महर्षि अरविन्द का जीवन परिचय और शिक्षा दर्शन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचारों को जन
महर्षि अरविन्द का जीवन परिचय और शिक्षा दर्शन
भारत एक महान देश है। इसे महान बनाने का श्रेय उन मनीषियों को है जिन्होंने तप, त्याग और बलिदान के पथ पर बढ़कर देश की प्रसुप्त आत्मा को जगाया। वे देवदूत बनकर आये थे। उन्होंने अपने जीवन की मशाल जलाकर देशवासियों का मार्गदर्शन किया। संसार को आध्यात्मिक ज्ञान, राष्ट्र को राजनैतिक चेतना तथा संस्कृति का ज्ञान देकर जिसने हमारे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा राजनैतिक चिंतन को सबसे अधिक अलंकृत किया, उस व्यक्तित्व का नाम है - श्री अरविन्द घोष ।
"बसते वसुधा पर देश कई,
जिनकी सुषमा सविशेष नई, पर भारत की गुरुता इतनी
इस भूतल पर न कहीं जितनी ।"
महर्षि अरविन्द का जीवन परिचय
श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ते में हुआ था। इनके पिताजी एक सुयोग्य और सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले आदमी थे। वे शिक्षा प्राप्त करने के लिये इंग्लैण्ड जाने वाले पहले व्यक्तियों में थे । वे वहाँ से पूर्णतः अंग्रेजी रंग में रंगकर लौटे। उन पर इतना पक्का रंग चढ़ा कि अपने बच्चो को भी उन्होंने उसी रंग में रंगने की चेष्टा की। इसका परिणाम यह रहा कि अरविन्द बचपन में केवल अंग्रेजी या थोड़ी बहुत हिन्दुस्तानी बोलते थे। अपनी मातृभाषा 'बंगला' तो वे इंग्लैण्ड से वापस आकर ही सीख पाये। यूरोपीय शिक्षा की चाह में उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा के लिये अरविन्द को भारत में दार्जिलिंग के आयरिश सन्यासिनियों के एक स्कूल में भेज दिया और फिर 1879 में अपने तीनों लड़कों को इंग्लैण्ड ले गये। वहाँ उन्हें एक अंग्रेज पादरी और उसकी स्त्री को सौंपकर निर्देश दिया कि उनके बच्चों का किसी भारतीय से परिचय न कराया जाये। इन निर्देशों का पालन हुआ और श्री अरविन्द भारतवर्ष, इसकी जनता, इसके धर्म से अनभिज्ञ रहते हुए ही बड़े हुए ।
'मानचेस्टर' और 'सेंट पॉल' स्कूल में श्री अरविन्द ने प्राचीन साहित्य पढ़ने की ओर ध्यान दिया। सेंट पॉल स्कूल में अन्तिम तीन वर्षों में उन्होंने अपनी पाठ्य पुस्तकों पर तो सरसरी नज़र दौड़ाई और अपना शेष समय अधिकतर व्यापक अध्ययन विशेषतः अंग्रेजी काव्य साहित्य, फ्रेन्च साहित्य और प्राचीन मध्ययुगीन और अर्वाचीन यूरोप के इतिहास के अनुशीलन में व्यतीत किया। अरविन्द कुशाग्र बुद्धि और अध्ययनशील तरुण थे। उनके पिता उन्हें किसी उच्च शासकीय पद पर आसीन देखना चाहते थे। अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर वे आई. सी. एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुए किन्तु आई. सी. एस. का आकर्षण भी अरविन्द को लुभा न सका । वस्तुतः यह विशाल राष्ट्र उनके नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था।
देश की आध्यात्मिक क्रांति की पहली चिंगारी
यद्यपि अरविन्द भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ रहते हुए ही पले और बढ़े थे किन्तु फिर भी न जाने क्यों भारत के प्रति उनके मन में अटूट लगाव था। उनके मन में भारतमाता के प्रति अत्यन्त श्रद्धा थी। उन्होंने भारत को स्वाधीन कराने के लिये निरन्तर संघर्ष किया, और संघर्ष की प्रेरणा उन्हें स्वयं ईश्वर से प्राप्त हुई। भारत की स्वतन्त्रता के माध्यम से वे मानवता की सेवा करना चाहते थे। यही कारण था कि इंग्लैण्ड में रहते हुए अल्पायु में ही उन्होंने भारत को आजाद कराने का निश्चय किया । उन्होंने भारतीय राजनीति में रुचि लेनी शुरू कर दी जिसके बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे। उनके पिता उन्हें 'बंगाली' नामक अंग्रेजी समाचार-पत्र पढ़ने के लिये भेजने लगे पर वे तो भारतीयों के साथ अंग्रेजों के दुर्व्यवहार की खबरों पर निशान लगा देते और अंग्रेजी सरकार को 'हृदयहीन सरकार' कहने लगे। उनका ध्यान पूर्णतः भारत की ओर आकृष्ट हो गया। लन्दन में रहने वाले भारतीय विद्यार्थियों ने एक गुप्त संस्था की स्थापना की और उसे नाम दिया 'कलम और कटार' । चौदह वर्ष तक युवक अरविन्द अपने देश की संस्कृति से अलग होकर इंग्लैण्ड में रहे। वे अपने- आप से प्रसन्न नहीं थे। वे नये सिरे से राष्ट्र बनाने की सोच रहे थे, अतः भारत लौट आये और बड़ौदा के महाराज गायकवाड़ के यहाँ नौकरी करने लगे। वे भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षित थे अतः उन्होंने संस्कृत, हिन्दी तथा बंगला का भी अध्ययन किया।
