प्रिय प्रवास महाकाव्य की समीक्षा अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण महाकाव्य है खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त
प्रिय प्रवास महाकाव्य की समीक्षा | अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध
अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध" द्वारा रचित "प्रिय प्रवास" हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है। इसे खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है।"प्रिय प्रवास" हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। यह रचना अपनी भाषा, शैली, भाव और कथानक के लिए सदैव स्मरणीय रहेगी।
हरिऔध जी द्विवेदी-युग की विभूति थे। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से साहित्य की विविध विधाओं को गौरवान्वित किया। उनकी लेखनी ने गद्य और पद्य दोनों को समृद्ध किया। ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली दोनों पर उनका समान अधिकार था। उन्होंने प्रबंध एवं मुक्तक- दोनों ही शैलियों में काव्यरचनाएँ कीं।
'हरिऔध' जी ने 'प्रियप्रवास' और 'वैदेहीवनवास' नामक दो महाकाव्यों की रचनाएँ कीं । 'प्रियप्रवास' की सर्जना हिन्दी में संस्कृत-वृत्तों के अन्तर्गत हुई है। सत्रह सर्गों में निबद्ध यह महाकाव्य अत्यन्त गरिमामण्डित है। श्री कृष्ण के मथुरा-गमन के अनन्तर विरहव्याकुल व्रज की करुण-दशा का चित्रण ही इस ग्रन्थ की कथा है। कवि हरिऔध ने इसमें राधा-कृष्ण के परम्परानुमोदित शृंगारी रूप का परित्याग कर उनके चरित्र में लोकोपकारी भावों का समावेश किया है। रूप-गुण-कला-सम्पन्न राधा और कृष्ण दीन-दुःखियों के प्रति यहाँ सदैव सहृदय हैं और दोनों के अन्तर्मन में दोनों के प्रति परस्पर प्रेम-भाव विद्यमान है।
प्रिय प्रवास की कथावस्तु
प्रियप्रवास की कथावस्तु का आयाम अत्यन्त लघु है। कथावस्तु का मूलाधार श्रीमद्भागवत् का दशम स्कन्ध है, जिसमें श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके यौवनागम तक की घटना वर्णित है। कवि ने इसी स्थल से प्रियप्रवास के कथासूत्र संकलित किये हैं, किन्तु यह रचना भागवत् के उक्त स्कन्ध का दुहराव मात्र नहीं है। यहाँ कवि की कल्पनाशील मौलिकता साफ-साफ दिखायी देती है। सम्पूर्ण कथा दो भागों में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की पूर्वार्द्ध कथा में कंस का निमन्त्रण लेकरं अक्रूर ब्रज में आते हैं तथा उनके साथ श्रीकृष्ण समस्त व्रजवासियों को शोक-सागर में डूबते छोड़कर मथुरा चले जाते हैं। नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की उत्तरार्द्ध कथा में ब्रजाधिप कृष्ण अपने प्रिय मित्र उद्धव को ब्रज-निवासियों को ढाढस बँधाने तथा सान्त्वना देने के लिए ब्रज भेजते हैं और उद्धव व्रज के लोगों को उनका सन्देश देकर लौट आते हैं। यही नहीं, श्रीकृष्ण जरासन्ध के बारम्बार आक्रमण से परेशान होकर मथुरा से द्वारका चले जाते हैं। और कृष्णप्रिया राधा अपने प्राणप्रिय कृष्ण के प्रेम को विश्वप्रेम में रूपान्तरित कर. लोकमंगल-मार्ग की अनुगामिनी बन जाती हैं।
इस मूल्यवान् कृति में कृष्ण एवं राधा का जो रूप है, वह परम्परागत स्वरूप से एकदम भिन्न है। कृष्ण का आदर्श चरित्र जन-साधारण के लिए एक प्रेरणा-स्रोत है। कथा में अनेकानेक मर्मस्पर्शी स्थलों का चयन कवि की मौलिक प्रतिभा का परिचायक है। कवि ने अपने युग की आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अनेक मौलिक कल्पनाओं की सृष्टि की है। आधुनिक युग में देश प्रेम-राष्ट्र प्रेम, स्वाधीनता, विश्वबन्धुत्व, मानवतावाद और नानाविध सुधारवाद की जो लहर चली, उसके स्वर प्रियप्रवास में जहाँ-तहाँ साफ-साफ सुनायी देते हैं। इतना ही नहीं, खड़ीबोली के महत्त्व स्थापन के लिए जो प्रबल आन्दोलन हो रहा था, उसकी झांकी भी प्रियप्रवास में साफ-साफ दिखायी देती है।
