मीरा के काव्य में सामंती रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की अभिव्यक्ति मीरा के काव्य में व्यक्त विद्रोही विचारों पर प्रकाश मीराबाई कृष्णभक्त कवियों में अग्र
मीरा के काव्य में सामंती रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की अभिव्यक्ति
मीराबाई, 16वीं शताब्दी की प्रसिद्ध भक्त कवियित्री, न केवल अपनी भक्तिभावना के लिए, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों और परंपराओं के खिलाफ अपनी विद्रोही भावना के लिए भी जानी जाती हैं। उनके पदों में, हम स्त्री-पुरुष समानता, सामाजिक कुरीतियों का विरोध, और ईश्वर के प्रति निःशर्त प्रेम का संदेश पाते हैं।
मीराबाई कृष्णभक्त कवियों में अग्रगण्य हैं।इनका जन्म अनुमानतः सन् १५० ३ ई० में तथा मृत्यु सन् १५४६ ई० के आसपास मानी गयी है। इनकी कविताएं सामंतवादी रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष की राह दिखाती हैं । ऐसा होना अकारण नहीं है।मीराबाई को स्वयं इन रूढ़ियों का शिकार होना पड़ा था । वह युवावस्था में ही विधवा हो गई थीं ।इसके बाद मीरा श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व मान बैठीं । उन्होंने असहायता प्रदर्शित करते हुए कहा - 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई ।'
मीरा को इस समर्पण के लिए सास और ननद से जली-कटी सुननी पड़ी । ससुर राणा ने क्रोध से घर में बंद कर ताला जड़ दिया, बाहर पहरा भी बैठा दिया । इस घटना के बारे में मीरा ने बताया है -
सास लड़े मेरी ननद खिजावै राणा रह्या रिसाय ।
पहरो भी राख्यो चौकी बिठार्यो, तालो दियो जड़ाय ।।
यहाँ तक कि नगरनिवासी भी हँसी उड़ाने से बाज नहीं आये -
कड़वा बोल लोक जग बोल्या करस्यां म्हारी हांसी ।
कहना न होगा कि इन पंक्तियों में उस नारी का स्वर व्यंजित हुआ है, जिसका सामंती घेरे से एक पग बाहर निकलना भी उसे भ्रष्ट, पतिता और कुलनासी साबित करने के लिए काफी है ।
मीरा का भक्त होना अस्वाभाविक नहीं है, अस्वाभाविक है राज-कुल- वधू होकर साधु-संगति में उठना-बैठना । कृष्ण-दर्शन की लालसा में घर-परिवार से बाहर निकलना । सामंतवादी परिवेश में उनकी भावनागत पवित्रता को नहीं पहचाना जाना भी स्वाभाविक ही माना जाएगा । फलतः मीरा सगे-संबंधियों की आक्रोश जनित उपेक्षा का शिकार होती हैं। एक जनश्रुति के अनुसार उन्हें जहर का प्याला तक पिलाया जाता है। पर प्रेम-पथ की सच्ची साधिका मीरा पर जहर का असर भी अमृत की तरह होता है । इस संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है, "पता नहीं यह सत्य है या असत्य, लेकिन इसका प्रतीकार्थ जरूर है । विषपान मीरा का - मध्यकालीन नारी का स्वाधीनता के लिए संघर्ष है और अमृत उस संघर्ष से प्राप्त तोष है, जो भावसत्य है ।" इस भावसत्य से जुड़ी मीरा ने कभी भी संघर्ष पथ पर आनेवाली विघ्न-बाधाओं की परवाह नहीं की । वह अपने जीवनाधार गिरिधर नागर के प्रेम में लोक-लाज खोकर साज-सिंगार के साथ नाच उठीं । मीरा ने कहा है - 'लोक कह्यां मीरां बावरी सासु कह्या कुलनासी री। पर 'साज सिंगार बांध पग घूँघर लोक लाज तज नाची ।'