सन 1900 से अरविन्द की इच्छा थी कि वे राजनैतिक संघर्ष में प्रवेश करें और जो शक्तियाँ भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये गम्भीरतापूर्वक कार्य कर रही थीं उन्हें शक्ति भर सहयोग दें। अतः वे राजनैतिक आन्दोलनों में उतर पड़े। उन्होंने 'इन्दु-प्रकाश', 'युगान्तर', 'वन्दे-मातरम्' का सम्पादन किया। 'बंगाली दैनिक', 'नवशक्ति' का भार भी उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। अनायास पुलिस ने समाचार-कार्यालय में छापा मारा और श्री अरविन्द को कारावास में डाल दिया। जेल में उन्होंने अपना सारा समय 'गीता', 'उपनिषद' के स्वाध्याय, गम्भीर ध्यानयोग में व्यतीत किया । जब जेल से बाहर आये तो राजनैतिक स्थितियाँ बदल चुकी थीं । सर्वत्र निरुत्साह और विषाद छाया था। उन्होंने कई जगह घूम-घूमकर भाषण दिये। 'कर्म योगिन' और 'धर्म' नाम से साप्ताहिक चलाये।
गाँधी जी से पूर्व ही भारत के बुद्धिजीवी वर्ग को राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत करके श्री अरविन्द ने स्वाधीनता के बारे में सोचने को विवश कर दिया था।स्वतन्त्रता के विषय में श्री अरविन्द का विचार था कि स्वतन्त्रता भी जीवन के लिये उतनी ही आवश्यक है, जितने कि विधान और शासन पद्धति । श्री अरविन्द ने सरकार से समझौता नहीं किया। अंग्रेज सरकार किसी भी तरह उन्हें रास्ते से हटाना चाहती थी। उनके कार्यालय की तलाशी और गिरफ्तारी के आदेश हुए, ऊपर से चन्दन नगर, जोकि एक फ्रांसीसी कालोनी थी, जाने का आदेश हुआ और इसे ईश्वर की आज्ञा मानकर वे चन्दन नगर में पूर्ण ध्यान-योग में डूब गये, अन्य सभी कार्य बन्द कर दिये । पांडिचेरी चले जाने की पुकार आयी और सन् 1910 में वे पांडिचेरी पहुँच गये।
पांडिचेरी आने पर प्रथम दिन से ही वे योगाभ्यास में लीन हो गये और सार्वजनिक एवं राजनैतिक कार्यों में भाग लेना बन्द कर दिया। उनका विचार था कि आत्मा को शरीर से अधिक महत्त्व देना चाहिए तथा आत्मा की आवाज सुनकर आत्मा द्वारा बताये मार्ग पर चलते हुए जीवन के सभी कार्य करने चाहिए। अतः आध्यात्मिक ज्ञान देने के लिए उन्होंने पांडिचेरी में आश्रम की स्थापना की ।
महर्षि अरविन्द का दर्शन
श्री अरविन्द मूलतः आध्यात्मिक पुरुष थे। वे अत्यन्त विद्वान और गहरी सूझबूझ के व्यक्ति थे। उनका कहना था कि विज्ञान की उपलब्धियाँ भौतिक सुख तो दे सकती हैं लेकिन वास्तविक शांति नहीं। इसी कारण उन्होंने "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः" अर्थात् सबके कल्याण की कामना लेकर योग की साधना का मार्ग अपनाया था।
ऐसे क्रान्तिकारी विचारक, महान-योगी, विश्व-मानवता की उन्नति करनेवाले, आध्यात्मिक पुरुष श्री अरविन्द 15 दिसम्बर सन् 1950 को प्रभुसत्ता में लीन हो गये। मृत्यु ने भले ही उनके पार्थिव शरीर को नष्ट कर डाला है किन्तु उनका यश आज भी जीवित है और सदा रहेगा। उनके कार्यों की सुगन्धि से समस्त विश्व सुवासित है। उसकी महक सभी को उल्लसित और प्रेरित करती रहेगी। श्री अरविन्द की ज्योति मन की ज्योति नहीं वह दिव्य प्रकाश है जो किसी भी स्तर पर कार्य कर सकता है।
"जिसने नयी आभा दी है मानव सन्तान को,
श्रद्धायुक्त प्रणाम है मेरा उस अरविन्द महान को।"
अरविन्द घोष के शैक्षिक विचार
महर्षि अरविन्द, 20वीं सदी के एक महान भारतीय दार्शनिक, क्रांतिकारी और शिक्षाविद्, शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में अमूल्य योगदान देने के लिए जाने जाते हैं। उनका शिक्षा दर्शन केवल ज्ञान प्राप्ति तक सीमित नहीं था, बल्कि मानव-व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर केंद्रित था।अरविन्द जी के शिक्षा दर्शन का भारत और विदेश में शिक्षा प्रणाली पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उनके विचारों से प्रेरित होकर, कई शिक्षण संस्थानों की स्थापना की गई है जो उनके शिक्षा दर्शन के आदर्शों का पालन करते हैं।
महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन आज भी प्रासंगिक है। उनके विचार हमें शिक्षा के बारे में नए तरीके से सोचने और एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं जो मानव-व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास को बढ़ावा दे ।
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