राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव पर निबंध भारत, विभिन्नताओं से भरा एक विशाल देश, सदैव से ही राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के आदर्शों को सं
राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव पर निबंध
भारत, विभिन्नताओं से भरा एक विशाल देश, सदैव से ही राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के आदर्शों को संजोता रहा है।विविध धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं और रीति-रिवाजों का समावेश करते हुए, यह देश एकता में विविधता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
राष्ट्रीय एकता का अर्थ है, एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहना, सांझा लक्ष्यों के लिए मिलकर काम करना और देश की अखंडता को बनाए रखना।यह एक ऐसी भावना है जो हमें एक सूत्र में बांधती है और आंतरिक कलहों से ऊपर उठकर सामूहिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है।
सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीय एकता का ही एक महत्वपूर्ण आधार है।सका अर्थ है विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों के बीच प्रेम, समानता और सौहार्द का वातावरण स्थापित करना।जब हम एक दूसरे का सम्मान करते हैं, विभिन्नताओं को स्वीकार करते हैं और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखते हैं, तभी राष्ट्रीय एकता मजबूत होती है।
देश की उन्नति का आधार
हमारा भारत देश स्वयं एक संसार है। इसमें अनेक भाषाओं, अनेक जातियों और अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। उनके खान-पान, वेशभूषा और रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हैं। यह एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ सबसे अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ हिन्दू बहुसंख्या में हैं, तथापि मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि सभी यहाँ के नागरिक हैं और उन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। सभी धर्मावलम्बी यहाँ अपने तौर-तरीके,रीति-रिवाज और परम्पराओं का पालन करते हुए पाये जाते हैं। इस प्रकार इसमें सर्वत्र विभिन्नता के दर्शन होते हैं, लेकिन इतनी सब भिन्नता होने पर भी उनमें एक मूलभूत एकता है और वह यह कि वे हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई बाद में हैं पहले भारतीय हैं। नेहरूजी के शब्दों में यह द्रष्टव्य है कि कुछ धर्म, जो भारतीय मूल के भी नहीं थे, फिर भी उस धर्म के लोगों के भारत में आकर बसने पर कुछ पीढ़ियों के बाद वे निश्चित रूप से इसकी मूलधारा में जुड़कर एकाकार हो गये। इसका कारण उनमें परस्पर प्रेम और भाईचारा था। उनको ऐसे देश में जाने पर भी जहाँ उन्हीं का धर्म माना जाता हो, भारतीय ही समझा जाता है। यही तत्त्व हमारे देश की उन्नति का आधार रहा है, लेकिन आज स्वार्थ में लिप्त अनेक विघटनकारी शक्तियाँ एक-दूसरे के प्रति कटुता और विद्वेष उत्पन्न करती हैं, जिससे उनमें तनाव और अलगाव की भावना विकराल रूप ले लेती है। ऐसी विकट स्थिति में साम्प्रदायिक सद्भाव की नितान्त आवश्यकता है ।
साम्प्रदायिकता का अर्थ
एक सम्प्रदाय का अपने को उच्च और श्रेष्ठ समझना तथा दूसरे सम्प्रदाय के प्रति घृणा, विद्वेष और हिंसा का भाव रखना ही साम्प्रदायिकता है। यह एक ऐसी बुराई है, जो मानव-मानव के बीच में अलगाव पैदा कर देती है और समाज के टुकड़े-टुकड़े कर देती है। यह राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इससे सारे देश का वातावरण विषाक्त हो जाता है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने साम्प्रदायिकता को ऐसा पागलपन बताया है, जो लोगों को मानसिक और आध्यात्मिक रूप से अंधा बना देता है। भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष प्रमुखतया हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदाय के बीच रहा है। यहाँ इसी परिप्रेक्ष्य में चर्चा करेंगे।
साम्प्रदायिक संघर्ष के कारण
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या प्रारम्भ से ही मुख्यतः धार्मिक की अपेक्षा राजनीतिक अधिक रही है। सांस्कृतिक स्वरूपों की विविधता कभी भी साम्प्रदायिक संघर्ष का कारण नहीं रही। यह संघर्ष केवल सत्ता, सम्पत्ति और समाज के ठेकेदारों की दिमागी दुरभिसन्धिमात्र है। इसमें एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय से अपने को उच्च, शक्तिशाली और श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश में वोट की राजनीति ने इस बुराई को बढ़ाया। इसने अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के प्रति तुष्टिकरण की राजनीति अपनायी। दूसरी ओर स्वार्थ में लिप्त अनेक धर्माचार्य अपने सम्प्रदाय के रक्षक होने का ढोंग भरते हैं और संकुचित हितों के नाम पर भोले-भाले लोगों को आपस में लड़ाते हैं और अपना हित-साधन करते हैं। अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए वे इन मतभेदों का लाभ उठाते हैं और उनके बीच की दरार को बढ़ा देते हैं। पूजास्थल के स्वामित्व के प्रश्न पर भी साम्प्रदायिक संघर्ष विकराल रूप ले लेते हैं। बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि विवाद ने ऐसे ही संघर्ष को जन्म दिया है और सारे देश को दंगों की आग में झुलसा दिया। कभी-कभी तो ये साम्प्रदायिक संघर्ष किसी पूजास्थल के सामने मात्र सुअर या गाय का मांस डाल देने से भड़क जाते हैं। जैसा कि लगभग २० साल पहले मुरादाबाद में हुआ था।
साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम
साम्प्रदायिकता का उन्माद देश के कभी इस कोने में तो कभी उस कोने में ऐसी कटुता उत्पन्न कर देता है कि आये दिन हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते रहते हैं। इसके द्वारा तोड़-फोड़, आगजनी और नर-संहार का ऐसा ताण्डव होता है कि मानवता शर्म से गर्दन झुका लेती है। मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ़ और अन्य स्थानों पर हुए दंगे इसके गवाह हैं। लोग एक-दूसरे सम्प्रदाय को शत्रु समझने लगते हैं। धार्मिक उन्माद में वे इन्सान से जानवर बन जाते हैं और देखते ही देखते भेड़िये की तरह भोले-भाले बच्चों को अनाथ कर देते हैं । सुहागिनों की माँग का सिंदूर पोंछ देते हैं और उन्हें सारी जिन्दगी बेबसी और लाचारी से गुजारने पर विवश कर देते हैं। कभी सोचा है—इन बच्चों और अबलाओं का क्या दोष है ? दूसरी ओर आर्थिक व्यवस्था डगमगा जाती है। स्थिति के सामान्य होने में बहुत समय लग जाता है और इस वैमनस्य के शिकार हुए परिवार इसे जीवन-पर्यन्त भुला नहीं पाते, फिर वह प्रेम और स्नेह कैसे आ सकता है ? सीधे-सादे लोग हमेशा इसी से भयभीत रहते हैं कि कहीं इसकी पुनरावृत्ति न हो जाये। कर्फ्यू लगने पर सर्वाधिक दुर्दशा होती है उन लोगों की, जो मजदूर होते हैं। रोज ही कमाकर खाने वालों के काम ठप्प हो जाते हैं और बेचारे घरों में बन्द रहकर भूखे मरते हैं।
साम्प्रदायिक सद्भाव से तात्पर्य
सभी धर्मावलम्बियों के बीच परस्पर स्नेह और भाईचारा ही साम्प्रदायिक सद्भाव है। इसके लिए आवश्यक है कि सब लोग आपसी मतभेदों को भुलाकर एक-दूसरे के सुख-दुःख में काम आयें। वे जिस धरती का अन्न खायें, जल पियें और जिसकी हवा में साँस लें, उसी के लिए जियें और उसी की आन-बान-शान के लिए मर मिटें। इस देश को अपना समझें और इसमें आस्था रखें । वे यहाँ की पवित्र वसुन्धरा पर रहकर विदेशों के अपवित्र सपने न देखें। साम्प्रदायिक सद्भाव हमें यह सिखाता है कि हमें हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई होने के साथ-साथ एक अच्छा इन्सान बनना चाहिये।
साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रयास
हमारे देश के अनेक समाज-सुधारकों, साहित्यकारों और दार्शनिकों ने साम्प्रदायिक समस्या पर गहरी चिन्ता व्यक्त की और इसका निवारण करने तथा लोगों में सद्भाव पैदा करने का प्रयास किया। उन्होंने हमें समय और आवश्यकता के अनुसार धारणाओं में परिवर्तन करने का वह सन्देश दिया, जिससे हम अपने समस्त विवाद और आपसी कलह को त्यागकर स्नेह और प्रेम की धारा प्रवाहित करने में जुट जायें; क्योंकि प्रेम से प्रेम, विश्वास से विश्वास, घृणा से घृणा उत्पन्न होती है। फिर भारतभूमि तो हम सबकी मातृभूमि है। हमें यह याद रखना होगा कि सभी धर्म आत्मा की शान्ति के लिए उस परमपिता परमेश्वर की आराधना पर बल देते हैं। वह तो एक है। कोई उसे भगवान् कहता है, कोई खुदा या गॉड। उस तक पहुँचने के साधन चाहे भिन्न हों, लेकिन लक्ष्य तो एक ही है। फिर सभी ने सत्य, अहिंसा, प्रेम, सदाचार, समानता और नैतिकता पर बल दिया है। हमें सभी पूजास्थलों को पूज्यभाव से देखना चाहिये और उनकी पवित्रता को बनाये रखने में सहयोग देना चाहिये।
साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने धर्मग्रन्थों में निहित आदर्शों को संगृहीत करें और उनके वास्तविक सन्देश को समझें और उन्हें अपने आचरण में उतारें। उनके स्वार्थपूर्ण अर्थ न निकालें, क्योंकि कोई भी धर्म घृणा या नफरत करने की शिक्षा नहीं देता ।
साम्प्रदायिक सद्भाव का महत्व
उपर्युक्त विवरण से साम्प्रदायिक सद्भाव का महत्व स्वतः स्पष्ट हो गया है और फिर आज समय बहुत तेजी से बदल रहा है। हमें अपने संकीर्ण विचारों को त्याग देना है और कंधे से कंधा मिलाकर अपने देश के लिए कुछ करना है और इसे प्रगति पथ पर आगे ले जाना है। मनों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास बनाये रखना है और उन ताकतों को जड़ से मिटा देना है, जो साम्प्रदायिकता के जहर को उगल रही हैं। हमें अपना प्राचीन आदर्श नहीं भूलना है, जिसका सन्देश है -
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
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