प्रकृति की ओर लौट चलें विषय पर हिन्दी निबंध मनुष्य प्रकृति का प्रमुख अंश है। प्रकृति में उपस्थित पाँचों तत्त्व आकाश, जल, अग्नि, वायु एवं पृथ्वी हैं।
प्रकृति की ओर लौट चलें विषय पर हिन्दी निबंध
मनुष्य प्रकृति का प्रमुख अंश है। प्रकृति में उपस्थित पाँचों तत्त्व आकाश, जल, अग्नि, वायु एवं पृथ्वी हैं। ये पाँचों तत्त्व किसी न किसी रूप में मनुष्य के जन्म में सहायक रहे हैं तभी मनुष्य को प्रकृतिमय होने में समय नहीं लगता। प्रकृति में होने वाले निरंतर परिवर्तन को आत्मसात करने में उसे कठिनाई नहीं होती। प्रकृति के रहस्यों को जानना असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य है। किसी ने ठीक ही कहा है 'प्रकृति के रहस्यों को जानने के लिए जिज्ञासु बालक बन, उसकी उँगली पकड़ उससे संपर्क साधना होगा।' प्रकृति के सान्निध्य में गए बिना, उसकी गोद में बैठे बिना हम उसके रहस्य की परतों को खोलने में, जानने में असमर्थ ही रहेंगे ।
आदिम युग में मानव प्रकृति की शक्ति से भयभीत रहता था पर अपने जीवन हेतु प्रकृति पर ही पूर्णतया निर्भर रहता था। प्रकृति के अत्यधिक सन्निकट रहने पर उसे प्रकृति का महत्त्व ज्ञात हुआ। परंतु उसकी जिज्ञासा तब भी शांत नहीं हुई। प्रकाश का अंधकार में बदलना, गर्मी के बाद सर्दी का आना, हरे-भरे वृक्षों के पत्तों को सूखते देखना, नन्हे बीज से विशाल वृक्ष बनते देखना उसके लिए अजूबा रहा होगा। नदियों का कलकल बहना, धूप-छाँव की आँख-मिचौली आदि देख उसे कौतूहल अवश्य हुआ होगा, इसी कौतूहल ने समय के साथ उसे प्रकृति का रहस्य जानने को उकसाया होगा। प्रकृति के प्रचंड रूप ने उसे भयभीत किया होगा तो उसके मनोरम सौंदर्य ने भी उसे अपनी ओर आकर्षित किया होगा। भयभीत होकर जहाँ मनुष्य ने उसकी पूजा की होगी, वहीं उसके मनोरम रूप ने उसे प्रेयसी का-सा प्रेमाकर्षण भी दिया होगा।
रूप बदल-बदल कर बहलाया,
मानो प्रेयसी प्यार हो,
प्रचंड रूप में तात का
मानो तप्त प्रहार हो,
तब मलयानिल
प्रकृति तुम मानव को
मानो माँ का स्नेहिल दुलार हो,
सृष्टि का अनुपम उपहार हो ।'
आदिकाल में ऋषि-मुनि प्रकृति की गोद में बैठकर तपस्या करते थे। उन्होंने भी प्रकृति से प्रेरित होकर प्रकृति पर अनेक रचनाएँ लिखीं, जहाँ उसे सहचरी, प्रिया, प्रेरणा आदि के रूप में उसकी मादक कल्पना को शब्दों में जीवंत रूप दिया वहीं उसके प्रचंड एवं भयानक रूप से भयभीत हो आराध्य रूप में उसकी पूजा आराधना भी आरंभ की होगी। कल-कल करते झरने, सुगंधित बयार, सुमनों पर मँडराती रंग-बिरंगी तितलियों, नव पल्लवों एवं पुष्पों से किया गया धरती का अनुपम शृंगार, कोकिला की पीहू-पीहू आदि प्रकृति के मादक रूप ने मनुष्य को रोमांचित, भाव-विभोर कर कवि हृदय बन उसके प्रणय भाव को उकसाया होगा, वहीं भूकंप, बाढ़, आंधी, तूफान, मेघ गर्जना, मेघ तड़ित आदि प्रकृति के प्रचंड रूप ने उसे उसके आगे नतमस्तक होने पर विवश किया होगा। इस प्रकार प्रकृति के इस दैवी रूप ने उसे प्रकृति का पुजारी, प्रकृति का दास बना दिया।
जितना मनुष्य प्रकृति के सान्निध्य में रहा उतना ही वह उसके स्वभाव से परिचित होता गया। इस प्रकार वह जान गया कि प्रकृति सदा ही विनाशकारिणी, भयानक, प्रचंडरूपा, कष्टदायिका तथा हिंसक ही नहीं अपितु वह जननी समान जन्म देने वाली, पालन-पोषण करने वाली, मातृवत् गोद में सुलाकर सुख प्रदान करने वाली भी है और प्रेयसी समान जीवन- पिलाने वाली भी है, प्राणों को जीवन देने वाली भी यही है।
प्रकृति के पास रहकर मनुष्य ने उसके अनुशासित एवं मर्यादित रूप को भी देखा। सूर्य, चंद्रमा एवं तारागणों का एक निर्धारित काल में आना-जाना, अंधकार एवं प्रकाश का क्रमशः आना, ऋतुओं का निश्चित समय पर बदलना, प्रकृति का निरंतर किंतु निर्धारित काल में अनायास रूप परिवर्तन आदि ने मनुष्य को मर्यादित एवं अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा दी।