'प्रियप्रवास', 'साकेत' और 'कामायनी' तीनों बीसवीं शताब्दी के प्रमुख महाकाव्य हैं और तीनों अपने युग की भावनाओं से प्रभावित हैं। हरिऔध ने अपने समय के सभी प्रभावों को ग्रहण किया और अपने कृतित्व द्वारा अपने युग और समय को प्रभावित किया। हरिऔध जी ने 'प्रियप्रवास' द्वारा लोककल्याण, विश्वबन्धुत्व एवं परदुःखकातरता का जो सन्देश दिया, वह अपनी भावभावना में अद्वितीय है। मानवसेवा, मानव प्रेम, लोकोपकार एवं विश्व बन्धुत्व का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही उन्होंने प्रियप्रवास में राधाकृष्ण के लोकोपकारी चरित्र की कल्पना की।
कृष्ण का लोकोपकारक स्वरूप
प्रियप्रवास के कृष्ण का लोकोपकारी स्वरूप आधुनिक युग को लोकहितकारी भावनाओं का प्रतिबिम्ब है। प्रो0 धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी का अभिमत है कि - "प्रियप्रवास के कृष्ण का चित्रण हमें महात्मा गांधी की याद दिला देता है। ऐसा दीखता है मानो इस काव्य के लिखते समय कवि की मानसरंगभूमि के नेपथ्य में महात्मा गांधी की मूर्ति झिलमिल झिलमिल झाँकती रही हो और महात्मा श्रीकृष्ण के वाङ्मय चित्र के रूप में प्रतिमूर्त हो उठी हो।"
श्री शिवदान सिंह चौहान का अभिमत है कि “प्रियप्रवास में कृष्ण अपने शुद्ध मानव-रूप में विश्व कल्याण के काम में निरत एक जन-नेता के रूप में अंकित किये गये हैं।" श्रीमद्भागवत् तथा हिन्दीसाहित्य के भक्तिकालीन काव्य में श्रीकृष्ण के अलौकिक रूप की प्रतिष्ठा हुई है और उन्हें ब्रह्म-रूप माना गया है। रीतिकालीन कवियों ने उन्हें रसिक-शिरोमणि बनाकर काम-क्रीड़ा-निष्णात नायक के रूप में समुपस्थित किया है। किन्तु, प्रियप्रवास के कृष्ण न तो ब्रह्म के अवतार हैं और न ही विलासप्रिय सामान्य नायक, अपितु वे एक महापुरुष हैं। मानवता के आदर्शों की प्रतिमूर्ति हैं। यहाँ श्रीकृष्ण का चरित्र लोकसेवा और समाजसुधार की भावना से परिपूर्ण है। वे अनन्त शक्ति-शील-सौन्दर्य से युक्त अन्याय-विरोधी, प्रत्युत्पन्नमतिसम्पन्न, स्वजाति प्रेमी, कर्तव्य की प्रतिमूर्ति, कला-संगीत-निपुण, वाक्सिद्ध, निरभिमानी, महत् आदर्श से परिचालित ब्रज के प्राण हैं।
'प्रियप्रवास' की नायिका राधा को कवि ने यद्यपि प्रणयिनी वियोगिनी और लोकसेविका-इन तीनों रूपों में प्रस्तुत किया है, तथापि राधा यहाँ युगीन आदर्शों की प्रतिमूर्ति हैं। राधा प्रणय की संकुचित भावभूमि से ऊपर उठकर विश्वप्रेम के विस्तृत क्षेत्र में प्रविष्ट कर जाती हैं। उनके रोम-रोम में कर्त्तव्यपालन तथा लोकसेवा का भाव समाहित है। वे कर्त्तव्य की वेदी पर प्रेम को न्योछावर कर देती हैं : 'प्यारे जीवें जगहित करें, गेह चाहे न आवैं।' कुल मिलाकर नायिका राधा अनुपम सौन्दर्यसम्पन्ना हैं, प्रणयप्रतिमा हैं, विरहविदग्धा है, व्रज की आराध्या हैं, किन्तु इससे भी अधिक कर्त्तव्य की प्रतिमूर्ति एवं लोकसेविका हैं।
प्रिय प्रवास का प्रकाशन वर्ष
प्रियप्रवास की रचनावधि 15 अक्टूबर, 1908 से लेकर 24 फरवरी, 1912 तक का कालखण्ड है। कवि ने अपने इस महाकाव्य का नामकरण 'प्रियप्रवास' घटना के आधार पर किया है। कृति की भूमिका में हरिऔध जी का अभिकथन है कि "मैने पहले इस ग्रन्थ का नाम ‘ब्रजांगनाविलाप’ रखा था। किन्तु कई कारणों से यह नाम मुझको बदलना पड़ा, जो इस ग्रन्थ के समग्र पढ़े जाने पर आप लोग स्वयं अवगत होंगे।” व्रजभूमि के मनप्राण-प्रिय कृष्ण का प्रवास ही सम्पूर्ण व्रज को शोक सन्तप्त कर देता है। यदि श्रीकृष्ण का प्रवास न होता तो सम्भवतः राधा का लोकोपकारी (लोकानुरंजनकारी) स्वरूप भी पाठकों के सामने न आता। चूँकि 'प्रिय का प्रवास' ही सम्पूर्ण घटनाक्रम का मूलाधार है, अतः ग्रन्थ का नामकरण 'प्रियप्रवास' सर्वथा उपयुक्त एवं अर्थवान् हैं।
