तुलसीदास भक्तिकालीन रामभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं तुलसीदास हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कवियों में से एक हैं। उनकी रचनाओं, व
तुलसीदास भक्तिकालीन रामभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं
तुलसीदास हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली कवियों में से एक हैं।उनकी रचनाओं, विशेष रूप से रामचरितमानस, का हिंदी भाषा और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा है।रामचरितमानस को भारत में सबसे लोकप्रिय ग्रंथों में से एक माना जाता है, और इसका पाठ और अध्ययन पूरे देश में किया जाता है।
तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं में रामभक्ति को एक नया आयाम दिया। उन्होंने राम को केवल एक भगवान के रूप में नहीं, बल्कि एक आदर्श मनुष्य और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया।तुलसीदास मध्यकालीन रामभक्ति शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं । इनका जीवनकाल अनुमानत: सन् १५३२ ई० से १६३२ ई० के बीच माना गया है। आरंभिक जीवन बहुत दारिद्रमय था । भूख की व्याकुलता में द्वार-द्वार बिलखते हुए तुलसी को कोई चार चना भी दे देता तो उन्हें ऐसा लगता जैसे चार फल मिल गए । तुलसी ने लिखा है-
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हो चारि फल चारि ही चनक को ।
कहना न होगा कि इस संदर्भ में तुलसी का यह कथन कि 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की' उनका भोगा हुआ यथार्थ है । कदाचित् यही वजह है कि एक जगह तुलसी ने हमारा ध्यान ऐसे दीन-दलितों के प्रति खींचा है जो पेट की आग बुझाने के लिए श्राद्ध, विवाह या किसी उत्सव समारोह की बाट जोहते रहते हैं, उनके कान ढोल या तुरही की आवाज की टोह में लगे होते हैं, जिन्हें प्यास लगने पर पानी नहीं मिलता, भूख लगने पर चार चने भी नहीं मिलते, भूख की तड़प में वे पहाड़ भी खा जाना चाहते हैं, पर घूरे पर पड़ी हुई दाल भी नसीब नहीं होती -
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल - तूरना ।
प्यासे हूँ न पावै वारि, भूखे न चनक चारि,
चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना ।।
तुलसी की इस यथार्थवादी दृष्टि के संबंध में डॉ० रमेश कुंतल मेघ का कहना है, "उन्होंने अंतत: घोषित ही किया कि सारे समाज तंत्र का आधार 'पेट' अर्थात् आर्थिक शक्ति है (कवितावली) । यह उनके समाज दर्शन की महत्तम सिद्धि है जो उन्हें कबीर तक से बहुत आगे ले जा सकती है। आर्थिक दरिद्रता को इतना भोगने-समझने वाला मनुष्य, दरिद्रता के सामाजिक परिणामों को इतना सटीक विश्लेषित करनेवाला समाज-पुरुष और दरिद्रता से इतनी प्रगाढ़ नफरत करनेवाला लोककवि तुलसी के अलावा सारे मुस्लिम मध्यकाल में दूजा नहीं है ।"
तुलसी की प्रमुख कृतियाँ हैं - 'रामचरित मानस', 'विनय पत्रिका', 'कवितावली', 'दोहावली', 'गीतावली', 'जानकी मंगल', 'पार्वती मंगल', 'रामलला नहछू' इत्यादि । अपने जिस ग्रंथ के बल पर तुलसी विश्वविख्यात हुए, वह 'रामचरित मानस' है । इस ग्रंथ की रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है - 'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबन्ध मतिमञ्जुल मातनेति ।' अर्थात् तुलसी राम की इस कथा को अपने अंत:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहारी भाषा में प्रस्तुत करते हैं । तुलसी का यह 'स्वांतः सुखाय' इस काव्य ग्रंथ में 'सर्वान्तः सुखाय' और 'बहुजन हिताय' बन गया है । तुलसी की मान्यता है कि वही रचना श्रेष्ठ होती है जो गंगा के समान सबका कल्याण करनेवाली हो -
कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई ।।
'रामचरित मानस' एक ऐसा ही महाकाव्य है । इस ग्रंथ के केन्द्र में राम हैं, जो तुलसी के आदर्श हैं। उनके राम धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतार लेते हैं -
जब जब होई धरम की हानी ।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।
तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा ।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।
