अस्तित्ववाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं

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अस्तित्ववाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं अस्तित्ववाद दर्शन की एक शाखा है जो व्यक्ति के अस्तित्व, स्वतंत्रता और चुनाव पर केंद्रित है। यह 19वीं शता

अस्तित्ववाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं


स्तित्ववाद दर्शन की एक शाखा है जो व्यक्ति के अस्तित्व, स्वतंत्रता और चुनाव पर केंद्रित है। यह 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विकसित हुआ था, और इसके प्रमुख विचारकों में सोरेन कीर्केगार्ड, फ्रेडरिक नीत्शे, जीन-पॉल सार्त्र, अल्बर्ट कैमस और सिमोन द बोवोइर शामिल हैं।

अस्तित्ववाद पिछले वर्षों में पर्याप्त विवाद का विषय रहा है। उसकी चर्चा करना एक फैशन-सा बन गया है। इस सन्दर्भ में हम इतना ही कह सकते हैं कि इसकी चर्चा करने वाले व्यक्तियों में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो इसकी सही-सही व्याख्या कर सकेंगे।
 
उन्नीसवीं शताब्दी में व्यक्ति की स्वतन्त्रता और वैयक्तिकता को महत्त्व देने वाले कई जीवन-दर्शनों का विकास हुआ। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जीवन-दर्शन अस्तित्ववाद है। अस्तित्ववाद वस्तुतः दर्शन के क्षेत्र का विषय है, कला या साहित्य के क्षेत्र का नहीं ।
 
अस्तित्वाद के मूल में निम्न तीन बातें मुख्य हैं- 
  1. मनुष्य की सृष्टि और इस जगत् में इसके आगमन के पीछे कोई प्रयोजन निहित नहीं है।
  2. मनुष्य को इस निरर्थक और आयोजित संसार में बिना उसकी मर्जी के ही आना पड़ता है। 
  3. इस चंचल सृष्टि में प्रक्षेपित कर दिये जाने के बाद यथेच्छ कर्म करना और अपने अस्तित्व को अर्थ एवं प्रयोजन-मण्डित करना मनुष्य का अपना दायित्व है | 
अस्तित्ववाद वस्तुतः एक दार्शनिक मतवाद है। वह उन समस्त परम्परागत तर्कसंगत दार्शनिक मतवादों के विरुद्ध एक विद्रोह है जो विचारों अथवा पदार्थ-जगत् की तर्कसंगत व्याख्या करते हैं तथा मानवीय सत्ता की समस्या की उपेक्षा करते हैं।

अस्तित्ववाद की परम्परा

अस्तित्ववाद का प्रचार द्वितीय विश्व-युद्धोत्तर काल में फ्रांसीसी लेखक तथा विचारक ज्याँ पाल सार्त्र द्वारा किया गया है। प्रायः अधिकांश व्यक्ति सार्त्र को ही अस्तित्व का प्रतिष्ठापक एवं प्रवर्तक मानते हैं।

अस्तित्ववाद की परम्परा लगभग सौ वर्ष पुरानी है। डेनमार्क (यूरोप) के विद्वान् कीर्केगार्ड से यह परम्परा आरम्भ होती है। विद्वानों के एक वर्ग के अनुसार अस्तित्ववादी दर्शन की परम्परा हाइडेगर, पास्कल और मसीही सन्तों, बर्नार्ड एवं ऑगस्टिन आदि से होती हुई सुकरात तथा ग्रीक स्टाइकों तक से जोड़ी जा सकती है। वैसे मान्य मान्यता के अनुसार स्तित्वरादि के मूल प्रवर्तक डेनमार्क निवासी सॉरन कीर्केगार्ड (सन् 1813-1855) हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थ डेनिश भाषा में लिखे। प्रथम महायुद्ध के आस-पास इसके प्रन्थों का अनुवाद जर्मन भाषा में हुआ। जर्मनी और फ्रांस के अनेक विद्वान इस विचारधारा के प्रसार-प्रचार में योगदान देते रहे हैं। इनमें प्रमुख ये हैं-जर्मनी के फ्रेडरिक, नीश्ते, मार्टिन हेडेगर तथा कार्ल जास्पर्स, फ्रांस के गेब्रियल, मार्शल, ज्याँ पाल सार्त्र तथा अलबर्टकामू आते हैं।
अस्तित्ववाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं
 