प्रियप्रवास के सृजन की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए स्वयं हरिऔध जी ने इस कृति की भूमिका में लिखा है कि "खड़ी बोली में मुझको एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता दीख पड़ी जो महाकाव्य हो, और ऐसी कविता में लिखा गया हो जिसे भिन्न तुकान्त कहते हैं।"
प्रिय प्रवास की भाषा शैली
प्रियप्रवास में कवि ने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को अपनाया है। उन्होंने संस्कृत के मन्दाकान्ता, शिखरिणी, भुजंगप्रपात, द्रुतविलम्बित एवं मालिनी आदि छन्दों में प्रियप्रवास की रचना की । उनका प्रियप्रवास हिन्दी-साहित्य की एक अमूल्य निधि है। खड़ीबोली के गौरवग्रन्थों में उसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। खड़ीबोली के प्रथम महाकाव्य के रूप उसका महत्त्व अपरिमित है।
डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना का अभिमत है कि 'प्रियप्रवास का सृजन हिन्दीसाहित्य के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।'डॉ० रामप्रसाद मिश्र का मानना है कि “बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के खड़ीबोली के महाकवियों में गुप्त, प्रसाद, निराला और पन्त के साथ-साथ 'हरिऔध' का नाम सदा आदरपूर्वक लिया जाता रहेगा। भविष्य यह सतत स्वीकृत करता रहेगा कि बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में गुप्त, रत्नाकर और प्रसाद के साथ-साथ हरिऔध हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि थे।”
हरिऔध जी की अन्य रचनाएँ
हरिऔध जी का दूसरा महाकाव्य 'वैदेही-वनवास' है। इसकी रचना सन् 1941 में हुई । 18 सर्गों में निबद्ध इस महाकाव्य में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम तथा सीता के लोककल्याणकारी स्वरूप की झाँकी अंकित है। इस ग्रन्थ की रचना सरल-सहज खड़ीबोली में हुई है और प्रकृति के नानाविध रूपों की मनोरम उपस्थिति जहाँ-तहाँ परिलक्षित होती है।
हरिऔध जी ने चोखे चौपदे, चुभते चौपदे तथा बोलचाल नामक रचनाएँ खड़ीबोली में लिखी हैं। 'चोखे चौपदे' को 'हरिऔध हजारा' नाम भी दिया गया है। 'चोखे चौपदे' में सामाजिक जीवन के दोषपूर्ण पहलुओं पर मीठी चुटकियाँ हैं तो 'चुभते चौपदे' भी सामाजिक दुर्बलताओं का व्यंग्यपूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है। 'रसकलश' कृति ब्रजभाषा में रचित है। इसमें कवि ने शृंगार में अश्लीलता का सर्वथा परित्याग कर उसे रसराज-पद पर प्रतिष्ठित किया है। 15 सर्गों में निबद्ध 'पारिजात' कवि हरिऔध का महत्त्वपूर्ण काव्यग्रन्थ है, जिसे उन्होंने 'महाकाव्य' माना है' इसमें कवि ने अपने दार्शनिक विचारों को वाणी प्रदान की है। हरिऔध जी का 'ऋतुमुकुर' व्रजभाषा में रचित उनकी ऋतु-सम्बन्धी कविताओं का संकलन है। हरिऔध जी के समस्त दोहों का संकलन 'हरिऔध सतसई' के नाम से प्रकाशित हुआ है। 'प्रेमाम्ब-वारिधि' 'प्रेमाम्बु- प्रवाह,' 'प्रेमाम्बु प्रस्त्रवण' और 'प्रेम-प्रपंच' इन चारों कृतियों में श्रीकृष्ण को ब्रह्म का अवतार माना गया है और उनके ब्रह्मत्व का निरूपण है।
'आलोचना' एवं 'अनुवाद' के क्षेत्र में भी हरिऔध जी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास' उनके हिन्दी-साहित्य के ज्ञान का प्रमाण है। इसमें उनके वे व्याख्यान संगृहीत हैं, जिन्हें उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के लिए लिखे थे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि 'हरिऔध' जी सरस्वती के सफल आराधक हैं। यद्यपि के कविरूप में ही अधिक ख्यात हैं, किन्तु उनकी साधना के अन्याय रूप भी कम भास्वर नहीं हैं। अतः हिन्दी साहित्य उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए सदैव उनका ऋणी रहेगा।
COMMENTS