यही नहीं वृक्षों, नदियों, तालाबों आदि ने उसे परोपकार की शिक्षा दी। फल-भार से बोझिल वृक्षों ने उसे विनम्रता, कोमलता, नतमस्तक होना आदि गुणों का ज्ञान दिया। कोमल घास ने, पादपों ने उसे अहंकार, मिथ्यादंभ आदि से रहित रहने की सीख दी। निर्झरणी के कल-कल स्वर ने तथा कोकिला के मृदुल स्वर ने मनुष्य के कंठ में मिठास भरी, पक्षियों की स्वच्छंद उड़ान से एवं कैदी जीवन से उसने स्वतंत्रता का महत्त्व जाना एवं परतंत्रता की पीड़ा का अनुभव किया। पल्लवों ने जहाँ उसे सुख- दुख में निर्लिप्त रहने का भाव दिया वहीं मुस्काते सुमनों ने उसे इस क्षणभंगुर जीवन को हँस-हँसकर जीने का संदेश दिया कहना अनुचित और अतिशयोक्ति न होगा कि मनुष्य को मर्यादित, अनुशासित जीवन जीने एवं अपने सद्गुणों का सदुपयोग करने की शिक्षा माँ प्रकृति से ही मिली है।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य उन्नति करता गया, त्यों-त्यों वह माँ स्वरूपा प्रकृति से कटता चला गया। अपने विकास में मनुष्य इतना स्वार्थी व लालची हो गया कि जिस प्रकृति ने उसे जीवन दिया वह उसी के ह्रास को तत्पर हो गया। इस सदी के मध्य तक आते-आते मनुष्य ने अतिक्रूरता से वनों का नामोनिशान मिटाना प्रारंभ कर दिया, उसके स्थान पर आज शहर के नाम पर कंकरीट का जंगल खड़ा कर दिया। जिसने प्रकृति के वरदान प्रकाश, प्राणवायु, वर्षा को छीन लिया और आकाश का नीलापन भी इन गगनचुंबी इमारतों से दीखना दुष्कर हो गया।
प्रकृति का विनाश यहीं तक सीमित नहीं है, मनुष्य ने जल, वायु, भूमि आदि को भी प्रदूषित कर दिया। जल में विषैला रसायन मिलाकर उसे पीने योग्य नहीं छोड़ा, यही कारण है कि विश्व में पीने योग्य जल का अभाव देखने को मिल रहा है। मनुष्य बूँद-बूँद को तरस रहा है। इस विषैले जल में अनेक प्रकार की मछलियाँ एवं जीव जो जल को शुद्ध करते थे, नष्ट हो गए। इस प्रकार जल अशुद्ध हो गया है। वायुमंडल में विषैली गैस मिलाकर इसे जहरीला बना दिया जिसका परिणाम भयानक एवं असाध्य रोगों का अस्तित्व में आना है। यही नहीं वायु को शुद्ध करने वाले वृक्षों की स्वार्थी तत्त्वों द्वारा अंधाधुंध कटाई परिणामतः वनैले पशु-पक्षियों का पलायन तथा लुप्त प्रायः होने की अवस्था तक पहुँचना है। वायु का शुद्ध न होना, वायुमंडल का प्रदूषित होना, ओजोन परत नष्ट होने और जीवन के लिए हानिकारक पराबैंगनी किरणों का धरती तक पहुँचना आदि खतरनाक परिणाम ने प्राणी जगत के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया।
केवल मनुष्य द्वारा प्रकृति को विषैला बना, नष्ट करने का भयानक कदम आज प्राणी के लिए भस्मासुर का वरदान सिद्ध हो रहा है। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो प्रकृति को समूल नष्ट करने पर तुला हुआ है। ऐसे स्वार्थी, दंभी मनुष्य के लिए ठीक ही कहा गया है-'
'जन्मदात्री, पालनकर्त्री, माँ प्रकृति
को, रे मानव! तू लील रहा,
सदा सुधारस रही पिलाती, तुझे,
रे कृतघ्न ! तू रक्त भी उसका पी रहा।
जिस डाल पर बैठा है
तू, रे मूर्ख! उसी को काट रहा ।
चेत जा तू, अभी समय है
काल तुझे समझा रहा।
आज मनुष्य विकास एवं उन्नति की चरम सीमा पर खड़ा है, पर उसकी प्रकृति के प्रति लापरवाही, बेरुखी, नकारात्मक व्यवहार उचित नहीं। समय-समय पर प्रकृति के विनाशक रूप को वह झेल चुका है, प्रकृति के नाश का भयानक परिणाम भी वह जानता है, तो समय आ गया है जब हम पुनः प्रकृति की ओर मुड़ें। एक जिज्ञासु शिशु बन माँ का आँचल पकड़ उसके सन्निकट जाएँ। जितना हम उसके निकट जाएँगे उतना ही हमारा जीवन सुंदर, सुखमय, सरल, प्रकृतिमय होता जाएगा।
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