लिंगाधारित भेदभाव हमारे समाज के लिए एक महामारी है. जिसका सामना करने और इसे समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर सहयोग की आवश्यकता है. केवल महिलाओं के लि
सामाजिक पहल से ही लिंग आधारित हिंसा ख़त्म हो सकती है
महिलाओं के विरुद्ध हिंसा आज भी हमारे समाज में एक गंभीर समस्या बनी हुई है. इसकी वजह से महिलाएं केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी विकास में पिछड़ जाती हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी 2022 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 2021 की तुलना में 2022 में महिलाओं के प्रति अपराध में चार प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 2022 में देश में अपराध के 58 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें महिलाओं के प्रति अपराध के करीब साढ़े चार लाख मामले थे. मतलब हर घंटे औसतन करीब 51 एफआईआर महिलाओं के साथ हुए हिंसा के दर्ज हुए. रिपोर्ट के अनुसार जहां राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ सबसे अधिक हिंसा के मामले दर्ज हुए, वहीं राजस्थान की राजधानी जयपुर इस मामले देश का चौथा सबसे बड़ा असुरक्षित शहर के रूप में दर्ज किया गया था.
एनसीआरबी के राज्यवार आंकड़ों पर नजर डालें तो राजस्थान देश का तीसरा ऐसा राज्य है जहां 2022 में महिलाओं के विरुद्ध सबसे अधिक हिंसा के मामले दर्ज किए गए हैं. वहीं बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य की बात करें तो इस मामले में राजस्थान में सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए थे. रिपोर्ट के अनुसार 2022 में देशभर में बलात्कार के 31,000 से ज्यादा मामले रिपोर्ट किए गए. इनमें सबसे अधिक 5,399 केस राजस्थान में दर्ज हुए थे. रिपोर्ट बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ ज्यादातर हिंसा या भेदभाव के मामले पति या उसके करीबी रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं. दरअसल महिलाओं के खिलाफ केवल शारीरिक अथवा मानसिक ही नहीं बल्कि यौनिक और आर्थिक रूप से भेदभाव भी लैंगिक हिंसा कि श्रेणी में दर्ज किए जाते हैं. इसका सबसे व्यापक स्वरूप अंतरंग साथियों द्वारा की जाने वाली हिंसा यानि इंटिमेट पार्टनर वायलेंस है, जहां एक महिला अपने जीवन में कभी न कभी अंतरंग साथी द्वारा यौन या शारीरिक हिंसा की शिकार होती है.
अक्सर न केवल जागरूकता के अभाव में बल्कि कई अन्य कारणों से भी अंतरंग साथी विशेष रूप से पति द्वारा हिंसा या लैंगिक भेदभाव की शिकार महिलाएं बहुत कम इसकी शिकायत करती हैं. केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी यही प्रवृत्ति देखी जाती है. जहां एक महिला घर और परिवार की इज्जत के नाम पर पति द्वारा की जाने वाली शारीरिक अथवा मानसिक हिंसा को सहन करती रहती हैं. हालांकि कई महिलाएं हिम्मत का परिचय देते हुए अपने विरुद्ध होने वाली हिंसा के खिलाफ आवाज उठाती हैं और पुलिस में इसकी शिकायत भी दर्ज कराती हैं. इसकी एक मिसाल राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित बाबा रामदेव नगर कच्ची बस्ती है. जहां लैंगिक भेदभाव और हिंसा काफी अधिक संख्या में देखने को मिल जाती है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति बहुल यह बस्ती शहर से करीब 10 किमी दूर गुर्जर की थड़ी इलाके में आबाद है.
