अभिव्यंजनावाद का अर्थ स्वरूप तत्व एवं विशेषताएं अभिव्यंजनावाद साहित्यिक आलोचना का एक प्रमुख सिद्धांत है जो बेनेदितो क्रोचे, इतालवी दार्शनिक, द्वारा
अभिव्यंजनावाद का अर्थ स्वरूप तत्व एवं विशेषताएं
अभिव्यंजनावाद साहित्यिक आलोचना का एक प्रमुख सिद्धांत है जो बेनेदितो क्रोचे, इतालवी दार्शनिक, द्वारा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रतिपादित किया गया था। यह सिद्धांत कला को भावनाओं की अभिव्यक्ति मानता है, न कि तथ्यों का चित्रण या विचारों का प्रचार।
अभिव्यंजनावाद का अर्थ है "भावों की अभिव्यक्ति"। यह सिद्धांत मानता है कि कलाकार अपनी भावनाओं, विचारों और अनुभवों को कलाकृति में व्यक्त करता है, और दर्शक या पाठक इन भावनाओं को समझने और अनुभव करने का प्रयास करते हैं।
अभिव्यंजनावाद का अर्थ
अभिव्यंजनावाद एक पाश्चात्य विचारधारा है। इसके प्रतिपादक प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक क्रोचे हैं। पाश्चात्य काव्य-समीक्षकों के क्षेत्र में जब स्वच्छन्दतावाद अपनी चरम सीमा को छूने लगा, तब प्राचीन मान्यताओं की उपेक्षा की जाने लगी। अरस्तू की भी बातों को महत्त्वहीन बताया जाने लगा। उस समय नवीनवाद की आवश्यकता पड़ने लगी, लोग नवीनता की अपेक्षा करने लगे। उस समय अठारहवीं शती के एडवर्ड यंग ने इस बात पर जोर दिया कि अपने को जानो और अपना सम्मान करो। इसके बाद साहित्यकारों में अहं की भावना अति प्रबल हो उठी तथा वह अपनी अहं भावना को व्यक्त करने को तत्पर हो गया। उन्नीसवीं शती के साहित्यकार यह समझने लगे कि वैयक्तिक भावना को अभिव्यक्त करना ही साहित्यकार का काम है। इसी प्रवृत्ति का अत्यन्त विकसित रूप वेनेदेतो क्रोचे के अभिव्यंजनावाद के माध्यम से समाज के समक्ष आया।
क्रोचे ने एक दार्शनिक होते हुए भी साहित्य का अनुशीलन किया। उन्होंने अभिव्यंजनावाद का प्रवर्तन किया। इनसे पहले के विचारक काण्ट और हीगेल ने बाह्य जगत् की पूर्णरूप से उपेक्षा नहीं की थी, किन्तु क्रोचे ने केवल मानसिक क्रियाओं को ही मान्यता प्रदान की तथा उन्होंने वाह्य उपकरणों को प्रमुखता नहीं दिया। क्रोचे के ही सिद्धान्त का समर्थन 'वर्ड्सवर्थ', कॉलरिज, गेटे आदि अनेक काव्य-समीक्षकों ने भी किया है।
अभिव्यंजनावाद का स्वरूप
अभिव्यंजनावाद को अच्छी तरह समझने के लिए सबसे पहले इसके स्वरूप को जानना अति आवश्यक है। अभिव्यंजनावाद एक कला-सिद्धान्त है। जब हमारी अन्तःप्रकृति किसी भी कलाकृति के सम्पूर्ण प्रभाव को विशुद्ध रूप से अपनी क्षमता के अनुसार ग्रहण करके उसे ज्यों-का-त्यों अभिव्यक्त कर देती है, तब उसको ही अभिव्यंजनावाद कहते हैं।
क्रोचे के अनुसार- मुख्य रूप से आत्मा की क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं- सैद्धान्तिक और व्यावहारिक । व्यावहारिक क्रिया मनुष्य की इच्छा-शक्ति पर निर्भर करती है और उसके दो रूप होते हैं- उपयोगी और नैतिक। इन दोनों व्यावहारिक क्रियाओं में से उपयोगी क्रिया योगक्षेम की भावना से सम्बद्ध होती है तथा इन क्रियाओं में कर्मपक्ष की प्रधानता होती है। ये प्रत्यक्ष एवं स्थूल होती हैं। नैतिक क्रियाएँ शास्त्र-सम्मत आचार-प्रधान होती हैं। यह मंगलमय क्रिया होती है। उन क्रियाओं का सम्बन्ध सत्-असत्-विवेक से होता है। विचारक क्रिया के भी दो रूप होते हैं- सहजानुभूति तथा तर्कज्ञान। क्रोचे का मानना यह है कि यदि तर्क तक पहुँचने के लिए बुद्धि की सहायता आवश्यक होती है, तो सहजानुभूतियाँ कल्पना के बल पर प्राप्त होती हैं। यदि सहजानुभूति बिम्बों का प्रणयन करती है तो तर्कज्ञान पदार्थ बोध का। उन्होंने मानस व्यापार स्वरूपिणी सत्ता के भी चार स्तरों की चर्चा की है- (i) सौन्दर्य (Beauty), (ii) सत्य (Truth), (iii) उपयोगिता (Utility) और (iv) शिव (Goodness) ।
इस प्रकार, क्रोचे के अभिव्यंजनावाद का आधार स्वयंप्रकाशज्ञान या सहजानुभूति ही है। इनकी सहजानुभूति की चर्चा करते हुए हेनरी स्कॉट जेम्स ने लिखा है-
Croce contrasts intution with impression, sensation the bare matter of experience more than mechanism, naturality, passivity it is the active expression of impressions.
