निराला के काव्य में आत्मसंघर्ष | काव्य का वैचारिक आधार

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निराला के काव्य में आत्मसंघर्ष काव्य का वैचारिक आधार निराला जी ने आत्मसंघर्ष के विभिन्न रूपों को बड़ी ईमानदारी और तीव्रता से व्यक्त किया है, जो उनके

निराला के काव्य में आत्मसंघर्ष | काव्य का वैचारिक आधार


निराला, हिंदी साहित्य के अग्रणी कवियों में से एक, अपने काव्य में गहरे आत्मसंघर्षों के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में, हम अक्सर द्वंद्व, विरोधाभास और आंतरिक उथल-पुथल के दर्शन करते हैं। यह आत्मसंघर्ष कई स्तरों पर प्रकट होता है, जिसमें व्यक्तिगत, सामाजिक और दार्शनिक स्तर शामिल हैं।

कवि की अनुभूति ही काव्य को जन्म देती है और उस अनुभूति की अभिव्यक्ति ही आत्माभिव्यक्ति कहलाती है। जिस अनुभूति में अभिव्यक्तिक्षमता नहीं है, वह वास्तव में अनुभूति न होकर कोरी इन्द्रियता या मानसिक जमुहाई मात्र है। वह अनुभूति जो आत्मिक व्यापार का परिणाम है, सौन्दर्य-रूप में अभिव्यक्त हुए बिना नहीं रह सकती। उसे काव्य-रूप ग्रहण करना ही पड़ेगा। जहाँ तक निराला का प्रश्न है तो उनके जीवन की तरह उनके काव्य में भी वेदना और अनुराग है, रंग और गन्ध है, आसक्ति और आनन्द के झरनों का संगीत है तथा अनासक्ति और विषाद का स्वर भी है। उसे पढ़ते समय कभी आनन्द के अमृत-बिन्दुओं का आभास होता है तो कभी अवसाद और वेदना की काली परतों से मन का कोना-कोना घिर जाता है।
 
निराला के काव्य में आत्मसंघर्ष | काव्य का वैचारिक आधार
काव्य का अनुभव वास्तव में जीवनानुभव ही है। अतः किसी भी काव्य में उसके रचयिता के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, राग-विराग-मूलक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति नितान्त स्वाभाविक है। निराला 'बसन्त के अग्रदूत' हैं। उनकी कविताओं में उल्लास, रंगीनी एवं हरियाली है, जीवन का सारा ज़हर पीकर औरों को अमृतपान कराने का साहसपूर्ण त्याग है, जीवन के प्रति अडिग, अकम्प आस्था है तथा है अदम्य आत्मविश्वास। अपने साहित्यिक-सामाजिक जीवन में उन्हें नानाविध विरोधों का सामना करना पड़ा, फिर भी वे अडिग रहे :
 
'अभी न होगा मेरा अन्त । 
अभी-अभी तो आया है, मेरे जीवन में मधुर बसन्त ।'
 
आत्माभिव्यक्ति दो रूपों में पायी जाती है- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष रूप से होनेवाली आत्माभिव्यक्ति में कवि अपने जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं का, रुचि अरुचि और आशा-निराशा का सीधे चित्रण करता है। अप्रत्यक्ष रूप से होनेवाली आत्माभिव्यक्ति में वह अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को व्यक्त करता है।अभिव्यक्ति के ये दोनों रूप निराला की कविताओं में दिखायी देते हैं। जीवनराग को व्यञ्जित करनेवाली ये कविताएँ कवि के सुखी क्षणों का ब्यौरा हैं :
 
'चुम्बन-चकित चतुर्दिक चंचल 
हेर, फेर मुख, कर बहु सुख - छल, 
कभी हास, फिर त्रास, साँस बल उर-सरिता उमगी।' 
लेकिन दुःखद यह रहा कि उनका विश्वास खण्डित हुआ। 

अभी-अभी आया बसन्त उनके जीवन को पतझर के समान कर गया। माता-पिता, पत्नी, भाई, भाभी, बिटिया आदि स्वजन उन्हें अकेला छोड़ गये। इस असहनीय अकेलेपन ने उनके हृदय में निराशा भर दी:

'मैं अकेला 
देखता हूँ आ रही, मेरे दिवस की सान्ध्य बेला 
पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रभ गाल मेरे, 
चाल मेरी मन्द होती जा रही, हट रहा मेला ।....'
 
