हिन्दीकविता की तमाम अक्षांश और देशान्तर रेखाएँ आती हैं। एक में प्रगाढ़ पार्थिवता है तो दूसरे में व्योमोन्मुखता । हाँ, त्रिलोचन की कविता पहली बार बारिस में माटी से उठनेवाली सोंधी गन्ध है, तो शमशेर की कविता में एक भासमान आकाश-यह चिदाकाश उनका चित्ताकाश ही है।...... त्रिलोचन (की कविता) में जीवन की असमाप्यता का 'मार्च- सांग' है, जिजीविषा की उत्कटता के तरंग-चित्र हैं, जीने की कर्मठता के अन्तहीन प्रकरण हैं, प्रकाश-उल्लास से भरे तो कहीं किंचित् उदास भी। लेकिन यह उदासी आत्मा की निर्जनता की आत्यन्तिक उदासी नहीं है- स्वजनों से दूर रहने की उदासी है- 'आज मैं अकेला हूँ, अकेले रहा नहीं जाता।'...आज का युवा कवि अपने को त्रिलोचन के ध्रुव के अधिक निकट पाता है।
त्रिलोचन की कविता की सहजता उसके लिए विशेष महत्त्व की है।अद्भुत है यह सहजता भी - त्रिलोचन के व्यक्तित्व की ही तरह जिसमें पाण्डित्य और लोकजीवन में रमें होने का भाव-प्रभाव एक साथ है। वह पाश्चात्य छंद सॉनेट हो या अवधी का बरवै - त्रिलोचन की सिद्धहस्तता लासानी है। छन्दानुशासन में जीवन की निस्सीमता को समाना त्रिलोचन की ही कवि-प्रतिभा के बूते का है। त्रिलोचन की सहजता की साधना कला-साधना की अविरोधी है। बल्कि यदि यह सच है कि कला वहीं अपने निखरे रूप में होती है जहाँ वह तनिक ध्यान नहीं खींचती, तो कहना होगा कि त्रिलोचन से बड़ा कलाकार - कवि अभी हिन्दी में दूसरा नहीं। भाषा-बोध के स्तर पर त्रिलोचन निराला के गहन अध्ययन से अर्जित सीख को बरतते और विकसित करते दिखायी देते हैं।
त्रिलोचन की कविता-भाषा में सर्वत्र हिन्दी भाषा का प्रकृत स्वरूप सुरक्षित है। छन्द भी वहाँ भाषा को तोड़ने-मरोड़ने की कोई छूट नहीं लेता। बल्कि सच तो यह है कि भाषा का यह प्रकृत स्वरूप ही त्रिलोचन के यहाँ छन्द को कविता का कारागार नहीं बनने देता, बल्कि उस 'स्वाधीन चेतना' का कारण बनता है, 'परिमल' की अपनी युगान्तरकारी भूमिका में 'निराला' ने जिसे साहित्य के कल्याण का और जाति के मुक्ति प्रयास का पता देने वाली बताया है। उसी भूमिका में निराला ने आलाप और ताल की रागिनी की चर्चा करते हुए आलाप को 'वन्य प्रकृति तथा जहाँ वह मुक्त छन्द है वहीं नहीं,बल्कि जहाँ छन्दोबद्ध है वहाँ भी, ताल की रागिनी नहीं, आलाप का स्वर सुनायी पड़ता है।
त्रिलोचन की कविता हर-हमेशा हमसे बोलती-बतियाती है। निराला के अनन्तर त्रिलोचन की कविता में कर्म की अविराम धारा बहती हुई देखी जा सकती है। त्रिलोचन की कविताएँ स्वयं सम्पूर्ण इकाइयाँ नहीं हैं, बल्कि लहरें हैं- अलग-अलग होकर भी परस्पर सम्बद्ध-जिनके आरोह-अवरोह में एक ही जीवन-सागर गरजता-गाता है। उनके मुक्तकों की महाकाव्यात्मकता का रहस्य इसी में निहित है।"
त्रिलोचन काव्य-कर्म और लोक-मर्म, दोनों ही दृष्टियों से अनूठे कवि हैं।वे सच्चे अर्थों में अवध-अवधी के अलंकार हैं, हिन्दी के श्रृंगार हैं। त्रिलोचन शास्त्री हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। उनकी प्रगतिशील काव्यधारा ने समाज और मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया।वे एक सच्चे कवि थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन और मानवीय मूल्यों को बढ़ावा दिया।
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