यहाँ तुलसी ने जिस धर्म की ओर संकेत किया है, उसका अभिप्राय है स्वार्थपूर्ति, दिखावा, हिंसा आदि का प्रबल विरोध । उनके अनुसार सबसे बड़ा धर्म है परहित और सबसे बड़ा पाप है दूसरों को कष्ट देना -
परहित सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।।
'रामचरित मानस' के उत्तर कांड में 'कलि महिमा' का चित्र खींचते हुए तुलसीदास ने अपने समय की सामाजिक कुरीतियों एवं धार्मिक पाखंडों का वास्तविक चित्रण किया है। उन्होंने दिखाया है कि किस प्रकार लोग धर्म के नाम पर स्वच्छंद आचरण करते हैं, गाल बजानेवाला ही पंडित माना जाता है, जो मिथ्यादंभ में लीन है वही संत कहलाता है, वही चतुर है जो दूसरे के धन का हरण कर ले, झूठ बोलने वाला और मसखरी करने वाला ही गुणी समझा जाता है, वेदमार्ग से दूर आचरणहीन ही ज्ञानी और विरागी कहलाते हैं, जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी जटाएँ हैं वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है -
मारग सोइ जो कहुँ जोइ भावा । पंडित सोइ जो गाल बजावा ।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई । ता कहुँ संत कहइ सब कोई ।।
सोइ सयान जो पर धन हारी। जो कर दंभ सो बड़ा अचारी ।।
जो कह झूठ मसख़री जाना । कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ।।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी । कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला । सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ।।
तुलसी अपने समय के यथार्थ वर्णन के पहले एक ऐसे रामराज्य का यूटोपिया या आदर्शलोक उपस्थित करते हैं, जहाँ सभी सुखी हों, 'निरोग हों एवं प्रेमपूर्वक जीवन व्यतीत करें। वे कहते हैं-
दैहिक दैविक भौतिक तापा । रामराज नहिं काहुहि ब्यापा ।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ।।
अल्पमृत्यु नहीं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ।।
कलियुग के पतनशील समाज के समानान्तर ऐसे रामराज्य की कल्पना तुलसी की वैकल्पिक प्रस्तावना है । वे एक तरह से आध्यात्मिक स्तर पर समाजवाद की पृष्ठभूमि तैयार करते से दिखते हैं, 'तुलसी ममता राम सो समता सब संसार ।' तुलसी का राम से गहरा प्रेम रखना एवं कल्याणकारी राज्य का आदर्श उपस्थित करना किसी न किसी मात्रा में उनकी जनतांत्रिक भावना का द्योतक है । 'दोहावली' में आदर्श राजा के संबंध में तुलसी ने लिखा है-
बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ ।
तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ ।।
अर्थात् वही प्रजा सौभाग्यशाली है, जिसका राजा सूर्य की तरह आचरण करनेवाला हो । सूर्य जब जल को खींचता है तब किसी को भी पता नहीं चलता, परंतु जब बरसता है तब सभी प्रसन्न हो जाते हैं । कहना न होगा कि राजघराने की कथा कहते हुए भी तुलसी का ध्यान हमेशा सामान्य जन की पीड़ा से जुड़ा रहता है। तुलसी के राम जनता के शासक हैं, पर उनका यह भी स्पष्ट कहना है कि यदि मैं कोई अनुचित करूँ तो निर्भय होकर हमें रोक दें -
जौ अनीति कछु भाषौं भाई ।
तौ मोहि बरजहूँ भय बिसराई ।।
तुलसी जनप्रेमी राम के राज्य का सपना देखते हैं। यह सपना तुलसी के लोकवादी होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है । डॉ० रामविलास शर्मा के शब्दों में, "तुलसी से बार-बार सीखना चाहिए, कैसे उनकी वाणी जनता को इतनी गहराई से आंदोलित कर सकी । उनसे हमें गंभीर मानव सहानुभूति और उच्च विस्तारों की शिक्षा लेनी चाहिए जिनसे साहित्य महान होता है । .... जनता की एकता हमारा अस्त्र हो, संघर्ष हमारा मार्ग और ऐसा समाज हमारा लक्ष्य हो जिसमें पीड़ित और अपमानित मनुष्य को हताश होकर रहस्यमय देव के प्रति फिर हाथ न उठाना पड़े । इस कार्य में एक चिन्तन प्रेरणा की तरह तुलसीदास हमेशा हमारे साथ रहेंगे ।" बेशक तुलसी एक कालजयी रचनाकार हैं । उनका लेखन समय की प्राचीर को चीरकर आज भी हमारी दसा-दिशा का द्योतन करता हुआ प्रतीत होता है । 'कवितावली' में तुलसी कहते हैं -
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी ।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोचबस, कहैं एक एकन सों 'कहाँ जांई, का करीं ?