जो निराला कितनों से टकराये, कितनों के दुःख-दर्द दूर किये, हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए क्या नहीं किये और अपनी प्रतिभा के प्रकाश से साहित्य-नभ को मण्डित किये, उन्हें पुरस्कार में पीड़ा, उपेक्षा और तिरस्कार मिला। जिसके जीवन में आशा की एक किरण भी दिखायी न दे रही हो, वह क्यों और कैसे जियेगा - 

'चोट खाकर राह चलते 
होश के भी होश छूटे की 
हाथ जो पाथेय थे, ठग 
ठाकुरों ने रात लूटे कण्ठ रुकता जा रहा है 
आ रहा है काल देखो-' 

घोर निराशा और अकेलेपन के इन क्षणों में वह पूर्व के महत्त्वपूर्ण अवदानों एवं अतीत सुखद स्मृतियों को अवलम्ब बनाकर किसी प्रकार अपनी जीवननैया को आगे बढ़ाना चाहते हैं, किन्तु इसमें वे कहाँ तक सफल होंगे, कौन जानता है ? अपनी लाचारी को अभिव्यक्त करनेवाली उन्होंने अनेक कविताएँ लिखीं। एक उदाहरण :
 
'स्नेह-निर्झर बह गया है। 
रेत-ज्यों तन रह गया है। 
दिये है मैंने जगत् को फूल-फल, 
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल; 
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल- 
ठाठ जीवन का वही / जो ढह गया है।'
 
दरअसल निराला ने अपने जीवन में जिस सत्य को, कड़वे-मीठे अनुभवों को भोगा और जिस वेदना के विष को पिया, उसी का रूपांकन उनकी समस्त काव्ययात्रा में जगह-जगह दिखायी देता है। इसी विशेषता के कारण निराला अन्य छायावादी कवियों से कुछ अलग ही हैं। जहाँ अन्य छायावादी कवि कल्पना के छायालोक में विचरण कर रहे थे, वहीं निराला इस विचरण के साथ धरती की तपन और घुटन को बर्दाश्त करते हुए जीवन के कुछ अनुभवों को वाणी दे रहे थे।
 
उनकी कविताओं का क्रमवार अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि धीरे-धीरे निराला का यह विषाद गहराता चला जाता है। सांसारिक संघर्ष उन्हें मिथ्या लगने लगते हैं। उन्हें लगता है यह संसार जहर से भर गया है। ऐसी हालत में वे अपने जीवन को दुःख के सागर में डूबा हुआ अनुभव करते हैं और अन्त में मृत्यु की पीड़ा को भोगते हुए दिखायी देते हैं। उदासी, खिन्नता और विषाद का स्वर उनकी समस्त चेतना पर छाने लगता है, परिणामस्वरूप वे कह उठते हैं- 'हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में गया हार।' अपार दुःख से पूरित वे मृत्यु की नीली रेखा देखने लगते हैं - 
 
'आग सारी फुक चुकी है, रागिनी बह रुक चुकी है, 
स्मरण में है आज जीवन, मृत्यु की है रेख नीली ।'
 
निराला देख रहे थे कि साधन-सम्पन्न को ही सम्मान मिल रहा है। दुनिया गुणों की पूजा करना भूल-सी गयी है। सारा नाम-यश, श्रेय और कीर्ति अर्थाश्रित बनकर रह गये हैं, फिर भी उनका ईमानदार मन कभी स्वार्थी और धन-लोलुप नहीं बन सका -

'लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर 
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।'
 
सब-कुछ त्याग कर निराला ने मात्र सारस्वत-साधना को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। वे पूरी उम्र नवीनता की स्थापना में प्राणपण से लगे रहे। अपने जीवट का परिचय देते हुए उपेक्षा के बाणों से बिद्ध होते रहे, लेकिन उन्हें किसी बात की परवाह नहीं थी। हाँ, एक बात की चिन्ता अवश्य सालती रहती थी कि क्या हिन्दी-जगत् उनके महत्त्व को पहचान कर उन्हें स्नेह-सम्मान दे पायेगा अथवा नहीं ? - 
 
'मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ? 
स्तब्ध, दग्ध मेरे मरु का तरु क्या करुणाकर खिल न सकेगा ?' 
'धिक् ! जीवन जो पाता ही आया है विरोध, / धिक् साधन 

जिसके लिए सदा ही किया शोध' या 'अन्याय जिधर है शक्ति उधर' आदि 'राम की शक्तिपूजा' की पंक्तियों में व्यक्त राम के दुःखोद्गारों के माध्यम से कवि का कठोर जीवन-संघर्ष और पग-पग पर असफलताओं से भरा हुआ जीवन हमारे सामने आ जाता है। किन्तु जिस प्रकार राम का अचेतन मन हार नहीं मानता, उसी प्रकार निराला ने भी कभी संघर्ष से पलायन नहीं किया, उनकी आशा का दीपक कभी मन्द नहीं पड़ा।
 
‘स्फटिक-शिला' शीर्षक रचना में निराला जी ने अपनी चित्रकूट यात्रा का विस्तृत वर्णन किया है। 'तुलसीदास' के द्वितीय उर्ध्वगमन का सम्बन्ध परोक्षरूप से निराला के जीवन-प्रसंगों से जुड़ जाता है। 'राम की शक्तिपूजा' में सीता के उद्धार से सम्बन्धित आशा-निराशा के द्वन्द्व राम के मन में बराबर उभरते रहते हैं किन्तु तुलसीदास में इस प्रकार के संकल्प-विकल्प नहीं हैं। दूर, दूरतर और दूरतम स्थितियों में उनका मन क्रमशः ऊपर उठता जाता है। मन की इस मुक्तदशा में तुलसीदास और निराला का ही जीवन सापेक्ष-दृष्टि से वर्तमान है। दोनों के लौकिक सुख, भोग-वासना और विकार यहाँ पूर्णतः तिरोहित हो जाते हैं। जाग्रत है केवल देश-काल की अवस्था से बिंधा हुआ कवि निराला और तुलसीदास का मन ।
 
जिस प्रकार रत्नावली का आक्रोशजन्य कथन तुलसीदास को रामोन्मुख या काव्योन्मुख करने में सहायक सिद्ध हुआ था, उसी प्रकार निराला की धर्मपत्नी मनोहरा देवी ने भी निराला जी को अपने आक्रोशजन्य कथनों द्वारा साहित्य की ओर उन्मुख किया था। अतः इसमें आश्चर्य नहीं किया जा सकता कि रत्नावली के रूप में कवि के समक्ष मनोहरा देवी की ही परोक्ष छाया विद्यमान रही हो। उनके कवि-मानस पर सरस्वती कमला के रूप में जीवनपर्यन्त छायी रही हैं। 

इस प्रकार, निराला के काव्यानुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष आत्म-व्यञ्जना के दोनों रूप पाये जाते हैं। निश्चयेन वे एक ऐसे युग-प्रवर्त्तक साहित्यस्रष्टा थे, जिन्होंने युगों से बहती हवा के रुख को हठात् मोड़ दिया। इसके लिए उन्होंने अपने-आप को समाप्त कर लिया। कहते हैं इस्पात भी गर्म होने पर अपना रूप बदल देता है, पर निराला तो ऐसा इस्पात साबित हुए जो जितना ही गर्म हुआ, दृढ़तर होता गया। सारा जीवन सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक विद्रोहों में ऐसा खपा दिया कि उनका जीवन उनका न हो सका। उनका पौरुष साहित्य की बलिदेवी पर चढ़कर बलिदान की अक्षय सुगन्ध बिखेर गया है। इस बलिदान को भी उन्होंने एक चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया है -
 
'मरण को जिसने वरा है 
उसी ने जीवन भरा है। 
धरा भी उसकी, उसी के 
अंक सत्य यशोधरा है।'
 
इस प्रकार निराला जी के काव्य में आत्मसंघर्ष एक महत्वपूर्ण विषय है। यह विषय उनके जीवन के अनुभवों और उनके गहन चिंतन से प्रेरित है।निराला जी ने आत्मसंघर्ष के विभिन्न रूपों को बड़ी ईमानदारी और तीव्रता से व्यक्त किया है, जो उनके काव्य को और भी समृद्ध और प्रभावशाली बनाता है।

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