आस्था की दृष्टि से अस्तित्ववादी विचारकों के दो वर्ग ठहरते हैं; यथा- 
  • आस्तिक अस्तित्ववादी- इनमें जैस्पर्स, मार्शल और सार्त्र मुख्य हैं । 
  • नास्तिक अस्तित्ववादी-इन तीन विद्वानों के अतिरिक्त शेष अस्तित्ववादी इसी के अन्तर्गत आते हैं।

अस्तित्ववाद का स्वरूप विवेचन

अस्तित्ववाद के लेखकों एवं विचारकों में सर्वाधिक महत्व ज्याँ पाल सार्त्र को दिया जाता है। 'अस्तित्ववाद' वस्तुतः सार्त्र तके नाम के साथ संलग्न हो गया है। अतएव हम सार्त्र कृत व्याख्याओं के आधार पर ही अस्तित्ववाद का स्वरूप-विवेचन करते हैं; यथा- 

सार्त्र ने सन् 1951 में पेरिस में एक व्याख्यान दिया था। उसने 'अस्तित्ववाद क्या है ?' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था कि अस्तित्ववादियों के दो वर्ग हैं-आस्तिक और नास्तिक। दोनों वर्गों के विद्वानों में एक बात समान है। वे सोचते हैं कि अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती है अर्थात् यदि हम चाहें तो कह लें कि अस्तित्व पहले है और उसके अनस्तव तथा हमारा प्रारम्भ बिन्दु, विषयीगत तत्त्व है। ईश्वर के मस्तिष्क, मनुष्य की अवधारणा की तुलना उत्पादक के मस्तिष्क में कागज काटने के यन्त्र से की जा सकती है। कुछ अविधियों और एक अवधारणा का अनुसरण करते हुए ईश्वर सी मानव का निर्माण करता है। जैसे कि एक शिल्पी एक परिभाषा विशेष एवं अविधि विशेष का अनुसरण करते हुए कागज काटने के यन्त्र का। इस प्रकार व्यक्ति मानव ईश्वरीय मेधा में किसी विशेष अवधारणा की मूर्त सिद्धि है। इसी सन्दर्भ में सार्त्र का कहना है कि प्रत्येक मनुष्य एक अवधारणा के रूप में मनुष्य का एक विशेष उदाहरण हुआ ।

अस्तित्ववाद की आधारभूत धारणाएँ

परम्परागत विचारधारा के अनुसार सृष्टि में पहले विचार (Idea) का उदय हुआ और फिर विचार के अनुसार वस्तु का उदय हुआ। इस सृष्टि की उत्पत्ति का हेतु विचारधारा (Idealist) है। इसी कारण प्लेटो आदिक विचारक विचारवादी या तत्त्ववादी (Idealist) है। इसी कारण प्लेटो आदिक विचारक विचारवादी या तत्त्ववादी (Idealist) कहलाते हैं। अस्तित्ववादी विचारधारा ठीक इसके विपरीत है। तत्त्ववादी के निकट विचार या तत्व शाश्वत सत्य है और भौतिक जगत् क्षणभंगुर है। अस्तित्ववादी का कहना है कि वस्तु के अभाव में विचार या तत्त्व क्योंकर सम्भव हो सकता है? इसके अनुसार पहले व्यक्ति अस्तित्व में आया, बाद में उसके द्वारा विभिन्न विचारों, सिद्धान्तों आदि का निरूपण किया गया। अतएव व्यक्ति का अस्तित्व ही प्रमुख है, विचार या सिद्धान्त गौण है। विचार या प्रत्यय की अपेक्षा व्यक्ति के अस्तित्व को अधिक महत्व देने के कारण ये अस्तित्ववादी कहलाते हैं। अस्तित्ववाद के सन्दर्भ में अग्रलिखित मान्यताएँ दृष्टव्य हैं-
 