इन पंक्तियों से ऐसा लगता है कि आज का ही किसान, आज का ही व्यापारी और आज का ही बेरोजगार व्यक्ति अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ता का इजहार कर रहा है । लगता है चार सौ वर्षों बाद भी हमारा समाज आज वहीं का वहीं खड़ा है, जहाँ राजा ही चोर हो (भूमि चोर भूप भए), समाज के पथ-प्रदर्शक पंडित ही गाल बजाने वाले हों (पंडित सोइ जो गाल बजावा) गुरु और शिष्य में अंधे-बहरे का मेल हो (गुरु सिष बधिर अंध का लेखा), सभी आदमी काम, क्रोध और लोभ के अधीन हों (सब नर काम लोभ रत क्रोधी) तथा धर्म, व्यभिचार और अपना उल्लू सीधा करने का जरिया बन गया हो तो ऐसे में कौन होगा जिससे सुधार की अपेक्षा की जाय ? कहना न होगा कि तत्युगीन समाज का यह संकट ही तुलसी के काव्य में कलिकाल का अत्याचार है, जिससे नजात पाने के लिए वे अपने आराध्य को पुकारते हुए कहते हैं - 'जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ?' अथवा 'तुम तजि हौं कासौं कहौं, और को हितु मेरे ?' इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है, “भक्ति को कई लोग अंधविश्वास या पूर्ण समर्पण मात्र समझते हैं । यह नहीं समझते कि भक्ति के पेट में कितना तर्क और कितनी जटिलता हजम हो चुकी है । सारे तर्क-वितर्क करने के बाद जब आप किसी निष्कर्ष पर पहुँच गए तब उसके प्रति समर्पित होना दूसरी बात है ।" जीवन के अंत काल में रची गयी 'विनय पत्रिका' के पदों में तुलसी की यही समर्पण भावना है ।
तुलसी की 'विनय पत्रिका' राजा राम के दरबार में दी जाने वाली अर्जी है । इस अर्जी में तुलसीयुगीन राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक परिस्थितियों का ही चित्रण है। तुलसी जब कहते हैं कि समाज में सज्जन दुखी हैं, सज्जनता चिंताग्रस्त है और इसके समानान्तर दुर्जनों का उत्साह बेहिसाब बढ़ गया है, तो उनकी वेदना में लोक-वेदना का ही स्वर सुनाई देता है -
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल विलसत, हुलसति खलई है।
तुलसीदास का इन विषम परिस्थितियों में अपने आराध्य से कृपा का आग्रह करना मानव मूल्यों में आस्था प्रकट करना है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “तुलसीदास ने महान् जीवन मूल्यों में आस्था नहीं छोड़ी थी । लगता है, उनके समकालीन अधिकांश लोगों ने भी नहीं छोड़ी थी, पर आज ? आज भी छोड़ने की जरूरत नहीं है ।" इस प्रकार वर्तमान युग में भी तुलसी साहित्य का अध्ययन प्रासंगिक है ।
भक्त कवियों की साधना वैयक्तिक होकर भी सामाजिक थी । भगवद्भक्ति का रास्ता अख्तियार करते हुए भी उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों का तिरस्कार किया सामयिक परिस्थितियों के दबाव में उनके भीतर अंतर्विरोधों का होना भी एक सच्चाई है, किंतु उनका उद्देश्य समाज के हक में विकासकामी था, इसमें कोई संदेह नहीं । दलित वर्ग में जन्मे निर्गुणवादी कबीर, दादू, रैदास सरीखे संत हों या जायसी, कुतुबन, मंझन जैसे सूफी अथवा उच्चकुलीन सगुणवादी सूर, तुलसी, कुंभन या राजकुल में उत्पन्न मीराबाई; सभी के स्वर में सामंतवादी सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की भावना ही जाग्रत हुई है । भक्तिकाव्य 'संतन को कहाँ सिकरी सो काम' की भावना से प्रेरित है । यह राजदरबार से दूर रहते हुए ऐसा ही आचरण अपनाने का संदेश है । आज भूमंडलीकरण के युग में जब हमारे सारे सांस्कृतिक मूल्य नष्ट-भ्रष्ट होते जा रहे हैं, बाजारवाद के दबाव में सौन्दर्य की सादगी को भी संस्कृति से अलग करने की साजिश सी चल पड़ी है; भक्तिकाव्य की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है, क्योंकि यह हमारे मानवीय एवं सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षक है ।
ऐतिहासिक परिवर्तन काव्य अभिव्यक्ति के स्वरूप में भी बदलाव ला देता है । इस मत का उदाहरण है, भक्तिकालीन प्रेमानुभूति का रीतिकालीन भावनाओं में बदलाव । आचार्य शुक्ल के अनुसार "इसका कारण जनता की रुचि नहीं, आश्रयदाता राजा महराजाओं की रुचि थी।" यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि शास्त्र और सत्ता के अधीन श्रेष्ठ साहित्य की सृष्टि नहीं हो पाती । क्योंकि काव्यगत श्रेष्ठता का मुख्य आधार लोक चेतना से जुड़ना है ।
तुलसीदास जी का प्रभाव केवल रामभक्ति तक ही सीमित नहीं था।उनकी रचनाओं ने हिंदी भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज को गहराई से प्रभावित किया है।तुलसीदास जी केवल एक महान कवि ही नहीं थे, बल्कि वे एक सामाजिक सुधारक और धार्मिक गुरु भी थे। उनकी रचनाओं ने भारत को गहराई से प्रभावित किया है और आज भी प्रासंगिक हैं।
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