रैदास की काव्यगत विशेषताएँ रैदास जी की रचनाएँ हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनकी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, दर्शन, नीति, सामाजिक सुधार आदि विषयों
रैदास की काव्यगत विशेषताएँ
रैदास जी की रचनाएँ हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनकी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, दर्शन, नीति, सामाजिक सुधार आदि विषयों का चित्रण मिलता है। उनकी भाषा सरल, सहज और आम लोगों की भाषा है। रैदास जी हिंदी भक्ति साहित्य के एक प्रमुख संत कवि हैं और उनकी रचनाओं का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
भक्त कवि रैदास रामानन्द के शिष्य और कबीर परम्परा के कवि हैं, कबीर की भाँति ये भी लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर थे ।किन्तु साधु-संतों की संगति में रहने के कारण अनुभव जन्य व्यावहारिक ज्ञान से सम्पन्न थे। क्या भाव, क्या भाषा, सभी दृष्टियों से इनका लोक जीवन और साहित्य में स्थान अक्षुण्य है । पठित पदों के भाव और भाषा पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनकी विशेषता जन सामान्य को एक धरातल पर लाकर समन्वय स्थापित करना है । इनकी रचना में शांत रस का पूर्ण परिपाक हुआ है जो साहित्य के लिए एक अनुपम देन है । मानव समाज के मन की चंचलता को समाप्त कर उनमें जन जन के प्रति आस्था और विश्वास पैदा करना तथा जीवन को शांत-भाव से व्यतीत करने की प्रेरणा देना ही रैदास जी का काम्य है । वे कहते हैं कि -
नरहरि चंचल मति मोरी
मैं तैं तोरि मोरि असमझ सों, कैसे करि निसतारा ।
समानता का भाव
संसार के सभी कष्ट मानव मात्र में पैदा हुए भेद-भाव के कारण हैं ऐसी स्थिति में उन्हें एक ही धरातल पर लाकर एक दूसरे के प्रति प्रेम-भाव दर्शाने की प्रेरणा कवि रैदास जी ने दिया है । उनका मानना है कि जब सभी जीवों में एक ही ईश्वर का निवास है तो फिर एक-दूसरे से भिन्नता किस बात में हैं -
'सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत हूँ नहीं जाना ।'
सांसारिक माया-मोह और पंचमकारों के कारण लोग अपने ही वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी शाखा के बीच की कड़ी के रूप में प्रसिद्ध रैदास जी जीवन में ज्ञान और प्रेम दोनों को महत्वपूर्ण बताते हुए कहते हैं कि -
रे चित चेति कहिं अचेत काहे, बालमीकहिं देख रे ।
जाति थैं कोई पदि न पहुच्या, राम भगति बिसेषरे ||
लोकमत की स्थापना
कवि रैदास जी की साहित्य सम्बन्धी दूसरी सबसे बड़ी विशेषता भाषा प्रयोग की है । इनकी भाषा सहज, साधारण और ग्रामीण है जिसमें तद्भव शब्दों की बहुलता है। भाषा को इतना तोड़- मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है कि जन सामान्य को समझने में सहज हो गयी है। इनके पद गेय होने के कारण इसमें स्वर-ताल की लयात्मकता है। न तो इनके भाव में कोई बनावट है न भाषा में। ये कहीं भी काव्य रचना करने की प्रतिज्ञा नहीं करते हैं। इनकी कविता स्वान्तः सुखाय होते हुए भी लोकमत की स्थापना में सक्षम हैं। ये सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ रहस्य को भी सहजता से स्पष्ट करने में सफल हैं -
पढें गुनें कछु समझि न परई, जौ लौ अनमै भाव न दरसै ।
इतना ही नहीं सहज गेय शैली में पदों की रचना करके वे स्वयं शांति पाते थे तथा आज भी उनके भजनों का गायन इसी उद्देश्य से हो रहा है जो लोक मानस पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ रहा है। इनकी भाषा को अलंकारिक और साहित्यिक तो नहीं कहा जा सकता किन्तु अर्थ गम्भीरता की विशेषता जहाँ दिखाई पड़ती है वहाँ उपमा, रूपक जैसे बहु प्रचलित अलंकारों का प्रयोग अपने- आप हो गया है। 'प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग वास समानी' ऐसे स्थानों पर चंदन और पानी का रूपक व्यक्त करने में रैदास जी का कोई सानी नहीं है। बड़े से बड़े भाव को इतने छोटे-छोटे और कम शब्दों में पिरो देना यह तो रैदास जी की सादगी की सबसे बड़ी विशेषता है। जो अन्यत्र दुर्लभ है। कबीर परम्परा के कवि होते हुए भी रैदास जी का महत्व साहित्य में कबीर से भी कहीं अधिक है ।