क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद की व्याख्या करते हुए उसके चार स्तरों का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि- The complete process of aesthetic production can be simbolised in four steps (a) Impression (b) Expression or spiritual aesthetic synthesis (c) Hedonistic accompaniment or the pleasure of beautiful (d) Translation of the aesthetic fact in to physical phenamenon.
अभिव्यंजनावाद के तत्व
क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद के चार तत्त्वों की ओर संकेत किया है, जो इस प्रकार हैं-
- सहजानुभूति- सहजानुभूति से अभिप्राय मन में स्वयं उत्पन्न हुई मूर्त भावना से है। बुद्धि की क्रिया के बिना किया जाने वाला मूर्त्त विधान ही सहजानुभूति है। वह आत्मा की स्वाभाविक वृत्ति होती है। उसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। क्रोचे इसी सहजानुभूति को अभिव्यंजना कहते हैं। उनकी यह अभिव्यंजना अन्तर्मन में ही उत्पन्न होती है।
- कला- क्रोचे सहजानुभूति को ही कला मानते हैं। उनके अनुसार सहजानुभूति और कला में अभेद सम्बन्ध है। उन्होंने कहा है कि यदि हमारी कल्पना प्रखर है तथा हमारा सहज ज्ञान समर्थ है तभी हम एक अच्छे कवि अथवा चित्रकार बन सकते हैं। उन्होंने कला को एक आध्यात्मिक प्रक्रिया माना है। वे कहते हैं कि कलाकार में सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा चार विशेषताएँ होती हैं- सजग इच्छा-शक्ति, कलानिर्मिति का ज्ञान, चिन्तन और कल्पना-शक्ति।
- विषय और शैली - अभिव्यंजना का आधार विषय है। वह अपनी भावनाओं को ही मूर्त रूप देता है। कुछ विचारकों के अनुसार यह मूर्त्तविधान ही शैली है। क्रोचे का भी यही मानना है कि विषय ही शैली के रूप में परिणत हो जाता है।
- कल्पना - क्रोचे ऐसा मानते हैं कि काव्य के प्रणयन के लिए कल्पना का होना अति आवश्यक है। उसके द्वारा कवि मूर्त्तविधान और सौन्दर्यबोध का कार्य करता है। कल्पना न तो पदार्थों का विभाजन करती है और न ही उनके गुणों को ग्रहण करती है, वह साक्षात् पदार्थों का अनुभव करके उसकी सौन्दर्य-पूरित अभिव्यक्ति करती है। क्रोचे का कहना है कि सौन्दर्य ही सफल अभिव्यक्ति है, जो अभिव्यक्ति सफल नहीं है, वह अभिव्यक्ति है ही नहीं। उसे अभिव्यक्ति की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।
अभिव्यंजनावाद की विशेषताएँ
क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की कतिपय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- क्रोचे के अनुसार कला स्वतः स्फुरित तत्त्व है। उसकी उत्पत्ति न तो अनुकृति से होती है और न तो नियमबद्ध यांत्रिकता से ।
- क्रोचे के सौन्दर्य-दर्शन का आधार कलावाद और स्वच्छन्दतावाद है।
- क्रोचे के अनुसार कला कला मात्र है, उसमें न तो उपदेश है, न तो सूचना, न तो प्रयोजन मूलकता है और न तो नियमानुवर्तिता । कला में ऐसा कुछ भी पदार्थ देखना उसके स्वरूप का तिरोधान करना है।
- क्रोचे यह मानते हैं कि किसी भी कलाकृति का अध्ययन ऐतिहासिक परिवेश में करना चाहिए, क्योंकि कलाकार के व्यक्तित्व की निर्मिति युगीन परिस्थितियों में होती है।
- क्रोचे के अनुसार कला का अध्ययन खण्डशः नहीं हो सकता है। कला की समग्रता में ही सौन्दर्य का निवास है। सौन्दर्य अवयव अथवा व्यष्टि में न रहकर समग्रता अथवा समष्टि में रहता है।
- क्रोचे सौन्दर्य और कला दोनों को अखण्ड और अविभाज्य मानते हैं।
- क्रोचे कला, अन्त: प्रज्ञा, अभिव्यंजना, कल्पना, मनोज्ञ-कल्पना, सौन्दर्य आदि शब्दों का पर्यायवाची के रूप में प्रयोग करते हैं।
- क्रोचे के अनुसार अभिव्यंजना का निरूपण कला के लिए किया जाता है कलाकृति के लिए नहीं किया जाता।
अतः अभिव्यंजनावाद एक कला सिद्धान्त है।अभिव्यंजनावाद साहित्यिक आलोचना और कला का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो भावनाओं, कल्पना और व्यक्तिगत अनुभवों पर जोर देता है। यह सिद्धांत कला को भावनाओं की अभिव्यक्ति मानता है और दर्शकों या पाठकों को इन भावनाओं को समझने और अनुभव करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
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