  1. व्यक्तिगत की महत्ता-व्यक्ति प्रमुख है, समाज गौण है। इसको सार्त्र ने विषयीगतत्व का सिद्धान्त।कहा है- "मनुष्य अपने आपको जो बनाता है, उसके तिरिक्त वह कुछ नहीं हैं।” मनुष्य मूलतः एक सम्भावना है, वह भविष्योन्मुख है अतएव मनुष्य का भूतकाल अस्तित्ववादियों के निकट महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
  2. क्षणवाद - मनुष्य क्षण-क्षण में जीवित रहता है। वह प्रत्येक क्षण अपने आपको पुनसंजित करता है और प्रत्येक क्षण मूल्यं बनाता है। 
  3. सामाजिकता - मनुष्य अपूर्ण है, परन्तु समाज के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस धारणा के पीछे लोक कल्याण की अवधारणा झाँकती हुई दिखाई देती है। सार्त्र का कथन दृष्टव्य है कि-“जब हम कहते हैं कि मनुष्य अपने लिए उत्तरदायी है, जो वास्तव में हमारा यह अभिप्राय नहीं होता है कि वह केवल अपने लिए, केवल अपने अकेले के नहीं, व्यक्ति के लिए उत्तरदायी है; जबकि होता यह है कि वह सब मनुष्यों के लिए उत्तरदायी है। 
  4. निरपेक्ष नास्तिकता - अस्तित्ववादी ईश्वर की सत्ता की समस्या को मानव-सत्ता के प्रश्न से असम्बद्ध समझता है, धर्म, ईश्वर और व्यक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में ऊहापोह करने के सार्त्र ने अस्तित्ववादी आस्तिकता को वस्तुतः निरपेक्ष अथवा आस्तिकवादी नास्तिकता कहा है; यथा— अस्तित्ववाद वास्तविकता की सुसम्बद्ध स्थिति के सारे निष्कर्ष ग्रहण करने के प्रयास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।” अस्तित्ववाद ईश्वर की सत्ता को नकारने के लिए उत्सुक नहीं है। उसका कहना है कि यदि ईश्वर की सत्ता है भी तो उससे कुछ अन्तर नहीं होता। मतलब यही नहीं है कि हम विश्वास करते हैं कि ईश्वर है, बल्कि हम सोचते यह हैं कि ईश्वर की सत्ता का प्रश्न ही हमारी समस्या है।
  5. स्वच्छन्दतावाद–मनुष्य अपने मूल्यों का वरण करता है और अपने आपको बनाता है तथा अपने इस वरण के लिए स्वयं उत्तरदायी है। दूसरे शब्दों में, नियति जैसी चीज कुछ नहीं है, मनुष्य स्वतन्त्र है। मनुष्य इच्छानुसार मूल्यों का वरण करने को और अपने आपको बनाने को स्वतन्त्र है । परन्तु साथ ही अपनी इस स्वतन्त्रता के प्रति वह मनुष्य को सजग भी कर देता है। अतः अस्तित्ववादी दर्शन मुक्तिदायक होने के साथ-साथ भयावह भी है।इसका दूसरा पक्ष यह है कि किसी भी सिद्धान्त को सर्वांगीण, सार्वभौमिक या सार्वजनिक नहीं माना जा सकता है। इसी दृष्टि से अस्तित्ववादी के लिए समस्त परम्पराएँ, सामाजिक, नैतिक एवं वैज्ञानिक मान्यताएँ—जो व्यक्ति के जीवन से सम्बद्ध हैं, अमान्य एवं अव्यावहारिक हैं। 
  6. एकाकीपन-अस्तित्ववादी का कहना है कि मनुष्य को अपने अनन्त उत्तरदायित्वों के मध्य इस पृथ्वी पर असहाय और अकेला छोड़ दिया गया है। अतः मनुष्य अपने कर्मों की समष्टि के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। एकाकीपन में वह निहित है और अपने अस्तित्व का वरण वह स्वयं करता है। 
  7. दुःखवादी कर्मवाद—यथेच्छ कर्म करने की बात कर्मवाद के प्रतिपादन जैसी बात है, परन्तु अस्तित्ववादी का कर्मवाद एकाकीपन का प्रतिपादक और लौकिक नीतिवाद का विरोधी है। वह एकाकीपन और पीड़ा को एक साथ स्वीकार करता है।अस्तित्ववादी का कहना है कि हमने जो चाहा, वह नहीं बन सके, तो बदले में प्रत्येक प्रकार का दुःख यहाँ तक कि मृत्यु को भी स्वीकार करने के लिये प्रस्तुत रहें। इस प्रकार अस्तित्ववादी के लिए अपने अस्तित्व का बोध, जीवन-मूल्यों का ज्ञान, दुःख या त्रास की स्थिति में ही होता है। अतः उसको इस स्थिति के स्वागतार्थ सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। अस्तित्व-बोध का सिद्धान्त वस्तुतः दुःखवाद के सिद्धान्त पर निर्भर है। इस दर्शन के अनुसार अपना अस्तित्व, अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं निजी लक्ष्य का चुनाव जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही दुःख, निराशा, प्रस्तुत वेदना का भोग भी रुचिकर है। अस्तित्ववादी दुःख या पीड़ा को विवशता के रूप में नहीं, बल्कि एक उपलब्धि के रूप में स्वीकार करता है।
  8. समस्त आचार संहिता का विरोध-अस्तित्ववादी धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक मूल्यों एवं नियमों के विरोधी हैं, क्योंकि ये ही वे तत्त्व हैं जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता अथवा स्वच्छन्दता को नियमित, नियन्त्रित अथवा | बाधित करते हैं। अस्तित्ववादी का झगड़ा ईश्वर से न होकर उसके नाम पर निर्मित आस्थाओं, विश्वासों, नीति-नियमों आदि से है।
  9. ज्ञान-विज्ञान का विरोध - अस्तित्ववादी के मतानुसार सारे झगड़े की जड़ विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त, मत, वाद, नियम आदि हैं। उदाहरणार्थ-यदि हम अपने शब्द-कोश से प्रजातन्त्र, साम्यवाद, समाजवाद आदि शब्द निकाल दें, तो विश्व-युद्ध की आशंकाएँ सहज समाप्त हो जाएँ। इसी के साथ यह भी कहता है कि विविध विषयक जानकारी होने से व्यक्ति के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। 
  10. मृत्यु का वरण- अस्तित्ववादी की मान्यता है कि संत्रास में ही अस्तित्व का बोध होता है। डर-डरकर जीवित रहने की अपेक्षा स्वतन्त्रता एवं स्वच्छन्दतापूर्वक मृत्यु का वरण कर लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मृत्यु आकर हमें ग्रसित करे, इसकी अपेक्षा तो यही अधिक अच्छा है कि हम स्वयं जाकर मृत्यु का वरण करें। उस स्थिति में हम यह देखें तो कह सकेंगे कि हम मृत्यु द्वारा मरे नहीं, बल्कि हमने स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का वरण किया है। अस्तित्ववादी मृत्यु के द्वारा स्वतन्त्रता की रक्षा की कामना करता है।
  11. गद्यात्मकता - सार्त्र ने लिखा है कि कला-कृतियों की अभिव्यक्ति विचारों के संसार में नहीं वस्तुओं, विषयों, बिम्बों, रंगों और ध्वनियों के संसार में होती है। सार्त्र ने स्पष्ट लिखा है कि विचारों की अभिव्यक्ति गद्य के ही माध्यम से होती है। हमारे विचार से अस्तित्ववादी कलाकार कवि शब्द का प्रयोग भी परम्परागत अर्थ में नहीं करता है। गद्य वस्तुतः अस्तित्ववाद के व्यक्ति-निष्ठावाद की अभिव्यक्ति की कोई विशिष्टं गद्य विधा है।
 

