प्रातःकाल का दृश्य प्रकृति का अत्यंत मनोरम और रमणीय स्वरूप होता है। जब सूर्य क्षितिज के ऊपर उगता है, तो धरती पर सुनहरी रोशनी फैल जाती है। धीरे-धीरे अं
प्रातःकाल का दृश्य पर निबंध
प्रातःकाल का दृश्य प्रकृति का अत्यंत मनोरम और रमणीय स्वरूप होता है। जब सूर्य क्षितिज के ऊपर उगता है, तो धरती पर सुनहरी रोशनी फैल जाती है। धीरे-धीरे अंधेरा छंट जाता है और चारों ओर उजाला छा जाता है। पक्षी मधुर स्वर में चहचहाते हैं, मानो वे नवीन जीवन का स्वागत कर रहे हों। फूलों में ओस की बूंदें चमकती हैं, जैसे कि प्रकृति ने हीरे बिखेर दिए हों।
प्रातःकालीन ध्वनियाँ प्रातः काल सृष्टि को नव-जीवन प्रदान करती हैं।जब रात अपना आँचल समेट कर चली जाती है तब सूरज की किरणें पूरे विश्व में प्रकाश फैलाकर भोर के आगमन का संदेश देती हैं। पूरी धरा सूर्य की तेज किरणों में नहाई हुई सी प्रतीत होती है। अंधकार का एक भी अंश शेष नहीं रहता। कवि प्रसाद ने भी इस सौन्दर्य का मानवीकरण किया है-
'बीती विभावरी जाग री
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी'
प्रातः होते ही सभी प्राणियों में नया जोश उत्पन्न हो जाता है। सवेरा होते ही पक्षियों का चहचहाना ऐसा लगता है मानों उनमें भी एक नई उमंग आ गई हो। सुगन्धित वायु मन्द-मन्द बहने लगती है। उसमें भी एक मन-लुभावनी ध्वनि होती है। कोयल कूकती है। रात भर कमल की पंखुड़ियों में बंद भ्रमर प्रभात होते ही मुक्त होकर प्रसन्नता से गुनगुनाने लगता है। कभी हवा वृक्षों की टहनियों से अठखेलियाँ करती है और कभी सोई हुई कलियों को जगाती है।
प्रातःकाल होते ही सृष्टि के सभी जीवों में गति एवं स्फूर्ति आ जाती है। सबके जीवन की दिनचर्या प्रातः होते ही प्रारम्भ हो जाती है जिसमें ध्वनियों का विशेष स्थान है। घर में गृहस्वामिनी अपने क्रियाकलापों से अपनी दिनचर्या प्रारम्भ करती है। इन कार्यों में ध्वनि न हो यह असम्भव है। इन कार्यों में भी एक गति होती है।
प्रातः होते ही भक्त लोग मन्दिरों में जाकर भगवान की आरती- पूजा करने लगते हैं। आरती के साथ पुजारी द्वारा घण्टी बजाने और मंत्र- स्त्रोतों के उच्चारण से अनेक ध्वनियाँ होती हैं।मस्जिद में कुरान की आयतें पढ़े जाने के स्वर सुनाई देते हैं। गुरुद्वारे में प्रातः से ही गुरुवाणी प्रारम्भ हो जाती है, चर्च में ईसामसीह की प्रार्थना।ये सभी ध्वनियाँ हमारे भारतवर्ष में फैले हुए विभिन्न धर्मों के मानने वालों में श्रद्धा-भाव जागृत करती हैं। सारा वातावरण इन ध्वनियों से पवित्र हो जाता है। मन को असीम शांति प्राप्त होती है और हृदय में पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं।
प्रातःकालीन सूर्य के उदय होते ही पारिवारिक चहल-पहल प्रारम्भ हो जाती है। सुबह-सुबह अखबारवाला आवाज़ लगाकर अखबार दे देता है। घर में पशु भी सवेरा होते ही क्रियाएँ करने लगते हैं। दरवाजे आदि खोलने की आवाज भी होती है - लो यह रहा भोलाराम दूधवाले का भोंपू। एक हल्की सी मुस्कराहट और रोज की तरह अभिवादन करके वह दूध दे जाता है। उसकी आवाज बहुत तेज है इसलिये हजारों में भी उसकी आवाज पहचानी जा सकती है। रोज सवेरे ठीक साढ़े छह बजे दादी जी की पूजा का समय होता है। उनके आरती के मधुर शब्द सम्पूर्ण घर को पवित्र कर देते हैं। अब सक्कूबाई रसोईघर में नाश्ते का प्रबंध करते हुए न जाने कितनी बार बरतन गिराती है। बरतनों की आवाज से सुबह का शांत माहौल बहुत बार भंग हो जाता है। और फिर धीरे-धीरे दादी जी का सीढ़ियाँ उतरना और उनकी लाठी की टक-टक ध्वनि, फिर उनका रसोईघर में जाकर सक्कूबाई को तेज और ऊँची आवाज में डाँटना तो घर में आम बात है।
स्नान गृह से पानी के गिरने की आवाज यह बता देती है कि दादा जी स्नान कर रहे हैं। चीज सामने रखी होने पर भी उनका चिल्लाना - "अरे भई साबुन कहाँ है या फिर मेरा तौलिया कहाँ हैं?" - उनकी पुरानी आदत है।
राजू भइया के कमरे से सात बजे का अलार्म बजना और उनका उसे झुंझलाकर बंद करना तो लगभग प्रतिदिन सुनने को मिलता है। तब माँ का उनके कमरे में जाकर अपनी मधुर आवाज में 'राजू उठो' कहना बड़ा मनमोहक लगता है।
बच्चों को स्कूल जाने की जल्दी होती है तो माता-पिता को काम पर जाने की। इस दौरान बहुत सी ध्वनियाँ होती हैं क्योंकि कोई भी कार्य ध्वनि के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता। साढ़े सात बजते ही मुन्नी का माँ को नाश्ता परोसने के लिये कहना और फिर स्कूल बस का हार्न बजना और बच्चों का अपने-अपने बस्ते उठाकर बड़ों को प्रणाम करते हुए बस की ओर दौड़ना कुछ देर के लिये घर में बहुत शोर कर देता है।
इस प्रकार से ध्वनि का हमारे सम्पूर्ण जीवन में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि ध्वनि न हो तो जीवन अपूर्ण है, नीरस है । ध्वनि ही जीवन को गति प्रदान करती है।
प्रकृति की ध्वनियों से लेकर घर में सुनाई देने वाली अधिकतर प्रातःकालीन ध्वनियाँ मुझे मनमोहक लगती हैं क्योंकि हर सुबह मेरा दिन इन्हीं ध्वनियों से शुरू होता है और मुझे याद आ जाती हैं मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ-
किरण कण्टकों से श्यामाम्बर फटा, दिवा के दमके अंग ।।
कुछ-कुछ अरुण सुनहरी कुछ-कुछ प्राची की अब भूषा थी।
पंचवटी की कुटी खोलकर, खड़ी स्वयं अब ऊषा थी।।'
प्रात काल का दृश्य प्रकृति की सुंदरता और शांति का प्रतीक है।यह हमें जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है। हमें प्रातःकाल उठकर प्रकृति के सौंदर्य का आनंद लेना चाहिए और स्वस्थ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए । प्रातःकाल का दृश्य हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बनाता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में कितनी सुंदरता है, और हमें हर पल का आनंद लेना चाहिए।
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