लगभग 500 से अधिक लोगों की आबादी वाले इस बस्ती में लोहार, मिरासी, कचरा बीनने वाले, फ़कीर, शादी ब्याह में ढोल बजाने वाले, बांस से सामान बनाने वाले और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है. इस बस्ती में साक्षरता विशेषकर महिलाओं में साक्षरता की दर काफी कम है. माता-पिता लड़कियों को सातवीं से आगे नहीं पढ़ाते हैं. इसके बाद उन्हें कचरा चुनने के काम में लगा दिया जाता है. इस बस्ती में महिलाओं के साथ लैंगिक हिंसा और भेदभाव आम बात हो गई है. इस संबंध में बस्ती की 38 वर्षीय मीना देवी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि "मैं कचरा बीनती हूं और मेरा पति बेलदारी का काम करता है. मेरे 6 बच्चे हैं, जिनमें 4 लड़कियां हैं. घर की हालत ऐसी है कि किसी प्रकार गुजारा चल रहा है. पति को कभी कभी काम नहीं मिलता है. इसलिए घर की आमदनी के लिए मैं और मेरी दो बेटियां प्रतिदिन कचरा बीनने का काम करती हैं. इस काम में हाथ बंटाने के लिए उनका स्कूल जाना भी छुड़ा दिया है." वह बताती हैं कि "मेरा पति नशा कर मेरे साथ मारपीट करता था. जिसका दुष्प्रभाव बेटियों पर भी पड़ रहा था. एक दिन हिम्मत करके मैंने पुलिस को बुला लिया, जिसके बाद अब वह काफी कम मारपीट करता है.
मीना बताती हैं कि महिलाओं का पति द्वारा हिंसा का शिकार होना इतना आम है कि इससे बस्ती में किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. बस्ती के अधिकतर पुरुष नशा कर पत्नी के साथ अत्याचार करते हैं. हालांकि इस सिलसिले में यहां कई स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं. जो महिलाओं को इस हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए जागरूक कर रही हैं. लेकिन अभी भी यह पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है. वहीं नाम नहीं बताने की शर्त पर एक अन्य महिला बताती है कि 'वह 8 वर्ष पूर्व पति और बच्चों के साथ कोटा से जयपुर के इस बस्ती में आई थी. उसका पति कबाड़ी का काम करता है जबकि वह घर के कामकाज में व्यस्त रहती है.' वह बताती है कि उसका पति रोज नशा करके उसके साथ हिंसा करता है. उसे बस्ती में काम करने वाली संस्थाओं की कार्यकर्ताओं से मिलने भी नहीं देता है. उस महिला के हाथ कई जगह से जले हुए थे. जो उसके साथ होने वाली शारीरिक हिंसा को बयां कर रही थी वह बताती है कि अक्सर बस्ती की महिलाएं उसे पति की हिंसा से बचाती हैं. कई बार उसे पुलिस की मदद लेने की सलाह भी दी जाती है, लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहती है.
इस संबंध में समाजसेवी अखिलेश मिश्रा बताते हैं कि "कई महिलाओं के लिए अपने पति के खिलाफ कदम उठाना बड़ी ही कठिनाई भरा काम होता है. दरअसल शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इस बस्ती की महिलाएं अपने अधिकारों से परिचित नहीं हो पाती हैं. जबकि सरकार द्वारा महिलाओं को लैंगिक हिंसा से बचाने के लिए कई कानून बनाए गए हैं. आईपीसी की धारा के तहत वह अपने साथ होने वाली हिंसा के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती हैं. इस दिशा में कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी यहां काम कर रही हैं और महिलाओं को लैंगिक भेदभाव या हिंसा के विरुद्ध जागरूक कर रही हैं. जिसका असर भी नजर आने लगा है. अब बस्ती की कुछ महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाती हैं और इसके लिए पुलिस का सहारा भी लेती हैं. लेकिन अभी भी यह जागरूकता बड़े पैमाने पर फैलाने की जरूरत है." वह बताते हैं कि इस बस्ती में बालिका शिक्षा का स्तर बहुत कम है. परिवार में लड़कियों को पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जाती है. शिक्षा से यही दूरी उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता से भी दूर कर देता है.
वास्तव में, लिंगाधारित भेदभाव हमारे समाज के लिए एक महामारी है. जिसका सामना करने और इसे समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर सहयोग की आवश्यकता है. केवल महिलाओं के लिए जागरूकता की बात करके समाज अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकता है बल्कि उनके साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए सभी को मिलकर काम करने की ज़रूरत है, ताकि एक समर्थ, समान और लिंगाधारित हिंसा तथा भेदभाव रहित समाज का निर्माण हो सके. (चरखा फीचर)
- कविता धमेजा
जयपुर, राजस्थान
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