हिन्दी कविता और अस्तित्ववाद

हिन्दी काव्य में भी अस्तित्व का प्रभाव दिखाई दिया। यह प्रभाव अंग्रेजी के माध्यम से अथवा अंग्रेजी की नकल की प्रवृत्ति के कारण आया। इस प्रभाव के अन्तर्गत लिखी गई हिन्दी कविता प्रयोगवाद के नाम से अभिहित हुई। हिन्दी में यह प्रवृत्ति सन् 1950 से लेकर सन् 1960 तक, केवल 10 वर्ष तक ही बलवती रही। इस प्रभाव के फलस्वरूप हिन्दी कविता में मुख्यतः ये प्रवृत्तियाँ दिखाई दी हैं— अस्तित्व का बोध, वैयक्तिकता की स्थापना अथवा अहं का विस्फोट, अनास्था, उन्मुक्त-भोग, पीड़ा की स्वीकृति, निराशावादी दृष्टि, मृत्यु का वरण, नये उपमान, नवीन छन्द-विधान । बौद्धिक सघनता के कारण कविता गद्यात्मक हो गई। यह सार्त्र के कथन के सर्वथा अनुरूप है, अस्तित्व बोध की अभिव्यक्ति गद्य के द्वारा ही सम्भव है।
 
उपसंहार - 'अस्तित्ववाद' का साध्य है-चयन की स्वतन्त्रता, जिसके लिये वह दुःख और मृत्यु का भी वरण कर सकता है। ईश्वर के अस्तित्व अथवा अनास्तित्व से उसके लिये कोई अन्तर नहीं पड़ता है। 

अस्तित्ववाद वस्तुतः व्यक्तिवादित्व का जीवन-दर्शन है, जो अहंवाद और उच्छृंखलता की टाँगों वाली वैशाखी पर खड़ा है। व्यक्तिवाद आत्मरति, कामुकता, परम्परा-विरोध, निराशा आदि इसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं । काव्य के क्षेत्र में अस्तित्ववाद की अभिव्यक्ति के लिये उपन्यास को सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम माना गया है । 

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