इस प्रकार राज परिवार में जन्मी मीरा राज-वधू होकर भी उस राजकीय परिवेश के असहिष्णु सामंतवादी विचारधारा का विरोध करती हैं। शिवकुमार मिश्र के शब्दों में, “मीरा समूचे भक्तिकाल में अकेली नारी भक्त हैं, जिन्होंने अपनी आत्म-निवेदन पूर्ण कविता में अपनी भक्ति और अपने प्रेम के माध्यम से, एक पूरी की पूरी समाज व्यवस्था की असहिष्णु और अमानवीय मानसिकता को, उसकी भेदभाव पूर्ण रीति-नीति को और दो-मुँहे चेहरे को बेनकाब किया है ।" किंतु इसका अर्थ कदापि यह नहीं लगाना चाहिए कि मीरा उच्छृंखल स्वभाव की थीं। वह भारतीय समाज में परंपरा से सम्मानित पति-पत्नी के आदर्श संबंधों को स्वीकारते हुए कहती हैं कि दूसरे का पति लाख अच्छा होकर भी वह अपने किसी काम का नहीं है । उसके साथ रहने वाले को कोई भला नहीं कहता । पर अपना पति भले ही कोढ़ी-कुष्टी भी हो तो उसके साथ रहने को सभी भला कहते हैं -
छैल विराणो लाख को हे, अपणे काज न होइ ।
ताके संग सीधारतां है भला न कहसी कोइ ।
वर हीणो अपणो भलो हे कोढ़ी कुष्टी होइ ।
जाके संग सीधारतां है, भला कहै सब लोइ ।।
ये पंक्तियाँ मीरा के जीवन-संबंधी उस घटना को उजागर करती हैं जब पति के साहचर्य में उनका वैवाहिक जीवन सुखमय था । किंतु विधवा हो जाने के बाद गद्दीनशीन उद्दण्ड एवं परपीड़क अपने देवर महाराणा विक्रमाजीत सिंह के अमानवीय अत्याचारों को वह बर्दाश्त नहीं कर सकीं और पति की चिता पर सती होने के बजाय भक्तिन बन गईं । वे पारिवारिक संस्कार के प्रभाव में बाल्यावस्था से ही कृष्ण प्रेम में अनुरक्त थीं, अत: उन्हें ही शेष जीवन का सर्वस्व मान बैठीं । मीरा की भक्ति में न कबीर का 'खंडन-मंडन' है, न सूर का 'निर्गुण- सगुण विवाद' और न तुलसी का 'नाना पुराण निगमागम' । यह धर्म-दर्शन- संप्रदाय से ऊपर अपने आराध्य के प्रति निश्छल मन का आत्मसमर्पण है । सगुण भक्ति-साधना में कृष्ण-भक्त मीरा की तुलना आलवार भक्त कवयित्री आंडाल से की गयी है। निर्गुण भक्त संत रैदास की शिष्या के रूप में भी मीरा की एक पहचान बनी है । क्योंकि कई जगह गिरिधर नागर 'सूली ऊपर सुन्न गगन में' मीरा के लिए सेज भी बिछाते हैं। कभी मिलन की उत्कंठा से वह रोमांचित भी हो उठती हैं और बिना वाद्य-यंत्र के अनहद की झंकार से मानस झंकृत हो उठता है -
बिन करताल पखावज बाजे अनहद की झनकार रे ।
बिन सुर राग छतीसूँ गावे रोम रोम रंग सार रे ।
कहना न होगा कि भक्ति के क्षेत्र में विभिन्न मत-मतांतरों से ऊपर मीरा ने अनुभूति पक्ष को ही प्रधानता दी है। वह सगुण-साकार कृष्ण के विरह में व्याकुल होते हुए भी कबीर की तरह अपने अंतस में ही प्रिय का अहसास करने लगती हैं -
जाका पिव परदेस बसत है लिख लिख भेजत पाती ।
मेरा पीय मेरे हीय बसत है ना कहुँ आती न जाती ।।
भक्ति-भावना की यह पराकाष्ठा मीरा के वैधव्य से उपजे जीवन-संघर्ष की परिणति है । यह परिणति वह स्थल है, जहाँ पहुँचकर दर्द भी दवा बन जाती है ।मीरा के काव्य में व्यक्त विद्रोही विचार उन्हें उस समय की अन्य महिला कवियों से अलग करते हैं। उन्होंने स्त्री-पुरुष समानता, सामाजिक कुरीतियों का विरोध, और ईश्वर के प्रति निःशर्त प्रेम का संदेश देकर समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने का प्रयास किया।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मीरा के विद्रोह का उद्देश्य विनाश नहीं था, बल्कि परिवर्तन था। वे एक बेहतर समाज की स्थापना करना चाहती थीं, जहाँ सभी को समान अधिकार और सम्मान मिले।मीरा के काव्य ने सदियों से लोगों को प्रेरित किया है और आज भी उनकी रचनाएं प्रासंगिक हैं।
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