सामान्यतः आलोचकों ने काव्य के दो प्रमुख विभाग किए हैं -
1. भाव पक्ष
2. कला पक्ष ।
भाव पक्ष
भाव पक्ष की समीक्षा, काव्य में वर्णित रस के आधार पर किया जाता है। इसको ही काव्य की आत्मा मानते हुए आचार्यों ने कहा है कि 'रस्यते ज्ञते रतः' अर्थात् काव्य वह है जो पाठक को अपने प्रभाव से सरस बनाये । अर्थात् काव्य में जिस रस की स्थापना की जाती है पाठक काव्य पढ़ते समय उसी प्रकार की सरसता से प्रभावित होता है। रैदास जी के पदों में ज्ञान और प्रेम का पूर्ण परिपाक हुआ है इसलिए इसमें शांत रस की ही प्रधानता है । वे पंचमकारों का त्याग, इन्द्रिय निग्रह, जातिगत, भेद-भाव को भुलाकर, सबको समान बनाने तथा शांत-भाव से जीवन यापन करते हुए भगवत् चिन्तन के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने के लिए जनसामान्य को प्रेरित किये हैं ।
मैं तैं तोरि मोरि असमझ सों, कैसे करि निसतारा ।
कहै रैदास कृस्न करुणां मैं, जै जै जगत अधारा ॥
रविदास की काव्य भाषा और शिल्प
काव्य के बाहरी गठन अर्थात् शरीर पक्ष को कला पक्ष कहा गया है - अर्थात् काव्य की रचना किस प्रकार की गई। इसका निर्धारण काव्य की भाषा, छन्द, अलंकार, शैली आदि को देखते हुए किया जाता है। रैदास के पद नामक' पाठ की समीक्षा इस प्रकार से की जा सकती है -
- भाषा : रैदास के पदों की भाषा सहज, सरल, गँवई है जिसमें देशज शब्दों की प्रधानता है। शब्द सहज होते हुए भी अर्थ गाम्भीर्य से पूर्ण हैं । 'प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहीं मिलत सुहागा,' पंक्ति में आए शब्दों पर ध्यान देने से भाषागत विशेषता का ज्ञान स्पष्टत: हो जाता है किन्तु इसमें छिपे प्रतीकात्मक अर्थ इतने गम्भीर हैं कि इसकी व्याख्या तो कोई समझदार ही कर सकता है ।
- छंद : जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना को गेय छन्दों में रचा गया है जिसका गायन भजन के रूप में किया जा सकता है। स्वर-ताल और लयबद्धता को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि रैदास जी स्वयं एक उच्चकोटि के गायक थे । प्रभु जी तुम स्वामी मैं दासा, ऐसी भगति करै रैदासा।
- अलंकार : रैदास जा के पदों में भाषा के सहज प्रयोग के कारण अलंकारों का यत्र यत्र अनायास ही प्रयोग हो गया है - कहीं-कहीं उपमा, रूपक जैसे सामान्य और कुछ शब्दों में भी प्रदीप और ज्योतिरेक अलंकारों को देखा जा सकता है जैसे - नख प्रसेद जाकी सुरसुरी धारा, रोमावली अठारह भारा ।
- शैली : रैदास जी की शैली पद होते हुए भी गेय हैं, जिसे भजन के रूप में गाया जा सकता है - 'स्वान्तः सुखायः' स्वयं इसे रैदास जी गाया करते थे । दिन-भर अपने काम से जब शाम को मौका पाते थे तो इसे गाकर मन को शांत और सुखी बनाते थे ।
रैदास का साहित्यिक महत्व
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि रैदास जी अपने कुछ ही पदों के कारण साहित्य में अमर हैं । भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से इनका महत्व है।सहज शब्दों के प्रयोग से असाधारण और गम्भीर कार्य की सर्जना इनकी मुख्य विशेषता है । अर्थ सौन्दर्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि इनके एक-एक शब्द सोने में हीरे और मणियों की तरह क्रांति पैदा करते हैं।
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